सीखने के लिए मैंने हर जख्म सींचे हैं, पढ़ना है दर्द मेरा तो सब लिंक नीचे हैं

सोमवार, दिसंबर 14, 2009

मेरा जिला, राज्य घोषित हो

सोचता हूँ कि अपने जिले इटावा को राज्य घोषित करा लूँ।
इसके दो फायदे होंगे। पहला ये कि मेरा गाँव जिला बन जाएगा और मेरे मुख्यमंत्री न सही तो इस नए राज्य के महत्वपूर्ण मंत्री बनने के चांस बढ़ जायेंगे।
ये बहुत रोमांचक "मूमेंट" होगा मेरे लिए। हालाँकि इस रोमांचक "मूमेंट" के लिए मुझे थोड़ा सा मूवमेंट करना पड़ेगा। ज्यादा नहीं, थोड़ा सा। फिर क्या, समझो अपना जिला बन गया राज्य।

ये कोई मुश्किल प्रक्रिया मुझे नहीं लगती। देखिये न, अब तेलंगाना को नए राज्य बनाने की घोषणा कर दी। इस निर्णय ने ऐसा तूल पकड़ा कि अब नए 14 राज्य बनने की मांग उठ गई। पहले सिर्फ़ एक तेलंगाना राज्य के लिए अनशन किया जा रहा था। अब 8-10 राज्यों के लोग अनशन पर बैठ गए हैं। खूब फोटो भी खिच रही हैं ।

मैं भी जल्द अब अपने जिले को राज्य घोषित कराने के लिए अनशन पर बैठने वाला हूँ। मुझे मालूम है कि इसके बाद भेड़ियों की तरह मीडिया वाले मेरी फोटो खीचेंगे और पूछेंगे कि "आपको अनशन पर बैठकर कैसा लग रहा है?"
"जब तक मेरा जिला घोषित नहीं होता तब तक मैं भूखा ही रहूँगा और मरते दम तक मैं अनशन करता रहूँगा। " (ये सब सिर्फ़ दिखावे के लिए। मरूंगा नहीं, मर गया तो मेरे मंत्री बनने का क्या होगा? )

मेरा अनशन सोमवार से शुरू होगा। क्योंकि हर रविवार को मेरा बावर्ची मेरे लिए दोपहर में हलवा और खीर बनाता है। सब्जी में छोले और पूरी बनती है। फिर रात में नॉन वेज़ बनाता है। अब इसे तो मैं कभी भी नहीं छोड़ सकता।

आप सभी मेरे प्रिय, साधू पाठकों से निवेदन है कि मेरे इस अनशन में जरूर आयें। जो मेरा खुलकर साथ देगा उसे मैं मंत्री बना दूँगा और जो मेरे लिए मीडिया के सामने नारेबाजी करेगा उसे विधायक की टिकट पक्की। जो मेरे लिए मीडिया के सामने नारेबाजी के साथ मार-पीट और हंगामा करेगा, उसे मंत्री में जो भी विभाग चाहिए दे दिया जाएगा।

ये सब प्रलोभन उसी आधार पर हैं, जैसा कि देश में चल रहा है।

शनिवार, दिसंबर 12, 2009

जिनके पिता नहीं होते

दो दिन पहले नव दुनिया में एक ऐसी कविता प्रकाशित की गई जिसने मेरे दिल को छू लिया।

ये कविता प्रिया गोपी (छात्रा) ने अपने पिता के दिवंगत हो जाने के कुछ दिन बाद उनके स्मरण पर लिखी। इस कविता को तीसरे कदम का सलाम।
ये कविता अब दुनिया के पटल पर में देना चाहता हूँ।

"जिनके पिता नहीं होते
बगैर किसी उंगली
या हाथ के सहारे वे चलते हैं।
ऐसे बच्चे पावं में
गड़ा काँटा निकालते हैं स्वयं।

उनके दिलों में खाली रहती है
एक जगह उम्र भर।
मुसीबत के वक्त
वे आकाश की तरफ़ देखते हैं,
और गहरी साँस लेते हैं।

वे अकेले होते हैं
अपने निर्णय और अनिर्णय में
कोई नहीं होता
उनकी हार-जीत के साथ।
अपनी गलतियों पर
वे झिड़कते हैं ख़ुद को।

हर एक काम के बाद
थपथपाते हैं ख़ुद
अपनी पीठ।
जिनके पिता नहीं होते

ख़ुद अपने पिता
होते हैं ऐसे बच्चे।"


इस छात्रा की कविता पर अपनी टिप्पणी जरूर दे।
सोजन्य से:- नव दुनिया

शनिवार, अगस्त 15, 2009

ट्रक और ऑटो में घमासान



देश में लोग मुर्गा मुर्गी की तरह कट रहे हैं लेकिन प्रशासन को इसकी जरा भी फिक्र नही। मैं तब सन्न रह गया जब लगातार दो दिन एक जैसे घटनाएं घटी। एक 5 अगस्त और एक 6 को।
5 अगस्त को जबलपुर में एक ट्रक ने ऑटो को टक्कर मर दी। भिधंत इतनी जबरदस्त थी की ऑटो में सवार 10 लोगो को चोटें आई जिसमे 8 गंभीर थे। इसी तरह अगले दिन 6 अगस्त को रखी के एक दिन बाद ही कटनी में एक ट्रक ने ऑटो को सामने से ऐसी ठोकर मारी की दो लोगो में एक की मौके पर ही मौत हो गई एक की अस्पताल में। घटना में करीब डेढ़ दर्जन लोग घायल हो गए। ये पेज मैंने ही लगाया था।
आखिर क्या कारण है की आए दिन ट्रक ऑटो को खिलोने की तरह कुचल कर चले जाते है और कोई खास कार्यवाही नही होती। बस मरने पर मुआवजा दे दिया जाता है। बाद में सरकार या प्रशासन पल्ला झाड़ लेती है लेकिन ऐसा कोई मौका नही आता जब इन ट्रक वालों पर ठोस नकेल कसी जा सके।
मृतको के परिवा को मुआवजा देना ही काफी नही होता। जरूरी ये है की जो एक परिवार के साथ ही हादसा हुआ वो किसी और के साथ न हो सके। इसके लिए कदम उठाना चाहिए लेकिन, ऐसा नही हो पता। दिन गुजरते रहते हैं और दिन-प्रतिदिन ट्रक-ऑटो की टक्कर होती रहती है और फिर आर्थिक साहयता राशि……………।
एक पहलु और बताना चाहता हूँ। जब भी कोई दुर्घटना होती है सब-एडिटर के जुबा का पहला प्रश्न यही होता है "देख देख देख इसमे मरे कितने?" जितने मरेंगे उतना ही शानदार ले-आउट तैयार किया जाएगा….
जब एक-आध ही मरता है तो "अरे यार एक ही मरा …. कोई बात नही (ओप्रटर से) ऐसा करो इसे डी सी (दो कोलम) बना दो। ज्यादा तो मरे नही वरना लीड बना देते…….

शुक्रवार, अगस्त 14, 2009

राखी पर भारी पड़ी फ्रेंडशिप डे बेल्ट

मेरे पास टीवी भी है। डेली लोकल (मध्य प्रदेश) और डेल्ही के अखबार भी पढता हूँ। और जहाँ तक थोड़ा बहुत याद है तो मैं एक आध पत्रिकएँ भी मंगाता हूँ ।
कमाल की बात ये है कि सभी में राखी के त्यौहार का उतना कवरेज नही हो सका जितना की पाश्चात्य के फ्रेंडशिप डे का कवरेज हुआ। मैं इसपर पहले से ही नजरे जमाये बता था और मन ही मन ये सोच रहा था की क्या भाई -बहन का प्यार फ्रेंडशिप डे पर भारी पड़ जाएगा ? वो भी इसी देश में…… जवाब मुझे ६ अगस्त राखी के त्यौहार के बाद मिल गया।
सचमुच २१वी सदी में राखी पर फ्रेंडशिप डे आखिरकार भारी पड़ ही गया। अखबारों में पत्रकारों को सिर्फ़ फ्रेंडशिप डे की खरीददारी करते हुए ही लोग दिखाई दिए। क्योंकि ये पाठक देखन भी चाहता है। लेकिन पत्रकारों को राखी खरीदते हुए लगभग-लगभग कोई दिखाई नही दिया।
टीवी तो कवरेज के मामले में और भी सुभान अल्लाह निकले। इलेक्ट्रॉनिक पत्रकारों को तो राखी की दुकाने ही नही दिखाई दी। और जो एक आधी दुकाने दिखाई भी दी तो वो भी सिर्फ़ राखी के त्यौहार से मात्र एक दिन पहले।
लेकिन कमला देखिये कि इन्ही महँ पत्रकारों को फ्रेंडशिप डे पर बंधी जाने वाली बेल्ट और अन्य उपहारों की दुकाने ३६ दिन पहले ही साफ़ नजर आने लगी थी ।
आखिर कब तक हम ये झूठ का पल्लो pakadkar चलते रहेंगे जबकि सच ये है की अब भारतीय कल्चर को नै जेनरेशन अपनाना ही नही चाहती।
इसका उदाहरण वेलेनटाइन डे , फ्रेंडशिप डे, रोसे डे, में देखने को मिलता ही रहता है। अब तो बिना सदी के महारास्त्र में लोग रह बी ही सकते हैं। सी प्रावधान को कर्णाटक, upee , गुजरात, डेल्ही आदि में भी लेन की बात विचाराधीन है। और अब ये 377…
कहाँ है भारतीय कल्चर। डेल्ही में अब एक पति अपनी पत्नी को सरेआम किस कर सकता है।
हमें भारतीय कल्चर को अपने साथ घसीटना नही चाहिए या तो विदेशी कल्चर को अपनाए लेकिन उसे अपनी छाती पर नही चढाना ठीक नही। लेकिन ऐसा होगा नही क्योंकि इस देश में सबसे ज्यादा युवा रह रहे हैं और युवा फिलहाल भारतीय कल्चर को अपनाएं के मूड में नही …………

शुक्रवार, अप्रैल 03, 2009

पैंट की बटन और डेढ़ करोड़

कमाल है यार आदमी पूरी जिन्दगी बिता देता है और डेड करोड़ नहीं कमा पाता और कुछ ऐसे होते हैं की मात्र अपनी पैंट की बटन खुलवाने से ही 1.5 करोड़ लेते हैं। अगर कोई मुझसे ही कह की हज़ार रूपये में पूरी पैंट उतार तो मैं तो तनिक भी देर न लगाऊं। आज देश में कौन है जो नंगा नहीं है। कोई ईमान से नंगा है तो काम से नंगा । और सबसे बड़ी बात है की 24 करोड़ लोग तो आज भी बिना कपड़ो के जी रहे हैं यानी की नंगे हैं, तो ऐसे में मेरी पैंट उतर जाने से कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा।
कमाल की बात हैं किसी को पैंट पहनने के पैसे मिलते हैं तो किसी को पैंट उतारने के पैसे मिलते हैं।
मैंने भी अपने रिज्यूमे तैयार कर लिया है और उसमे साफ़ -साफ़ डार्क अक्षरों में लिख दिया है - "पैंट उतारने में माहिर "........
पैंट खोलने वाली की भी तैयारी चल रही है......
देखते हैं इसी जॉब में ही करियर बन जाए...........

मंगलवार, मार्च 31, 2009

आतंकवाद के खिलाफ केट्वाक

कुछ सुनने मैं आया ........
सुनने में आया की नवम्बर में मुंबई पर हुए आतंकी हमले की खिलाफ शनिवार की रात लक्मे इंडिया फैशन वीक के दौरान 'माय मुंबई शो' आयोजित किया गया।
कमाल है की पहली बार सुना कि किसी आतंकी हमले के खिलाफ प्रदर्शन केट्वाक करके भी होता है।
जब भारत पर सबसे बड़ा आतंकी हमला हुआ था तो देश को बहुत दुःख हुआ था और शर्मिंदगी भी झेली थी......
वो तो अच्छा हुआ की आतंकियों ने 200 -500 लोगों को नहीं मारा नहीं तो फैशन वीक में इसके खिलाफ कपडे उतार कर केट्वाक किया जाता और भारत की दो तरफ़ से नाक कट जाती एक आतंकी हमले से कटी और एक शनिवार की रात कट जाती जहाँ नारी को इतना महत्व दिया जाता है, वही नारी यूं घूमती (केट्वाक करती ) नजर आतीं।

जब केट्वाक किया जा रहा था तो ये समझ नहीं आ रहा था की लोगों के चहरे पर मुस्कान किस बात की है???

जबकि आतंक का विरोध किया जा रहा हो...
खेर शायद मेरी बुद्धि इतनी योग्य नही की इस बात को समझ सके
लेकिन आपको समझ आ जाए तो कमेन्ट जरूर कीजियेगा........

बुधवार, जनवरी 28, 2009

बस यूँ ही.......

मैं सोच भी नही सकता था कि एक इतना बड़ा पत्रकार ये बात कहेगा.......
उसने कहा था कि जो भी लिखो , उसे सोच समझ के लिखना। क्योंकि जहाँ तुम रह रहे हो (मध्य प्रदेश), वहां बीजेपी कि सरकार है और केन्द्र में कांग्रेस की।
वो पत्रकारिता को छोड़कर महज एक अध्यापक बनकर क्यों रह गया, ये तो मैं नहीं बताया लेकिन इतना पता लगा की किसी अखबार में थे। १९ जनवरी को वो व्यक्ति मुझे दिल्ली के सफर में मिला। "तुम अपनी कितनी भी कोशिश कर लो कोई फायदा नहीं। प्रदेश में कुपोषण बना रहेगा, महिलाओं की स्थिति बदतर ही रहेगी और आदिवासियों की स्थिति सुधर गई तो सरकार को उनके विकास के लिए मिलने वाला अनुदान कम हो जाएगा........गरीब अगर गरीब न रहा तो किसके विकास के नाम पर वोट मागें जायेंगे....... "।
पत्रकार तो वही लिखता है जो समाज में साफ़ दिखाई दे रहा है, जो सच है। मैंने नाराजगी जतायी, " 'हम' भी चुप रहे तो उन तक रोटी कैसे पहुँचेगी जो भूख से आवाज निकालने में भी डरते हैं?"
"बच्चू जिस दिन उन्हें रोटी मिल गई, तो तुम्हारे हाथ से रोटी जायेगी, देश में रोटी तो सीमत है न। "
ये तो कोई तुक नही हुई, की अगर एक पत्रकार किन्हीं गरीब मजदूरों की आवाज उठाकर सरकार के सामने लाये, तो उसकी नौकरी का ही पत्ता इसलिए साफ़ कर दिया जाए की उसने सरकारी महकमे की पोल खोल दी।
"जमाने तमाने की बातें भूल जा और एज ऐ प्रोफेशनल काम कर , नहीं तो कोई संपादक तुझे नही रखेगा, क्योंकि अगर संपादक ने तुझे छूट दी तो मालिक सम्पादक की छुट्टी कर देगा। "
मैं सुनता रहा, थोडी शान्ति होने पर वे फिर बोले ,"आज पत्रकारिता का उद्देश्य , स्वरुप , प्रतिक्रिया सब में परिवर्तन आया है। एक वक्त था की मालिक सम्पादक के कार्य में दखल नही देते थे लेकिन आज....."
मुझे लगा शायद उस व्यक्ति के मन में कुछ वेदना है इसलिए शांत रहा।
"....जब आरूषि हत्याकाण्ड हुआ तो रोज उसका कवरेज़ छपा क्योंकि उसकी निर्शंश हत्या हो गई थी..... लेकिन जब मैंने अपनी चचेरी बहन की हत्या की ख़बर दुबारा प्रकाशित करने की कोशिश की तो वे (मालिक) नाराज हो गए..... उसकी तो बलात्कार के बाद हत्या की गई थी। मेरी चचेरी बहन थी तो वे दूसरी बार ख़बर देने में नाराज हो गए और आरूषि ? आरूषि तो उनकी चचेरी, ममेरी केसी भी बहन नही थी तो उसका क्यों इतना कवरेज़ किया ? क्या मेरी बहन की हत्या हत्या नही थी ? मैं समाचार संपादक होकर भी अपनी बहन को न्याय नही दिला पाया तो तू उन गरीबों की क्या आवाज उठा पायेगा..... हा हा" रुंधी हुए आवाज के साथ गहरी साँस ली ।
उसने मुझसे ज्यादा पत्रकारिता जीवन देखा है, फिर भी मैं केसे मान लूँ की पत्रकारिता में सिर्फ़ नौकरी करना रह गया ? मैंने अपनी बात रखी ,"आप मालिक की हर बात माने, जो वे कहें, आदेश दें वो करो। २० खबरें उन्हें उनके मन की दो और उनमें एक ख़बर वो दो जिसके लिए आप पत्रकारिता में आए हो। इसमे कौन सी बड़ी बात है। "
एक बात तो है कि पत्रकार कितना ही बड़ा क्यों न हो , वो अब एक शतरंज का प्यादा बनकर रह गया है। लेकिन हम ये कैसे भूल जाते हैं कि प्यादा भी मारक क्षमता रखता है। "
"पत्रकार बनना चाहते हो ?"
"जी।"
"तुम ब्लॉग लिखते हो?"
"हाँ, क्यों?"
"तो भडास जरा संभलकर निकालना। सोच समझ के लिखना....." मैं उसकी बात कुछ समझ नहीं पाया।
"ये तो स्वतंत्र अभिव्यक्ति का सबसे बड़ा मंच है और आप कह रहे हैं कि सोच समझ के लिखना"
"ये बात तुम्हारे तब समझ आएगी, जब तुम्हे अप्रत्यक्ष रूप से चेतावनी दी जायेगी कि ऐसा मत लिखो वरना तुम्हारे भविष्य को नुक्सान पहुच सकता है।"
मैंने अचानक सवाल दागा,"आपने पत्रकारिता क्यों छोड़ दी ?"
वे मुस्कुराये और बोले ,"मैंने पत्रकारिता छोड़ी नही बल्कि मुझे निकाल दिया गया। किसी के लिए इन्साफ जो माग रहा था। जब मैंने अपने ब्लॉग में अपनी बहन कि मौत कि ख़बरों कि हर अपडेट देने शुरु कर दिए तो उन पर टिप्पणी भी आने लागी- कविता के ब्लॉग पर इस ख़बर का क्या काम, क्या बात है अखबार में जगह नही मिल रही है क्या छपने के लिए ? ....... तुम्हारा अखबार क्या इस लायक नही कि तुम इसमें ख़बर दो इतनी बड़ी ख़बर होकर भी नही छाप रही अखबार है या रद्दी ?...... । मैंने तो सिर्फ़ अपने ब्लॉग पर उस हादसे को ही रखा था। अब ऐसी टिप्पणीयाँ आई तो मुझे इसका इनाम काफी ख़ास मिला........"
मैं समझ गया था कि अखबार के मालिक ने अपने अखबार के बारे में आयीं टिप्पणीयों के कारण ही उन्हें निकाल दिया।
"मेरी बहन को इन्साफ नही मिला। सब गवाह बिक गए....... किसी ने डर कि वजह से गवाही नही दी। पुलिस ने पैसा खा लिया.......... मैं.....इस समाज ने ......... जो समाज सुधारना ही नही चाहता तो हम ही क्यों फालतू कि मेहनत करें ? और कुछ करें तो मालिक..... अपनों से दूर, बच्चों को वक्त नहीं दे पाना..... । "
वो आदमी मुझे कुछ अजीब लगा। कभी लगा कि ये कमजोर दिल का पेसीमिस्ट आदमी है , तो कभी लगा कि शायद उसकी आंखों में कई दिग्गज पत्रकारों के फलसफे हैं।
फिर भी मैंने पूछा ,"पत्रकारिता में आने से पहले आपने ये बात क्यों नहीं सोची ?"
"पत्रकारिता में जब आया तो ये नही सोचा था कि मालिकों का, राजनीति का इतना दखल होगा कि तुम जो-जो करना चाहोगे उन सब पर नकेल लगा दी जायेगी या टांग अडाई जायेगी। "
"तो अब छात्र पत्रकारों को भी यही सीख देते हैं कि समाज मत सुधारना? " मैंने अटपटे मन से पूछा।
"नही! में उन्हें साफ़ समझाता हूँ कि वे प्रोफेशनल बनें, बस। "
इतने में उनके मोबाइल फ़ोन कि घंटी बज उठी। कोई किसान उनसे बात कर रहा था। उनकी बातों से ज्यादा साफ़ तो नही हो पाया लेकिन पता लगा कि किसी ठाकुर कि गाये किसी किसान के खेत में घुसकर उसके खेत को नुक्सान पंहुचा आई। जब किसान ने इसकी शिकायत ठाकुर से कि तो उल्टे ठाकुर ने उसे मारकर भगा दिया। वो इस व्यक्ति के माध्यम से ख़बर छपवाना चाह रहा था ताकि ऐसे ज्यादती से अगली बार बचा जा सके और पुलिस के भी कान खुले। हालांकि उस व्यक्ति ने किसी दैनिक अखबार में उस ख़बर को लगाने कि लिए भी कह दिया।
मैं वहाँ से उठा और अपनी सीट पर बैठा। मैं सोच में पड़ गया ........ जो व्यक्ति थोडी देर पहले अपनी व्यथा सुनाते हुए कह रहा था कि कौन समाज सुधारे, वही व्यक्ति तुंरत उस किसान कि सहायता के लिए ३-४ फ़ोन इसलिए खनखना देता है क्योंकि एक गरीब किसान पर अत्याचार हुआ।
पहले तो लगा कि बेचारा किस्मत का मारा है, नजर में एक सिंपल छवि बनी , लेकिन जब वो फ़ोन वाली घटना घटी, उसके बाद उसे समझने में मैं असमर्थ हो गया।
ये बात सच है कि हर पत्रकार चाहता है कि सुधार हो फिर भी कहीं न कहीं कुछ उपरी दबंगता होती है कि वो चाह कर भी कुछ नही कर पता।
दिल्ली स्टेशन पर उनसे पूछने पर पता लगा कि किसी मीडिया संस्थान में इंटरव्यू देने आए हैं.