सीखने के लिए मैंने हर जख्म सींचे हैं, पढ़ना है दर्द मेरा तो सब लिंक नीचे हैं

गुरुवार, दिसंबर 24, 2015

क्या फ़िल्मी गाने बलात्कार को बढ़ावा देते हैं?, एक अध्ययन

एक और हमारा देश विश्व पटल पर अपना लोहा मनवा रहा है तो दूसरी तरफ हम अन्दर ही अन्दर खोखले होते जा रहे हैं. 12 दिसम्बर 2012 की रात सामूहिक बलात्कार हुआ. उसमें एक नाबालिग भी था जिसे 3 साल की सजा मिली, 20 दिसम्बर 2015 को हाल ही में उसे रिहा कर दिया गया. समाज ने
खैर अब विषयवस्तु पर आते हैं. क्या कभी सोच है हमने कि देश में नाबालिग इस तरह के कृत्य करने पर क्यों उतारू हो रहे हैं?
अगर ये कहा जाए कि देश में फ़िल्मी गाने बलात्कार को बढ़ावा दे रहे हैं तो गलत नहीं होगा. देश में बढ़ रही अश्लीलता और द्विअर्थी संवादों ने बहुत अधिक प्रभावित किया है. फिल्म, नाटक, ऑफिस, मॉल, दुकान, पार्क इत्यादि जगहों पर आपको द्विअर्थी बाते करते यार दोस्त मिल ही जायेंगे.

 हिंदी फिल्में/ अन्य भाषाई गाने कितने जिम्मेदार

आधुनिकीकरण की परिभाषा का हिंदी फिल्मों ने जो शोषण किया है उससे संस्कृति तो गर्त में चली ही गई, अब साथ में संवेदनाएं भी मरती जा रही हैं.
बच्चे कैसे बिगड़ते हैं, कुछ उदहारण देखिये-
"मैन्यु लगा सोलवां साल"- इस गाने को सुनकर नाबालिग या बालिग ये सोचेगे कि आखिर लड़कियों के सोल्वे साल में ऐसा क्या होता है, जिससे लोग उसके पीछे पड़ जाते हैं, जब उन्हें इसका जवाब नहीं मिलेगा तो वो असली में किसी 16 साल की लड़की के पीछे लग जायेंगे, ये पता लगाने के लिए कि 16 साल कि लड़की होने पर उसके पीछे लोग क्यों पड़ जाते हैं.
बस, यहीं से छेड़खानी की शुरुआत हो जाती है. लड़कियों के पीछे पड़ना अच्छा लगने लगता है और धीरे धीर भटके हुए बच्चे क्राइम की गर्त में चले जाते हैं.

"चढ़ती जवानी" - जब नाबालिग इस गाने को सुनेगे तो पता लगाने की कोशिश करेंगे की आखिर कौन कौन सी सीढ़ी हैं जिनसे जवानी चढ़ती है?, जवानी चढ़ती कैसे है? जवानी चढ़ने से होता क्या है? इन सवालों के जवाब उन्हें पढाई से दूर करने लगते हैं. घर से दूर इन सवालों के जवाब ढूँढने के चक्कर में अप्रत्यक्ष रूप से वे कोई न कोई गलत काम शुरू कर देते हैं. इसमें लड़के एवं लड़कियां दोनों शामिल हैं.

"... मेरी रातों का नशा...सोया हुआ जिस्म जगा" - दिसम्बर 2015 में एक फिल्म रिलीज़ हुए जिसमें ये गाना दिखाया गया. इस गाने को सुन-देख कर जानने की कोशिश जरूर करेंगे कि एक जवान महिला के पुरुष से चिपकने पर ही जिस्म क्यों जाग जाता है. और सुबह जब पूरी दुनिया जाग ही जाती है तो रात को कौन सा जिस्म जगाने की बात कही जा रही है. इस गाने से सिर्फ नाबालिग लड़के ही नहीं कुप्रभावित होंगे अपितु ये लड़कियों को भी भटकाने के लिए काफी है. नाबालिग लड़कियां स्वयं सोचेंगी की आखिर सुबह जागने के बावजूद ऐसा कौन सा हिस्सा है जो सिर्फ पुरुष से चिपकाने पर ही जाग सकता है. ऐसे में छोटी उम्र में वे वो सब करने लग जाती है जो उनके भविष्य और शरीर के लिए नुकसान दायक होता है.

"कान में दम है तो बंद कर वालो"- एक गाने में जोर दिया गया है कि पार्टी होती रहेगी. और कान में दम हो तो बंद करवा लो. "कान" शब्द का ही क्यों प्रयोग किया गया. जबकि दम की ही बात करनी थी तो "हाथों में दम" या फिर "पैरों में दम" की बार करते. कान तो शरीर का एक छोटा सा हिस्सा होता है. इसमें किस तरह ताकत हो सकती है. विश्व में खेले जाने वाले तमाम खेल या होने वाले युद्ध में हाथ पैरों की ताकत दिखाई जाती है. सब जानते हैं कि कान में दम का कोई सार्थक अर्थ नहीं है. ऐसे में इस गाने में "कान" शब्द का इस्तेमाल करके कौन सा अर्थ निकालने की कोशिश की गई ये सभी व्यस्क जानते हैं. फिर भी हमारा समाज और खासकर युवा इस गाने को शादी, पार्टी, मोबाइल फ़ोन में खूब सुनते हैं.

"मैं हूँ बलात्कारी" - इस गाने पर तो पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने समबधित व्यक्ति को कोर्ट में बुलाया था. इस गाने से टीनएजर्स क्या सीखेंगे. खुद ही मूल्यांकन कर लीजिये

भोजपुरी फिल्म/गाने

भोजपुरी गानों ने तो अश्लीलता की हदें ही पार कर दी. इनके पोस्टर भी कम अश्लील नहीं होते. आखिर हम कौन सा समाज तैयार करना चाह रहे हैं. देखिये कुछ उदहारण -
"तेरी गर्मी दूर कर दूंगा", "अइसन दिहलू पप्पी", "हाफ पेंट वाली", "कॉलेज के पीछे, "माल कचा कचवा बनिहें गोलगप्पा", "मार दी कवनो बम", "मन करेला चुसे के होठवा", "देखे वाला चीज बा औढ़निया में", "ए रसीली हो", "मजा लेले माल पटाके", "इतना अप डाउन कईलू चएन फिरी क दिहलू", "लगा दी हमरा लहंगा में मीटर", "भउजी के चोली अलमारी भईल", "फराक तोहर टाईट बा", "मोबाइल दूध पियता", "बजार तोहार गरम बा", "हेड लाईट देखावेली", "सामियाना छेद छेद हो जाई", "बाबू साहेब लहंगा उठाई", "छेदवा छोट बा", "जींस ढीला हो जाई", "डाल तनी लूर से ना", "आपन ओढ़नी बिछाव गमछा छुट गईल बा घरे".... और भी कई गानों के बोल हैं.
इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि द्विअर्थों का प्रभाव बढ़ रहा है. यहाँ एक बात और बतानी जरूरी है, चूंकि द्विअर्थी संवाद में हंसी आने पर नाबालिग इस और खींचे चले जाते हैं, ऐसे में जो भाषा पुस्तकों में लिखी होती है वो छात्र छात्राओं को रोचक नहीं लगती. नतीजा ये होता है नाबालिग पुस्तकों से दूर हो जाते हैं. पढ़ने में मन नहीं लगता, फिर परीक्षा में पास होने के लिए नक़ल करते हैं, और अगर फ़ैल हो गये तो ख़ुदकुशी जैसे गलत कदम उठाने लगते हैं. ये प्रक्रिया देश के भविष्य को खोखला करती जाती है.

सोशल मीडिया और नाबालिग 

 नए जमाने में नाबालिगों का मनोरंजन करने का ढंग काफी बदला है. इससे अचरज नहीं होना चाहिए कि बच्चे अब मैदान में खेलने के बजाए घर में मोबाइल फ़ोन या इन्टरनेट पर आँखें गढ़ाए रहते हैं. वाट्स एप, फेसबुक, यू ट्यूब पर अकाउंट बनाते हैं और इसकी लत पड़ जाती है. स्कूलों में मोबाइल फ़ोन ले जाना, क्लास बंक करना जैसे गलत काम शुरू कर देते हैं. इसके अलावा बॉय फ्रेंड/गर्ल फ्रेंड बनने या बनाने लगते हैं. और ऐसे बच्चे समुचित विकास और समुचित शिक्षा को खो देते हैं. यही कारण है कि यौन शिक्षा देना आज के दौर में कितना जरूरी हो गया है.

दोस्तों 21वीं सदी का मतलब लोगों ने ये नहीं लगाया था कि लोगों के तन से कपड़े गायब हो जायेंगे. हिंदी फिल्मों के पोस्टर, उनके गाने, और संवाद ने लोगों को अश्लील मनोरंजन परोसा है. फिल्मों ने लोगों को संवाद का नया आयाम दिया जिसमें अश्लीलता आने लगी. भले ही शुरू में ये अच्छा लगता हो, पर इसने लोगों के दिमाग में गन्दगी भर दी है. वर्तमान में हो रही छेड़-छाड़ और बलात्कार, यौन शोषण जैसे अपराध इसी का नतीजा है. बड़ों को समझाने के समय तो गया, पर नाबालिगों को बर्बाद होने से बचा सकते हैं.

जो पेड़ तिरछे हो गये उन्हें तो सीधा नहीं किया जा सकता, उन्हें सिर्फ काटा जा सकता है, परन्तु जो पौधे तिरछे हो रहे हैं उन्हें तो सहारा देकर सीधा किया जा सकता है. क्यूं हम उसके तिरछे होकर पेड़ बनने का इंतज़ार करें और तब काट दें. पेड़ काटना कोई समाधान नहीं है. पेड़ काट काट कर तो बगीचा ही ख़तम हो जाएगा. क्यूं न ऐसा रास्ता निकला जाए कि बगीचा भी हरा भरा हो और हर पेड़ सीधा बढ़ता रहे.
जरा कल्पना तो कीजिए.


सन्दर्भ (द्वितीयक आकड़े)
1. http://www.bhojpurixp.com/bhojpuri-me-aslilta-ka-part-3/
2. http://emalwa.com/entertainment/%E0%A4%AC%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80-%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%87-%E0%A4%95%E0%A5%8B-%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A4%B0-%E0%A4%B9%E0%A4%A8
3. इंटरनेट. 

शनिवार, सितंबर 19, 2015

मीडिया आखिर करे तो करे क्या ?

डेंगू का कहर इन दिनों जोरों पर है. हर जगह लोगों में एक दर पैदा हो गया है. स्थिति ये है, कि सरकार को स्वयं कहना पड़ रहा है कि डरने की जरूरत नहीं, डेंगू का इलाज है. अगर डेंगू कि खबरों कि बात करें तो मीडिया इन दिनों भारी दवाब से गुजर रहा है. बात ये नहीं कि मीडिया डेंगू के मरीजों की बढ़ती संख्या को दिखा रहा है या अस्पतालों की खस्ता हालत को बयाँ कर रहा है और डेंगू के डर को फैला रहा है या उसकी रोकथाम में अपने भूमिका दर्ज करा रहा है. बात ये भी है, कि आखिर जो भी खबरें मीडिया में प्रकाशित या प्रसारित की जा रही हैं, उनका असर लोगों पर क्या पड़ रहा है?

एक ओर, एक पाठक, एक ही अख़बार पढ़कर डेंगू की भयावय स्थिति को जानता है और वहीं दूसरी ओर, उसी अखबार में सरकारी विज्ञापन, ये सन्देश देता दिखाई देता है कि डेंगू से डरने की जरूरत नहीं, दहशत में आने की जरूरत नहीं है. अब ऐसे में पाठक समझ ही नहीं पाता कि आखिर अखबार कहना या बताना क्या चाहता है? कई बार पाठक द्वारा ये तय करना मुश्किल हो जाता है कि आखिर भारत में प्रकशित हो रहे अखबारों का मूल उद्देश्य क्या है? क्या उनका मूल उद्देश्य सूचनाओं को प्रेषित करना है या विज्ञापन प्रकाशन के चलते धन कमाना?

पिछले कुछ दिनों से अखबारों में डेंगू की स्थिति पर अच्छा कवरेज हुआ है. हर दिन डेंगू के बढ़ते मरीजों के अलावा, अस्पतालों के हाल तक बयाँ किये जा रहे हैं. आलम ये है कि लोग डेंगू से जुडी ख़बरों को पढ़कर डरने लगे हैं. क्यूंकि आये दिन डेंगू के बुखार से लोग मर रहे हैं. सरकारी चिकित्सालयों में मरीजों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ने से सबको सही तरह से इलाज़ नहीं मिल पा रहा है. खबरें ये भी आयीं हैं कि छोटे-छोटे बच्चे डेंगू कि चपेट में आये, बुखार हुआ और डेंगू का पता लगते ही 48 घंटों में ही उनकी मौत हो गयी. इस तरह की खबरों को पढ़कर शायद ही कोई पाठक होगा जो सहमा नहीं होगा या कहें, दहशत में नहीं आया होगा. एक तो सरकार डेंगू के मरीजों को सही समय पर वांछित उपचार और आराम नहीं दे पा रही है, क्यूंकि डेंगू के मरीजों की संख्या इतनी ज्यादा है कि डेंगू के सकारात्मक या नकारात्मक होने की रिपोर्ट सही समय पर नहीं मिल पा रही है, और जब तक रिपोर्ट आती है तब तक मरीज की हालत और बिगड़ जाती है. हाल ही में खबर मिली कि डेंगू के टेस्ट की फीस भी बारह सौ से पंद्रह सौ तक पहुँच गई है. निजी अस्पतालों की तो बल्ले बल्ले हो रही है आजकल. 

स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है, मरीजों को सरकारी अस्पतालों में बिस्तर तक नसीब नहीं हो पा रहा है, किसी का उपचार फर्श पर लिटाकर किया जा रहा है तो किसी को जमीन पर लेटने के लिए जगह तक नसीब नहीं. हर पाठक इन परिस्थितियों से वाकिफ हो रहा है. अब बात आती है, कि इस तरह की ख़बरों का पाठकों या कहें जनता पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, तो बड़े आसानी से इसका जवाब मिल जाएगा कि लोग अब दहशत में आने लगे हैं. डेंगू जिस कदर लोगों को उनके परिजनों से हमेशा हमेशा के लिए दूर कर रहा है, इस तरह की खबरों से हर कोई हैरान-परेशान हो चुका है. अब पाठक अखबार में डेंगू की स्थिति जानने के लिए अख़बार नहीं पढ़ रहा, अब पाठक सिर्फ रोकथाम और सार्थक उपचार को खोज रहा है.

अभी तो हमने सिर्फ एक पक्ष की बात की है. दूसरा पक्ष भी हमें देखना होगा. मीडिया में चाहे खबरों का कुछ भी असर हुआ हो लेकिन, विज्ञापनों के जरिये लोगों तक ऐसी जानकारी पहुंचाई जा रही है, जिससे वे सहमे नहीं और विवेक से काम लें. सरकार द्वारा जारी किये जा रहे विज्ञापनों में डेंगू सम्बन्धी रोकथाम और उपचार के बारे में बताया गया है. अगर एक और खबरों से पाठक भय में भी आया है तो विज्ञापन से मन थोडा बहुत तो हल्का हुआ है.. इसका एक लाभ ये हुआ कि लोगों तक पहुंचकर विज्ञापन ने उन्हें सांत्वना दी है और दूसरी तरफ अखबार को भी विज्ञापन प्रकाशित करने से आर्थिक लाभ पहुंचा. सरकार भी पुरजोर प्रयास कर रही है, पर ये प्रयास डेंगू के कहर के आगे कमजोर नजर आ रहे हैं. सरकार के नुमाइंदों को अब सड़क पर आना ही पड़ेगा. यहाँ आला अधिकारियों को उपचार करने के लिए नहीं कहा जा रहा. यहाँ उनके द्वारा डेंगू को और अधिक न बढ़ने देने और उसकी रोकथाम में अहम् भूमिका निभाने से हैं. जबरन गन्दगी फैलाने वालों पर सख्त कार्यवाही को शुरू करना होगा. जागरूक अभियानों को नये कलेवर के साथ प्रस्तुत करना होगा. "पानी जमा न होने दें" जैसे संदेशों के विज्ञापनों का दौर अब लगभग खत्म हो चुका है. अब वक़्त है ये बताने का कि जब आप आस्तीन में सांप नहीं पालते, ये जानते हुए कि इसके काटने से आदमी की मौत अड़तालीस घंटों में हो सकती है, उसी प्रकार आप अपने घर में रुके हुए पानी में मच्छर कैसे पाल सकते हो, जिसके काटने से भी आदमी की मौत अड़तालीस घंटों में हो सकती है?

शनिवार, सितंबर 12, 2015

ब्रज भाषा पर भ्रम

12 सितम्बर 2015 
हाल ही में हिंदी के सम्बन्ध में एक पुरानी पुस्तक पढने का मौका मिला.
इस पुस्तक में उत्तर प्रदेश के पश्चिमी हिस्से की एक भाषा को लेकर एक अजीब बात लिखी है.

लेखक के अनुसार, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खड़ीबोली से वर्तमान हिंदी और उर्दू कि उत्पत्ति हुई. और दूसरी बोली ब्रज भाषा, पूर्वी हिंदी की बोली अवधी के साथ कुछ काल पूर्व तक साहित्य के क्षेत्र में वर्तमान खड़ीबोली हिंदी का स्थान लिए हुए थी. आगे लिखा उन्होंने, "इन दो बोलियों के अतिरिक्त पश्चिमी हिंदी में और भी कई बोलियाँ सम्मिलित हैं, किन्तु साहित्य की दृष्टि से ये विशेष ध्यान देने योग्य नहीं हैं....."

क्यों साहब, क्यों ध्यान देने योग्य नहीं है???
 ब्रज भाषा ने हिंदी साहित्य को बहुत कुछ दिया है. इसे कोई भी अनदेखा नहीं कर सकता. 
मैं बड़े सम्मान के साथ विरोध करता हूँ लेख का और ये बड़े आदर के साथ बता देना चाहता हूँ, कि वर्तमान में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में केवल खड़ी बोली या अवधी ही नहीं, बल्कि ब्रज ने भी अपनी जड़ें जमाई है. आगरा, मथुरा, फर्रुक्खाबाद, एटा, इटावा, औरैया, कन्नौज, मैनपुरी, फिरोजाबाद और हाथरस जैसे जिलों के आस पास के क्षेत्र में बड़े स्तर पर ब्रज बोली जाती है.

हिंदी विद्वानों ने ब्रज भाषा को सबसे अधिक कोमल भाषा मानी है.
सूरदास, नरोत्तमदास ने इस भाषा में अपनी रचनाओं को लोगों के सामने रखा.
अब बुंदेलखंड में भी बुन्देलखंडी भाषा का बोलबाला बढ़ रहा है, इस क्षेत्र को हम बिल्कुल नकार नहीं सकते. अब तो बुंदेलखंड अपनी अलग पहचान बना चुका है.

इस पुस्तक में बहुत सी जानकारी है जो अध्ययनकर्ता के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती है, परन्तु मुझे इसमें कुछ कमी लगी तो मैंने इस पुस्तक का सन्दर्भ लेकर इसके बारे में अपनी राय दी. 
मैंने आलोचना नहीं की है.
मैंने अपना विचार प्रस्तुत किया है. हो सकता है, लेखक का मंतव्य वो न हो जैसा मैं सोच रहा हूँ. हो सकता हो, लेखन कुछ और अपनी बात कहना चाहता हो... पर मुझे लगा तो मैंने अपनी राय लिखी.

बुधवार, अगस्त 26, 2015

मीडिया और मिस्टेक

हाल ही में एक ऐसा गलती एक अखबार ने विज्ञापन को प्रकाशित कर के कर दी है जो शायद भारतीय शक्ति को कमजोर करने में एक उत्प्रेरक का काम करे....
हुआ यूं, कि "---------" दैनिक समाचार पत्र  के नई दिल्ली संस्करण में 20 अगस्त 2015 को 15वें पृष्ठ एक विज्ञापन प्रकाशित किया. यह विज्ञापन भारतीय सशस्त्र बल द्वारा जारी किया गया था. चूंकि भा.स.ब. भारत-पाक युद्ध 1965 कि स्वर्ण जयंती मनाने जा रहा है. कार्यक्रम 28 अगस्त से शुरू होकर २२ सितम्बर तक चलेगा. इसमें आम जनता को निःशुल्क प्रवेश दिया जा रहा है. आयोजित होने वाले कार्यक्रम में देश के लिए शहीद हो गये वीरों को और अन्य बहादुर सैनिकों को याद किया जाएगा. इसलिए इस सम्बन्ध में  इस विज्ञापन को आम जन और उनके आस पास रह रहे सैनिकों तक जानकारी पहुंचाने के लिए प्रकाशित किया गया. 
विज्ञापन सरल भाषा और सटीक शब्दों के साथ युद्ध की गाथा को बयाँ करता है. अगर आप पढ़े तो पता चलेगा कि किन मुश्किलों में हमारे देश के वीरों ने युद्ध में विजय प्राप्त की. कितना नुक्सान हुआ.... आदि.
बवाल क्या हुआ.
वो विज्ञापन जिसमें गलती प्रकाशित हुई।
मैं उस समय बहुत आश्चर्य चकित रह गया जब इस विज्ञापन में मात्र एक अक्षर "ट" ने अर्थ का अनर्थ कर दिया.
हुआ ये कि भा.स.ब. द्वारा जारी इस विज्ञापन में वीरों की और युद्ध कि ऐतिहासिक घटना बयाँ की. पर "इस" दैनिक समाचार पत्र ने लेख की 5वीं लाइन में गलती कर दी.
".....पाकिस्तान द्वारा किये गये जबर्दस्त जवाबी हमले का डरकर मुकाबला किया....."
यहाँ "डटकर" की जगह "डरकर" छाप दिया और तो और प्रकाशित भी कर दिया. 
पाकिस्तान को प्रोत्साहन मिला
अगर पाकिस्तान में हिन्दुस्तान समाचार पत्र का अगर ई-पेपर पढ़ा जा रहा होगा तो निश्चित ही उन्हें इस बात से और हौसला मिलेगा कि देखो हम चाहे हार गये हों फिर भी हमारे हमले से भारत के सैनिक डर गये होंगे।.. तभी ऐसा लिख रहे हैं... कि डर के मुकाबला किया.
मान लीजिये पाकिस्तान का मीडिया इस पर खबर प्रकाशित कर दे और इस विज्ञापन कि प्रति को वह दिखाए तो भारत कि छवि पर असर पड़े न पड़े परन्तु, इस संभावना से हम मुकर नहीं सकते कि पाकिस्तान में रह रहे भारत विरोधी तत्वों को इससे भारत में और आतंक फैलाने का मौका मिल जाएगा.
विज्ञापनो के किनारे दबाकर पेश किया गया खंडन
हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि प्रोत्साहन व्यक्ति के अन्दर "आस" अथवा एक "जूनून" पैदा कर देता है. प्रोत्साहन सिद्धांत पर स्किनर ने खासा काम किया है. बी.एड., - एम.एड. छात्रों को ज्ञानार्जन सम्बन्धी अध्ययन में इनके सिद्धांत को पढ़ाया जाता है.  व्यक्तिगत रूप से कहूं तो ये कोई बड़ी गलती नहीं है. हाँ पर में इस बात से सहमत नहीं हो सकता कि इसका असर नहीं होगा. इसका असर हो सकता है. 10वीं पास छात्र सेना में छोटे मोटे पदों पर लग जाते हैं और देश की सेवा करने में जुट जाते हैं और अपनी पढ़ाई रोक देते हैं. ऐसे में उनकी सोच का विकास उतना नहीं हो पता जितना अन्य छात्रों द्वारा शिक्षा में लगातार अध्ययनरत रहने से हो जाता है. अब ऐसे में ऐसे सैनिक जो कम पढ़े लिखे थे एवं/अथवा  आज रिटायर हो चुके हैं... अगर वे इस विज्ञापन को पढ़ते हैं, तो जरा अपने दिल से पूछिए उन पर क्या बीती होगी????  एक बार तो उनका मन क्रूद्ध तो हुआ होगा. मन में एक टीस तो उठी होगी कि हमने "डटकर" सामना किया और इस देश का अख़बार कह रहा है कि हमने "डरकर" सामना किया. 
शब्द का खंडन
प्रकाशित अखबार में खंडन (नीचे की तरफ)
कमाल कि बात ये है कि समाचार पत्र ने भी बड़े इतराकर खेद प्रकट किया. वो भी अगले दिन नहीं, बल्कि दूसरे दिन (22 अगस्त 2015)
इतना ही नहीं, बल्कि बड़े बड़े विज्ञापनों के किनारे खंडन फंसा दिया. ऐसा इसलिए कर दिया, ताकि लोगों का ध्यान उस गलती को पढ़ने में न जाकर बड़े बड़े चिपकाए गये विज्ञापनों कि तरफ जाए... आप संलग्न फोटो में देख सकते हैं.
आई.ए.एस. और पी.सी.एस. की तरह मीडिया में हो "प्रेस अधिकारियों" की भर्ती.
अब समय आ गया है, अब आई.ए.एस. और पी.सी.एस. की तरह पत्रकारों को भी लोग सेवा आयोग द्वारा भरा जाना चाहिए. तभी मीडिया को मजबूत बनाया जा सकता है, वरना आज़ादी के बाद से जो स्थिति मीडिया की हुई है, जहाँ मीडिया हाउस का मालिक अपने तरह से सूचना को प्रकाशित करता है, और पैसा कमाता है, वही स्थिति बनी रहेगी.
आप क्या सोच रहे हैं, ये गलती अनजाने में हुई है? असल में ये गलती अनजाने में नहीं, बल्कि पत्रकारों के साथ किये जाने वाले शोषण का नतीजा है, उन्हें कोल्हू के बैल कि तरह रखा जाता है, जैसे कोल्हू के बैल के मूंह से कोल्हू को खींच-खींच कर फैना टपकता रहता है और जब थक कर रुकने की कोशिश करता है तो मालिक उसे "पल्हेंटी" (डंडे में चमड़े के लम्बे फीते से बंधकर जानवरों को हाकने के लिए बना एक औज़ार) से मारकर फिर चलने को विवश कर देता है, वैसी ही स्थिति पत्रकारों की हो गई है. ज्यादा तनख्वा मिलती नहीं, हमेशा नौकरी से निकाले जाने का डर, निर्धारित समय से अधिक काम करना, कोई इच्छित छुट्टी नहीं, समय पर तनख्वा नहीं देना, रात में काम करवाना..... और न जाने क्या क्या.... 
अब स्वयं ही सोचिये गलती न हो तो क्या हो... पर मैं उक्त गलती को इस दवाब में हो सकने वाली गलतियों से नहीं जोड़ सकता.... क्यूंकि ये गलती हामारी अस्मिता से जुड़ी है. क्यूंकि ये गलती, गलती नहीं, बल्कि देश के हौसले को कमजोर करने वाली कड़ी है. अगर मीडिया देश को एक मजबूत करने की क्षमता नहीं रखता, तो उस माध्यम को स्वयं ही अयोग्य घोषित कर बंद कर देना चाहिए. 
सुझाव
दिल से कहूं तो समाचार पत्र द्वारा प्रकाशित की गई गलती के खंडन के प्रकाशन से सहमत नहीं हूँ.
मेरा सुझाव है, जो गलती की है तो उसे सहर्ष स्वीकार करे. साथ ही खंडन को कारणों सहित प्रकाशित करे और यह भी वादा करे कि आगे से ऐसी गलती न हो इसका विशेष ध्यान रखा जाएगा... इसके अलावा खंडन विशेष आकर्षण के साथ प्रकाशित किया जाए ताकि सभी को पता चल सके कि गलती को स्वीकार किया जा रहा है.
...और उसे प्रथम पृष्ठ पर ऊपर की तरफ- बिना विज्ञापन के किनारे या बीच में, बिना किसी बड़ी खबर या सूचना के किनारे या बीच में,बिना किसी फोटो के किनारे या बीच में, या किसी भी ऑफर या लाभ की जानकारी के किनारे या बीच में प्रकाशित न करे. उसके लिए एक विशेष स्थान बनाए. 
ऐसा करना कोई बड़ी बात नहीं, बल्कि इससे तो समाचार पत्र की प्रशंसा / तारीफ़ होगी. 
वरना, उक्त प्रकाशित खंडन तो ऐसा लग रहा है, जैसे एक आदमी ने दूसरे आदमी के "..चटाक... " से तमाचा मार दिया, फिर अकड़ कर माफ़ी माफ़ ली... "अबे ओए! माफ़ कर दे... समझा क्या...."
और अंत में 
-जिस प्रकार पाप धोने के लिए हम हर किसी नदी में नहीं नहाते बल्कि डुबकी लगाने के लिए गंगा नदी में जाते हैं, बिलकुल उसी प्रकार समाचार पत्र को भी हृदय से पत्र में जगह देकर गलती को मानकर सही जगह देकर माफ़ी मांग लेनी चाहिए.

देश भोले शंकर की तरह बड़ा दयालु है, माफ़ कर देगा.
यही संसार है, यही संचार है.

गुरुवार, जुलाई 16, 2015

विचारों का द्वंद्व: दो चहरों वाला समाज

आज एक ऐसे विषय पर लिखने को विवश हुआ हूँ, जिसने कई बार मेरे मन में विभिन्न तर्कों को जन्म दिया है. तर्कों ने मुझे समाज के दो चेहरे देखने का मौका दिया. असल में हम कई बार एक ही विचार पर किसी समय कुछ होते हैं और किसी और समय पहले से हटकर अर्थात कुछ और. हमारा मन, हमारे समक्ष, हमारे लाभ और व्यक्तिगत उचित-अनुचित के अनुसार विचार प्रस्तुत करता है. मान लीजिये बरसात में छाता की जरूरत है और वह आम दिनों के मुकाबले किसी दूकान पर मंहगा बिकने लगा तो मन में विचार उठेगा कि भाई कितना मंहगा बेचा जा रहा है, इसे तो सस्ता होना चाहिए और जब बरसात का मौसम न हो और उसी दूकान में बहुत सारे छाते बिक रहे हों तो मन में विचार आएगा, "भई इन छातों का क्या काम?" ऐसे में हम इस बात से सहमत हो सकते हैं कि एक विषय पर एक ही व्यक्ति की समय-समय पर विचारधारा अलग-अलग हो सकती है.
खैर, मैं यहाँ कुछ प्रश्नों के उत्तर ढूँढना चाहता हूँ.

1. पहला सवाल - वंश किसका कहलाता है- पुरुष का या महिला का ?
वर्तमान में महिला सशक्तिकरण के लिए हर जगह प्रयास किये जा रहे हैं. जागरूकता लाने के लिए आये दिन विभिन्न घटनाओं और विषयों पर बहस होती रहती है. ऐसा होना भी चाहिए. मैं इसका समर्थन करता हूँ.
महिला को पुरुष के बराबर माना जाता है, मानसिक तौर पर भी और कानूनन भी. मैं इसे भलीभाति समझता और सहर्ष स्वीकारता हूँ. 
आज कल एक बहस जोरों पर है कि शादी के बाद जब बच्चों का जन्म होता है तो वंश पुरुष का क्यों माना जाए, महिला का क्यों नहीं? समाज में चली आ रही परम्परा के अनुसार वंश को पुरुष आगे बढ़ाता है, अर्थात स्त्री पुरुष के वंश को आगे बढ़ाती है. घूमफिर कर वंश पुरुष का होता है. स्त्री का कोई वंश नहीं होता. इस पर भी जबरदस्त बहस चलती है, मीडिया, सेमिनार, कॉलेज, सामाजिक जनमाध्यमों (social media) जैसे फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्स एप आदि पर आये दिन लोग इस सम्बन्ध में जागरूकता लाने सम्बन्धी विचार प्रस्तुत एवं प्रसारित करते ही रहते हैं.
मैं इस बात से पूर्णरूपेण सहमत हूँ कि वंश सिर्फ पुरुष का ही नहीं हो सकता, इस पर नारी का भी उतना ही अधिकार है. और जो सिर्फ वंश पर अधिकार पुरुष का मानते हैं मैं उनका विरोध करता हूँ. 
पर यहाँ सवाल कुछ और है.....

क्या है सवाल? 
जब कोई पुरुष किसी नारी को बहला फुसलाकर उसे गर्भवती बना देता है तो लोग स्त्री से प्रश्न करते हैं- "किसका पाप है?" (ये वाक्य आप भारतीय फिल्मों, मनोरंजक धारावाहिकों, नाटकों, लेखों में सुन और पढ़ सकते हैं.)

अब जरा समझें- "किसका पाप है?" का अर्थ ये हुआ कि पीड़ित स्त्री से पूछा जा रहा है कि- जो बच्चा गर्भ में पल रहा है उसका जिम्मेदार पुरुष कौन है? इस वाक्य से यह बात निकल कर आती है कि जब कोई पुरुष, नारी को बहला-फुसलाकर दुष्कर्म जैसा घटिया, नीच और घिनौना काम करता है तब उसका जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ पुरुष को माना जाता है, नारी को नहीं, क्यूंकि नारी को तो बहलाया और फुसलाया गया... (क़ानून भी ऐसी पीड़ित महिला का पक्ष रखता है. महिलाओं का संरक्षण होना भी चाहिए.) ऐसे में जिम्मेदारी पुरुष की हुई... अर्थात पीड़ित नारी के गर्भ में पल रहे बच्चे का जिम्मेदार पुरुष हुआ.

तर्क- 
जब कोई पुरुष दुष्कर्म जैसा घटिया, नीच कर्म कर नारी को बहला फुसलाकर उसे गर्भवती बना देता है तो उस कृत्य से गर्भ में आये बच्चे का पूरा जिम्मेदार वो पुरुष होता है, तो शादी के बाद पति द्वारा पत्नी के गर्भ में आये बच्चे का पूरा जिम्मेदार पति अर्थात पुरुष क्यों न हो? क्यों न वंश पुरुष का माना जाए?
या फिर, अगर शादी के बाद जन्मे बच्चे पर महिला का बराबर अधिकार हो और वंश पुरुष का होने के साथ महिला का भी वंश माना जाए तो पुरुष द्वारा स्त्री के साथ किये कृत्य में महिला को भी बराबर का दोषी क्यों न माना जाए? शादी से पहले अवेध सम्बन्ध बनाने के बाद गर्भ में आये बच्चे का जिम्मेवार पुरुष के साथ स्त्री को भी क्यों न माना जाए? तब समाज का पीड़ित स्त्री से सवाल, "किसका है ये पाप?" न होकर "किसके साथ किया ये पाप?" क्यों न हो? परन्तु ऐसा नहीं होता.
अगर पुरुष बहला फुसला कर स्त्री को गर्भवती करे तो गर्भ का जिम्मेदार पुरुष और जब शादी के बाद यही कार्य पुरुष करे तो लोग स्त्री के अधिकार और सम्मान की बात कर गर्भ के बच्चे को महिला का भी वंश माने जाने की वकालत करते हैं. ऐसे में हमें समाज के दो अलग अलग चेहरे देखने को मिलते हैं. 

इसमें भी एक सवाल
अगर मान लीजिये शादी के बिना कोई स्त्री सोचसमझ कर और जानकार-बूझकर पुरुष के साथ मिलकर गर्भवती होती है, तब भी क्या गर्भ का जिम्मेदार सिर्फ पुरुष को माना जायेगा? क्या तब भी कहा जाएगा के वंश सिर्फ पुरुष का है या यहाँ भी स्त्री के वंश होने की वकालत की जाएगी. आखिर बात ये समझ नहीं आ रही कि स्त्री को बहलाने-फुसलाने पर पुरुष द्वारा किये किसी कृत्य के कारण ही सारी विचारधारा क्यों बदल जाती है? 

शादी से पहले किये किसी कृत्य पर समाज की विचारधारा कुछ और, और फिर शादी के बाद किये उसी कृत्य पर समाज की विचार धारा कुछ और?
खैर...

2. दूसरा सवाल- क्या पुरुष और स्त्री बराबर हैं?

इस प्रश्न का मैंने हर जगह यही उत्तर पाया कि हाँ, स्त्री और पुरुष मानसिक, बौद्धिक, सामाजिक, वैज्ञानिक, व्यावहारिक (शारीरिक शक्ति छोड़ कर) हर पहलु में बराबर है. इसमें कोई संदेह नहीं. कानून भी इसका समर्थन करता है. यही कारण है कि किसी सरकारी पद पर जो आय पुरुष को दी जाती है उतने बराबर की आय महिला को भी दी जाती है. महिलाओं और पुरुषों का किसी एक पद पर एक जैसा ही पे-ग्रेड और तनख्वा का प्रावधान है. इस व्यवहार की सराहना करनी चाहिए. ये विचारधारा सिद्ध करती है कि पुरुष और महिला एक बराबर हैं.

तर्क- 
कमाल की बात है कि स्त्री-पुरुष मानसिक और दिमागी तौर पर दोनों एक सामान हैं तो फिर एक उम्र + एक बौद्धिक स्तर के पुरुष (मान लीजिये बी.ए. III का छात्र) द्वारा उसी उम्र की + उसी बौद्धिक स्तर की स्त्री (मान लीजिये बी.ए. III का छात्रा) को बहला-फुसला कैसे लेता है? अर्थात किसी उम्र+ एक बौद्धिक स्तर का पुरुष जब उसी उम्र + उसी बौद्धिक स्तर की स्त्री को बहलाने और फुसलाने की कोशिश करता है तो वो स्त्री कैसे बहल और फुसल जाती है?? तब स्त्री की बौद्धिक स्थिति और मानसिक स्तरता कैसे कम हो जाती है? अगर विज्ञान और कानून को माने तो स्त्री और पुरुष सामान हैं, सीधी सी बात है कि पुरुष के बहलाने-फुसलाने पर स्त्री को बहलना-फुसलना नहीं चाहिए क्योंकि दोनों एक सामान दिमागी स्तर के हैं.
यह एक सोचनीय प्रश्न है, जिसपर आत्मचिंतन करने की जरूरत है.

मैं अपनी बात कहूँ तो-
इसका उत्तर पहला ये हो सकता है कि- पुरुष द्वारा स्त्री को बहलाने-फुसलाने की सम्भावना तब ज्यादा हो सकती है जब पुरुष विकसित क्षेत्र का हो सकता है और स्त्री पिछड़े इलाके और अविकसित क्षेत्र की. हम जानते हैं कि क्षेत्र और समुदाय का निश्चित ही जीवन और विचार-व्यवहार पर प्रभाव पड़ता है. यही कारण है कि छात्र अपने पिछड़े इलाको से बहार निकल कर शहर पढ़ने या नौकरी करने आते हैं. 

दूसरा उत्तर ये भी हो सकता है, कि भारत में हज़ारों वर्षों से स्त्री को दबाकर रखा गया. स्त्री को एक उपभोग की वस्तु समझा गया, धीरे-धीरे स्त्रियाँ अपने को स्वयं में कमजोर समझने लगी (और आज भी समझती हैं), इन हज़ारों वर्षों में निर्णय लेने की क्षमता कम हो गई... आज स्थिति ये है कि कोई भी निर्णय लेने के लिए पिता, भाई अथवा पति (जो सभी पुरुष हैं) पर आश्रित रहती हैं, ऐसे में उन्हें अगर कोई पुरुष बहलाने की कोशिश कर रहा होता है तो उन्हें लगता है कि शायद उक्त पुरुष सही ही बोल रहा होगा. ऐसे में महिला स्वयं का विवेक का उपयोग न कर दूसरों की बात पर विश्वाश कर लेती  और पुरुष के बहलाने-फुसलाने पर बहल और फुसल जाती हैं. 
जो स्थिति महिलाओं की हज़ारों वर्षों से है, बिलकुल वैसी ही स्थिति दलितों की भी रही. इन्हें भी दबाया-कुचला गया. धीरे धीरे ये वर्ग भी उस जख्म से उबर रहे हैं, जो ऊँची जातियों ने इन्हें दिए हैं. आरक्षण इसमें एक सहायक के तौर पर सामने आया. आरक्षण ने न केवल दलितों को आगे बढ़ने के लिए सुरक्षित माहौल दिया अपितु महिलाओं को भी आरक्षण देकर उन्हें शान से जीने का हक दिया. उनका स्वाभिमान जगाया है. 

निष्कर्ष 
अजीबो गरीब प्रश्नों और उनके तर्कों का विश्लेषण करने पर हम छोटे मोटे निष्कर्ष पर तो पहुँच गये, फिर भी इसका असर जब तक समाज में देखने को न मिले तब तक इन निष्कर्षों का कोई मूल्य नहीं.
1. निष्कर्ष यह निकल कर आता है कि अगर पिछड़े क्षेत्र की महिलाओं को जो कि आगे बढ़ना चाहती हैं परन्तु संसाधनों के अभाव में नहीं बढ़ पा रही हैं, अगर उन्हें उसी पिछड़े क्षेत्र में आगे बढ़ने अथवा पढने और सुरक्षित माहौल प्रदान किया जाए तो वे जागरूक होंगी और तब किसी पुरुष की हिम्मत न होगी जो स्त्री को बहला अथवा फुसला सके.

2. दूसरा निष्कर्ष यह निकल कर आता है कि जिस प्रकार से, मान लीजिये बस में कोई भरा सिलेन्डर ले जाए और बस में फट जाए तो इसमें दोष सिर्फ उस व्यक्ति का नहीं जिसने सिलेंडर बस में रखा बल्कि परिचालक का भी है जिसने उसे बस में रखने दिया, ठीक उसी प्रकार से जब कोई पुरुष, किसी स्त्री को बहलाने की कोशिश करता है, तो दोष सिर्फ उस पुरुष का ही नहीं, बल्कि दोष उस कानून पालकों का भी है जिनकी नाक के नीचे ये सब निडर होकर किया जा रहा है, उस व्यवस्था का भी है जिसने पुरुष को मौका दिया ऐसा कृत्य करने का. इस का भी सुधार होना चाहिए. 

3. भ्रष्टाचार में सरकारी कर्मचारियों के लिप्त होने के कारण अपराधी सरेआम कुकृत्य करते रहते हैं, और बेख़ौफ़ घुमते हैं, क्यूंकि वो जानते हैं कि सरकारी कर्मचारियों के पास इतना टाइम ही नहीं कि वे अपराधियों को पकड़ सकें. सारा समय अच्छी जगह स्थानान्तरण कराने में और बाकी समय स्थानान्तरण में किये "खर्चे" को पूरा करने और "कमाने" में लगा देते हैं.

अंत में इतना ही कहना चाहता हूँ, मैंने यहाँ कोई बहस का मुद्दा नहीं दिया. मैंने अपने प्रश्नों के उत्तर तलाशने की कोशिश की. जीवन में हर राह में प्रश्न होते हैं. उन्ही के हल मनुष्य आजीवन करता है, और जिसके हल मिलते जाते हैं, उनको मनुष्य संचार के माध्यम से प्रेषित करता रहता है. यही संसार है, यही संचार है.

शुक्रवार, मई 29, 2015

हाँ

किस्मत से ज्यादा किसी को कुछ न मिला है और न ही मिल सकता है.
हमें सिर्फ ये प्रयास करते रहना चाहिए कि हम समझ में अच्छे से अच्छा कर सकें. बाकि सब भगवान् पर छोड़ देना चाहिए.
कहते हैं, जिसके कर्म सही हैं उसका सब कुछ सही है. और जिसके कर्म ख़राब हैं, वो कितना ही अच्छा दिखावा कर ले. पर उसका प्रतिफल उसे उसके कर्मों के अनुसार ही मिलता है.