सीखने के लिए मैंने हर जख्म सींचे हैं, पढ़ना है दर्द मेरा तो सब लिंक नीचे हैं

सोमवार, फ़रवरी 10, 2014

आज पता चला, शौचालय भी है जन माध्यम

(विशेषकर पत्रकारिता एवं जन संचार छात्रों के लिए)
क्या आप इस बात को स्वीकार कर सकते हैं कि शौचालय भी एक जन माध्यम है.
मैं भी इस बात से हैरत में हूँ, पर हाल ही मैं ये बात साबित हो गयी है, वो भी विदेश में नहीं बल्कि अपने ही देश में. मतलब एक और जन माध्यम के नये सिद्धांत का जन्म भारत में हो चुका है.
चलिए समझाता हूँ.
ऋषिकेश में आये दिन सीवर लाइन (Sewerage), नालियों को बंद होने की समस्या सामने आती रहती है. ऋषिकेश का गन्दा पानी, जिसमें मल-मूत्र, साबुन का पानी आदि शामिल है, को गंगा नदी में छोड़ दिया जाता है.
ऐसे हुआ नये जन माध्यम का प्रादुर्भाव 
तो घटना ये हुयी कि हर बार की तरह ऋषिकेश में सीवर लाइन बंद हो गयीं. लोगों ने नगर पालिका को सिकायत की, पत्र लिखे.
पर नगर पालिका मानने को राज़ी नहीं हुआ कि सीवर लाइन बंद हो गयीं. पालिका को लोगों की शिकायतों पर विश्वास ही नहीं हुआ. अब क्या किया जाए. सीवर लाइन बंद, तमाम जन माध्यमों (जैसे- अखबार, टीवी, रेडियो) में खूब चर्चा हुयी की नाले जाम हो चुके हैं और पालिका है कि मानने को राज़ी नहीं.
"ऊपर" से फटकार मिलने पर और कहीं "वे" चुनाव न हार जाएँ, इसलिए "उनके" दबाव में प्रशासनिक अमला चेताया और हरकत में आया.
हुआ ये कि अधिकारियों ने तय किया कि कैसे पता लगायें कि सीवर लाइन जाम हो गयी? आखिर सबूत क्या है कि सीवर लाइन जाम हो गयी? इसका सबूत ढूढने के लिए अधिकारियों का एक दल (Team) गंगा किनारे गया, ये वो जगह थी, जहाँ सीवर लाइन ख़तम हो जाती है और नाले से गन्दा पानी और मल मूत्र गिरता हुआ दिखता है. दल ने पाया की गन्दा पानी तो गिर ही नहीं रहा. अब अधिकारियों को भी अहसास हुआ कि शौचालय से छोड़ा गया मल-मूत्र एवं गन्दा पानी यहाँ नदी तक पहुँच ही नहीं रहा. अतः ये सिद्ध होता है कि सीवरेज जाम है.

दल ने तुरंत मीडिया कांफेरेस कर बात प्रसारित कर दी, लाइव टेलीकास्ट हो चला, हजारों लोग गंगा नदी पहुँचने लगे ये देखने कि, सीवरेज जाम है. खबर हवा की तरह फ़ैल गयी. नुक्कड़ नाटक होने लगे. कठपुतली के नाटक में ये घटना दिखाई जाने लगी. जागरूकता रैली निकल पड़ी, सब दो दिन में. हफ्ते भर से सीवर लें बंद थी, लोगों तक सूचना पहुँच तो रही थी, पर उस खबर का प्रभाव नहीं हुआ, पर डायरेक्ट/सीधे/प्रत्यक्ष शौचालय (मार्शल मौक्लूहन के अनुसार- माध्यम ही सन्देश है) के माध्यम से गन्दा पानी गंगा नदी तक नहीं पंहुच रहा तो इस सन्देश का खासा प्रभाव हुआ. और जैसा की आप जानते हैं कि मार्शल मैक्लूहन ने ये माना है कि माध्यम जितना मजबूत होगा, सन्देश का प्रभाव भी उतना ही पड़ेगा.

इति सिद्धम्
इस तरह ये सिद्ध होता है कि अधिकारियों ने ये सच तब माना जब उन्होंने ये जाना की शौचालय, ध्यान दीजिएगा- शौचालय के माध्यम से जब पानी छोड़ा गया तो यहाँ पंहुचा क्यों नहीं. नगर पालिका का ये विचार है कि जो गन्दा पानी बहाया जाएगा वो शौचालय के माध्यम से गंगा नदी तक जरूर पहुंचना चाहिए.

नई खोज का मूल्यांकन 
अब इसका मूल्यांकन हम भारत एवं अन्य विश्वविद्यालयों में पढ़ाये जा रहे संचार के मॉडल से करते हैं. 
चलिए हेराल्ड लोसवेल के संचार मॉडल (1948) को लेते हैं.


अब इस आधार पर एक मॉडल सूझते हैं- 
उपरोक्त मॉडल से हम समझ सकते हैं कि  शौचालय भी एक माध्यम है और ये हमारे देश में काम कर रहा है. और अक्सर समस्या को समझने में ये माध्यम भी उपयोगी होता है. और चूँकि सन्देश को चैन की तरह एक जगह से दूसरी जगह और एक व्यक्ति से प्रसारित होकर दूसरे व्यक्ति तक पहुंचाने के कारण इस माध्यम को भी जन माध्यम माना जा सकता है. हालाँकि इस माध्यम के द्वारा सन्देश लिखित या शाब्दिक न होकर दृश्य रुपी होता है.
वर्तमान के जन माध्यम :- टेलीविजन, रडियो, अखबार, पत्रिका, न्यू मीडिया, जन रैली, जन सभा, इन्टरनेट, लाइव कोंफ्रेंस आदि वर्तमान में प्रमुख जनसंचार माध्यम हैं. अब इन महत्वपूर्ण जन माध्यमों में शौचालय भी शामिल हो गया. हालाँकि ये प्रमुख जन माध्यमों की श्रृंखला में नहीं है.
दूसरा पक्ष
मलिन बस्तियों में लोग सुबह सुबह शौचालय के लिए लाइन में खड़े मिल जायेंगे. ऐसे में भी लोग अंतर्व्यक्तिक संचार (inter personal communication) करते हैं. ऐसे में दिन-प्रतिदिन की घटनाओं की जानकारी भी हासिल कर लेते हैं और जो करने आये हैं वो भी. इस अवस्था में भी शौचालय महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. क्योंकि अगर शौचालय न हो तो लोग एकत्रित नहीं होंगे. और अंतर्व्यक्तिक संचार (inter personal communication) नहीं कर पायेंगे. अतः इस तरह भी शौचालय एक जन माध्यम सिद्ध होता है.

yes! i got it. मैंने कर दिखाया. बस इतना कहा और मेरा सपना टूट गया :-(

(एक अनचाहे स्वपन पर आधारित)

शनिवार, फ़रवरी 08, 2014

मीडिया मालिकों को तो मजीठिया बोर्ड बुरा लगेगा ही

मजीठिया वेतन बोर्ड ने पत्रकारों की हालत क्या बयाँ कर दीमीडिया, प्रेस मालिकों के माथे पर सांप लोट गये.
आजादी के बाद से कई बार, पत्रकारों के हितों की बातें तो हुयीं पर कोई ठोस कदम उठाया नहीं गया और जब अब मजीठिया बोर्ड उनके हितों की बात कर रहा है तो उसमे फिर हर बार की तरह मीडिया संस्थानों के मालिक अड़ंगा लगा रहे हैं. आखिर क्या दिक्कत है, अगर दूसरे विभागों की तरह पत्रकारों को भी एक निश्चित वेतन मिलने लगेगा? क्या उनके लिए वेतनमान निश्चित होना जरूरी नहीं? क्या वे और कर्मचारियों की तरह मानव नहीं? तो फिर क्यों उनके मानवाधिकार का हनन हो रहा है?

आज के लखनऊ संस्करण के "नव भारत टाइम्स" ने प्रेस मालिकों की तरफ से बोर्ड की कमियां बताते हुए उदाहरण सहित तर्क प्रस्तुत किये हैं???
इतने अजीब और हस्याद्पद हैं कि आप स्वयं स्वीकार कर लेंगे  कि पैसे की भूख अमीरों को ज्यादा होती है.... देखिये....
बताया गया कि ड्राइवर का वेतन जो 36000 है वो बढ़कर 62000 हो जाएगा.

सोचिये ज़रा ड्राइवर को कौन 36000 वेतन हर महीने दे रहा है? मर्सतीज बेंज चलाने वाले को भी इतना वेतन मासिक नहीं मिलता होगा.  और अगर "नव भारत टाइम्स" ने यह वेतन सालाना बताया है तो जनाब यह भी साफ़ कर दिया जाए की 3000 रूपए महीने मिलने पर किसी परिवार का गुजारा आज के दौर में मुस्किल है, इसलिए गलती से भी मजीठिया बोर्ड का विरोध करना नहीं चाहिए.

"नव भारत टाइम्स" ने अपने नजरिये में एक चपरासी की तनख्वा 33000 रूपए बताई. अगर ये मासिक आय है तो जनाब अब सुनिए, जब उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग की परीक्षा कड़ी मेहनत और लगन से पास करता है और किसी जिले का एस0 डी0 एम0 बनता है, तब जाकर उसकी तन्खवा लगभग 30000 - 35000 मासिक बनती है, एचआरए,टीए, वीए, फलाना ढिमका सब जोड़ जाड़ कर. और "नब भारत टाइम्स" ने तो कमाल ही कर दिया, चपरासी की तनख्वा 33000 बता दी और ये बताने की कोशिश की कि मजीठिया बोर्ड के लागू होने पर उनकी तनख्वा 58000 हो जायेगी. अगर ये तन्खवा सालाना अर्थात वार्षिक है तो 33000 में 12 का भाग लगा दिजीये तो पता चलेगा कि चपरासियों की मासिक आय 3000 से भी कम बन रही है, और ऐसे में मजीठिया बोर्ड का निर्णय प्रसंसनीय और सराहनीय है, मीडिया मालिकों को इससे सीखना चाहिए.

क्या चाहते हैं मीडिया मालिक
मीडिया मालिक चाहते हैं कि वे स्वयं पत्रकारों और संस्थान में लगे कर्मचारियों का वेतन तय करे. वेतन स्वयं तय करेंगे तो निश्चित है की कर्मचारियों का शोषण करना आसन होगा और यही हो रहा है... ज्यादा काम करवाते हैं और कम आमदनी देते हैं, अगर आवाज़ उठाने की कोशिश की तो नौकरी से निकाल देते हैं. पत्रकार जो दूसरों की मुसीबत में उनकी आवाज बनकर उभरते हैं, असल में खुद के लिए आवाज नहीं उठा पा रहे, क्यूंकि उनकी गर्दन मीडिया मालिकों के हाथ में होती है. और यही करण है की मीडिया मालिक नहीं चाहते कि उनके हाथ में पावर न रहे. वे हमेशा यही चाहते हैं कि सभी पत्रकारों को कम वेतन देते रहे और ज्यादा से ज्यादा शुद्ध लाभ अर्जित कर सकें. और अगर कोई विरोध करे तो उसे तुरन नौकरी से बाहर कर दें. और ये सिलसिला ऐसे ही लगातार चलता रहे, जैसा की आजादी के बाद से लगातार चल रहा है. मजीठिया आयोग ने इनकी ताकत को कम करने की बात कही तो हडबडाने लगे. लाज़मी है भई. और इसीलिए लोगों को उलटे सीधे अधूरे आंकड़ों से भ्रम में डालने लगे.

क्यों लिखे जाते हैं ऐसे भ्रम पूर्ण लेख
क्या आप जानते हैं, ऐसे भ्रम पैदा करने वाले लेख क्यों लिखे जाते हैं? असल में ये मीडिया में मौजूद लोग जानते हैं कि पत्रकारिता में "चाटुकारिता" भी चल रही है, ऐसे में अच्छे पत्रकार (जो स्वाभिमानी, खबरों से समझोता नहीं करने वाले, योग्य) होते हैं वे पिछड़ जाते हैं, और मीडिया मालिक ज्यादातर "चाटुकार" पत्रकारों को भर लेते हैं, जिस तरह से मदारी के इशारे पर बन्दर गुलाटी मारता है, सर्कस में हाथी डंडे के इशारे पर नाचता है, बिलकुल वैसे ही ये गिनती के चाटुकार (अयोग्य पत्रकार) अपने मालिक के कहे अनुसार काम करते हैं, फिर चाहे समाज का भला हो या न हो. बस संस्थान के मालिक का भला होना चाहिए.
और वही इस लेख "एनबीटी नजरिया" में परिलक्षित हो रहा है.


मालिक के फ़ोन आने पर लेखक साहब ने (जो शायद पत्रकार हो) आनन् फानन में लेख तो लिख दिया शायद, लेकिन ये नहीं पता कर पाए, घूम फिर कर वो अपने पैर पर ही कुल्हाड़ी मार रहे हैं.

शुक्रवार, फ़रवरी 07, 2014

रैंप पर कैटवाक करके बचेंगी बेटियां?

हा हा...........हूऊऊऊऊऊऊओ हो हो हूऊऊऊऊ हाआअ  हा हा हा हाआआआआ
य त ल .... अरे वो... 
पहले मुझे हँस लेने दो, क्योंकि टाइप नहीं कर पा रहा हूँ....
ओफ्हो... अरे राम. पेट में दर्द हो गया.
सांस तो ले लूं जरा.
हम्म.
पता है क्यों हँसे जा रहा हूँ मैं. असल में मुझे आज सुबह ही पता चला कि मुंबई में कुछ महिलाओं (जिनमें से कुछ फिल्मों में भी काम कर चुकी हैं) ने रैंप पर कैटवाक किया, वो भी बेटी बचाने के लिए. उन्होंने महिलाओं को जागरूक करने वाले शब्द नहीं बोले, उन्होंने भ्रूण परीक्षण करने वाले डॉक्टरों को कुछ नहीं समझाया, उन्होंने बेटी भ्रूण को जन्म देने की अपील भी नहीं की, और तो और उन्होंने बेटी की सुरक्षा और सेहत का सुझाव भी नहीं दिया.... पर बेटी बचाने के लिए रैंप पर चल दिए... अ अ अ....आ चल नहीं दिए, बेटी बचाओ का प्रदर्शन किया.... हाँ ये शब्द ठीक है... बोलने में भी सम्मान जनक लगता है.
अब कौन बेवजह असलियत बयाँ करने की जुर्रत करे कि रैंप पर चलने से बेटी नहीं बचाई जा सकती, बेटी बचाने के लिए रैंप पर नहीं लोगों के दिल-ओ-दिमाग में झाकना पड़ेगा, उन्हें उनके रूढ़ीवादी विचारधारा को बदलना पड़ेगा.

क्या आप कष्ट करेंगे ये बताने का कि कितनी बेटियों को बचा लिया रैंप करके, बताना ज़रा???
अगर रैंप पर जलवे बखेरने से बेटियां बचाई जा सकती, तो जनाब भारत सरकार क्या मूर्ख है जो करोडो रुपये पानी की तरह बहा रही है, कड़े क़ानून बना रही है, तब भी हम धनात्मक प्रतिक्रिया को तरस रहे हैं.

माफ़ कीजिएगा, पर अगर रैंप पर कैटवाक करके बेटियां बचाई जा सकती तो देश में हर रोज 80 करोड़ लोग रोज कैटवाक करते हैं, हाँ ये अलग बात है कि वो कैटवाक सड़कों पर करते हैं..... और आज देश की हर भ्रूण बेटी बच जाया करती और आये दिन पैदा होने से पहले मरती नहीं.

देखिये तो जरा... कैसे बेटियां बचा रहे हैं.... अरे वाह! ओह... ओफोह. क्या बात है........