सीखने के लिए मैंने हर जख्म सींचे हैं, पढ़ना है दर्द मेरा तो सब लिंक नीचे हैं

गुरुवार, दिसंबर 31, 2020

मैं सच कहूं तो मेरी बुराई करता है


 मैं सच कहूं तो मेरी बुराई करता है 

वो झूठ पे झूठ कहे तो उसकी बातों पे मरता है 


गलतियाँ करे खुद, उसे शर्म नहीं आती 

अपनी गलतियाँ को वो दूसरों पे मढ़ता है 


तेरी तस्वीर देख के खुद को रोक लेता हूँ

जब भी नफरत का जूनून सर पे चढ़ता है 


बड़ा बनने का रास्ता सिर्फ एक होता है 

गलती मान के जो अपना दिल साफ़ करता है 

- बृजेन्द्र कुमार वर्मा 

सदमा

-बृजेन्द्र कुमार वर्मा 

 वो कुछ कर नहीं पाया, तस्वीर दीवार पे लगाए बैठा है,

इश्क ने ऐसा हराया उसे , सदमा दिल पे लगाए बैठा है,

बयाँ करो तो हंस के चले जाते हैं  लोग, 

यही कारण है कि हर दर्द छुपाये बैठा है 

जिन्दगी में आया जो भी, वो धोखा देके जाता रहा 

सुना है अब वो अपनी आस्तीन में छुरा छुपाये बैठा है. 

जानता है, कोई सुन नहीं सकता इस गम के समंदर को 

इसलिए अपनी जुबां पे लगाम लगाए बैठा है 

मैं कैसे कह दूं वो शख्स हरामी है, 

जो अपनी जिन्दगी भी दांव पे लगाए बैठा है 

बिना रिश्वत के वो कुछ कर नहीं सकता 

देख लो अभी तक फाइल दबाये बैठा है. 

-बृजेन्द्र कुमार वर्मा 


मंगलवार, मई 12, 2020

बदनसीब घड़ा

बदनसीब घड़ा

(कहानी प्रेम कथा की एक घटना से प्रेरित है)

-  बृजेन्द्र कुमार वर्मा


ये दिन हर बार की तरह सामान्य नहीं था. हर बार तो धूप भी निकलती थी और शाम होते-होते गर्मी भी कम हो जाती थी. बारिश होती भी थी, तो मौसम को रंगीन बना देती थी, लेकिन इस बार मौसम के बारे में कुछ भी कहना अनोखा सा लग रहा था. लेकिन प्रेमिका को ये मौसम नहीं, नदी पार अपना प्रेमी दिखाई दे रहा था. प्रेमियों की खासियत समझने के लिए उनके जैसा बनना पड़ेगा. उनके जैसा मतलब संत. किसी से पूछोगे, तुम्हारे लिए सबसे महत्वपूर्ण क्या है, तो कोई बोलेगा धन, कोई बोलेगा तन तो कोई बोलेगा मन. लेकिन प्रेमी जोड़ा बोलेगा समपर्ण. लेकिन क्या करें साहित्य में समपर्ण की परिभाषाएं भी अलग-अलग हैं. बहरहाल प्रेमी जोड़े का समर्पण समझना भी मुश्किल है, या ये कहें हालातों के अनुसार समपर्ण भी बदलता रहता है.

 

इतना भरोसा तो माँ को अपने बेटे पर भी नहीं होगा , जितना भरोसा प्रेमिका को अपने हाथों से बनाए घड़े पर था. लेकिन बेचारी प्रेमिका को क्या मालूम था कि उसके बनाये घड़े को हटाकर उसके जैसे कच्चे घड़े को रख दिया गया है, वो भी उसी के संबंधी ने, लेकिन अच्छी आत्मा को सब अच्छे ही दिखाई देते हैं, सो प्रेमिका को भी उसके अपने सच में अपने ही नजर आए। हर बार की तहर नदी पार प्रेमी से मिलने चल दी। उसका घड़ा जो उसका माझी बनता, उसे ध्यान से भी नहीं देखा, परखा भी नहीं। 

 

हाय! ये दुनिया भी अजीब है, परखने का काम भी वो करते हैं, जिसे अपनों पर भी भरोसा नहीं होता और जिसे भरोसा होता है, वो कभी परखता ही नहीं। 

 

लोग नदी के उफान से अपने घर की ओर जा रहे थे, तो प्रमिका मुस्कान लिए नदी ओर जा रही थी। शाम जल्दी ढलने लगी, आज तो सूरज भी इस तुफान के आगे हल्का नजर आ रहा था, बारिश तो हो ही रही थी, लेकिन ये तेज हवाएं मौसम को सुहाना बनाने की जगह भयावह बना रही थी। लोग डर रहे थे, प्रमिका खुश हो रही थी। भगवान भी किसी का नसीब सोने से लिख देता है, तो किसी का मिट्टी से, लेकिन नसीब ही सब कुछ नहीं होता, समय से आगे तो भगवान भी ठहर जाता है, इसीलिए सोने के नसीब वाले मिट्टी में मिल जाते हैं और मिट्टी में खेलने वाले सोने का ताज पहन लेते हैं।

 

प्रेमिका मिट्टी के बर्तन जरूर बनाती थी, लेकिन प्रेम ने उसकी आँखों को प्रकृति की गोद सा बना दिया था। उसे मिट्टी में भी अस्तित्व नजर आते और वो भी दिवानी ठहरती नहीं, जो दिखता, चाक पर रखकर बना देती। देश-विदेश से उसकी कलाकृति को देखने मुसाफिर आते थे। उसका आशिक़ भी कभी मुसाफिर ही था। 

 

प्रेमिका नदी पर पहुँच गयी। नदी उफान दिखा रही थी, लेकिन प्रेमिका उस पार तट को देख रही थी, सिर्फ घड़ा ही था, जो उस उफान को देखकर घबरा रहा था। जुबां होती तो बोल देता, ‘प्रेमिका उस पार न जा सकेगी’

 

प्रेमिका उतर पड़ी नदी में, उस नूर को, उस प्रकृति के बनाए नायाब तोहफे को देखने, जिसे आँख वाले भी नहीं देख सकते, दिलवाले भी समझ नहीं सकते। उस खुशबू को लेने जिसे प्रकृति ने नसीब वालों के लिए बनाया है, जिसे महसूस करना किसी के बस में नहीं। उन धड़कनों को सुनने, जिसके लिए तमाम पवित्र आत्माएं इंतजार करती हैं, उसमें कुछ पहर रहने के लिए। 

 

नदी का उफान, तेज होती बारिश, बढ़ता बहाव और प्रेमिका को दिखता किनारा। बेदर्द और खौफनाक होते मौसम को देखकर प्रेमिका घड़े से कुछ पूछती कि घड़ा बोल पड़ा।

 

क्या तुम्हें कुछ दिखाई नहीं दे रहा कि मैं कैसा हूँ और तुम मुझे किन परिस्थितियों में ले जा रही हो ?’, घड़ा घबराता हुआ बोला।

 

पानी में तैरती प्रेमिका बोली, ‘कैसे हो का क्या मतलब है ?, क्या तुम जानते नहीं, हमेशा की तरह मुझे कहाँ  जाना है, और तुम मेरे लिए क्या करते हो ?’

 

नहीं मैं नहीं जानता’, डरता हुआ घड़ा बोला।

 

प्रेमिका दुखी मन से बोली, ‘देखो मेरे प्यारे घड़े इन विपरीत परिस्थितियों में मुझसे ऐसी हँसी न करो। मुझ बदनसीब की बिन इच्छा शादी हुई। माता-पिता ने भी हमेशा के लिए विदाई दे दी। ससुराल में भी मुझे प्यार नहीं मिला और जब तुझे बनाया तो सिर्फ इसलिए कि मैं उस पार जाकर अपने प्रेमी को देख सकूं, उससे मिल सकूं। हर बार तूने मेरा साथ दिया, आज तुझे क्या हो गया। मेरा नसीब इतना तो खराब नहीं कि मैं अपने प्रेमी को दुखी करूं। अब मेरा नसीब भी तेरे हवाले है, तू ही किनारे पहुँचाता  है, तो आज तुझे क्या हो गया है ?

 

पानी के तेज बहाव से घड़ा कमजोर हो रहा था, लेकिन बातों को समझ नहीं पा रहा था कि आखिर उसने कब प्रेमिका को हमेशा किनारे पर पहुँचाया. वो इस भयानक मौसम में क्यों झूठ बोलेगा -

 

मैंने तो आज तक नदी को देखा भी नहीं, मुझे तो तुम्हारी भाभी ने कल ही बनाया, लगता है तुम्हें धोखा हुआ है’

सन्न रह गयी प्रेमिका... अब रोने लगी, ‘हाय। तो क्या अब भाभी भी मुझे...। मुझे धोखा हुआ नहीं है, धोखा दिया है। जिसे मैंने अपनी बहन माना उसने ही...। नफरतों की फहरिस्त में एक और नाम जुड़ जाने से नफरतों का तौल नहीं बढ़ जाता, हाँ  इतना जरूर है, खतरे बढ़ जाते हैं।

 

प्रेमिका को अब बस घड़े का ही सहारा था, सो घड़े से ही विनती करने लगी। ‘

ऐ घड़े- मेरा बस एक काम कर दे,

पिघलते जिस्म को जाम कर दे,

थाम ले कुछ साँस अपनी,

हाथ मेरे अपनी लगाम कर दे,

देख नदी ने जान लिया है,

लहरों ने भी पहचान लिया है,

बस यही एक एहसान कर दे,

इस नदी के पार कर दे।’

 

घड़ा क्या करता, कसमसाता हुआ बोला, ‘प्रेमिका तुम समझती क्यों नहीं मैं कच्चा घड़ा हूँ। मुझे पकाया नहीं गया।’

 

प्रेमिका ने भी उत्तर दिया, ‘तुम कच्चे हो तो क्या हुआ, आखिर मेरा प्यार तो पक्का है। जीवन भी इंसान को कच्चे से पक्के होने का समय देती है। दुख और सुख साथ-साथ चलते हैं। दुख ही ऐसे हैं, जो इंसान को समय के साथ-साथ पक्का बना देती हैं। माना तुम्हें पकाया नहीं गया, इसका मतलब ये तो नहीं कि तुम स्वयं भी पकना नहीं चाहो। जब दुख का समय आता है, उस समय पकने का सही मौका होता है। जिन बच्चों को शिक्षा नहीं मिलती तो क्या वे समझदार नहीं माने जा सकते। जरा समाज में बात तो करके देखो, कभी-कभी  ऊँचे पदों पर बैठे लोगों से ज्यादा अच्छी बातें वे कर जाते हैं, जिन्होंने स्कूल तक का मुँह नहीं देखा होता।’

 

देखो प्रिय घड़े मेरा वक्त हमेशा से बुरा ही रहा है, इस नदी को ही देखो। आज तक जिसने मेरे शरीर की प्यास बुझाई और उस किनारे पहुँचाकर मेरी आत्मा की प्यास बुझाई, जिसने हजारों इंसानों की, वृक्षों की प्यास बुझाई, निर्मलता दी, आज वह भी इस मौसम की मार झेल रही है। याद रखना जिसका दिल भी इस पवित्र नदी जैसा होगा, उसे किसी न किसी बात को लेकर कुछ न कुछ झेलना जरूर पड़ेगा|’

 

घड़ा पिघलने लगा, ‘अब मेरा समय आ गया है। मैं इस काबिल न बन पाया कि तुम्हें उस पार ले जा सकूं। मैंने बहुत कोशिश की, लेकिन अब तो लगता है, यदि कोई अच्छा भी हो तो हालात आपको उसकी मदद नहीं करने देते।’

 

मैं डूब रही हूँ। अब क्या करूं, क्या उनसे मुलाकात नहीं होगी, ऐसा ही है तो मुझे कुछ कहना है उनसे। इस जीवन में उनकी नहीं बन सकी, लेकिन अगले जन्म में उनकी बनूँगी। लेकिन पक्षी बनकर, इंसान नहीं। इंसानों ने तो गाँव, शहर, सरहदों, समाज, वर्ग यहाँ  तक कि जिस्म तक पर पाबंदियाँ लगा दी हैं। पंछी आजाद होते हैं।’

 

घड़ा पिघल रहा था, उस पर चढ़ा रंग फीका पड़ने लगा। प्रेमिका की कोशिशें जारी थीं, लेकिन विफलता का दामन बढ़ता जा रहा था, मानो उसे हराने में सारी कायनात एक हो गयी हो। 

साँस फूलने लगी तो हड़बड़ाते हुए घड़े से बोली, ‘

अब तो नदी को भी तरस आने लगा, मौसम को धिक्कारने लगी, क्या अभी ही खराब होना था, थोड़ा रुक नहीं सकते थे। उन्हें क्यों नहीं सताते, जो दूसरों को सताते हैं, क्यों उन पर बिजलियाँ नहीं गिराते जो सिर्फ अपने लाभ के लिए दूसरों के घरों में आग लगा देते हैं। नदी कर भी क्या सकती है, नियती से बंधी जो है। 

 

घड़ा अंतिम समय में आ गया, ‘अब मुझे माफ कर दो, जितना कर सकता था, कर दिया अब सहा नहीं जाता, पानी में खो जाने का समय आ गया। सोचा था, मेरा निर्माण हुआ है तो एक काम तो अच्छा जरूर करूँगा। हर किसी को अपने जीवन में एक अच्छा काम जरूर करना चाहिए, जो बाकी जीवन को आसान बना दे, लेकिन मैं एक भी काम अच्छा नहीं कर पाया, मुझे दुख है। तुम्हें उस पार पहुँचाने की कोशिश भी अब नाकाम हो गई। मेरा आधा शरीर डूब गया, तुम भी हाँफने लगी।

हे ईश्वर! कुछ ऐसा कर दे,

मेरे कर्मों में नेक लिख दे,

इस लड़की को उस पार कर दे।’

 

सिसक कर रोने लगी प्रेमिका, ‘तुम तो कमजोर निकले घड़े। तन से भी और मन से भी। देखो, मैं तो स्त्री हूँ, न जाने मुझे कहाँ-कहाँ  से धोखा मिला, नफरतें मिली। लेकिन, एक प्रेम ने मुझे इतना मजबूत बना दिया कि सारे धोखों और नफरतों को मैंने माफ कर दिया। और सच ये भी है कि मैं तुम्हें भी माफ करती हूँ। तुम्हें तो एक बुरा काम करने के लिए बनाया गया था, लेकिन फिर भी तुमने एक अच्छा काम किया, मेरी जितनी मदद हो सकी, उतनी कर दी। अब इन लहरों ने तुम्हारे चीथड़े करना शुरू कर दिया, ये उनका कर्म है, वे भी नियती से जो बंधे हैं।’

 

काश मैं उन्हें देख पाती, सुनो... मुझे माफ कर दो आपको बेवजह इंतजार करवा दिया...’, प्रेमिका अब थकने लगी थी। 

 

उस ओर खड़े प्रेमी की धड़कन अचानक बढ़ गई। जैसे प्रेमिका कुछ कह रही है। इतना मौसम खराब था तो आना ही नहीं चाहिए था, लेकिन दिल इतना बेचैन क्यों हो रहा है। इतनी तेज बारिश आँधी में कुछ दिखाई भी नहीं दे रहा, शाम तो थी ही साथ ही बादलों ने और अंधेरा कर दिया। नदी में आँधी से टूटे पेड़ तैर रहे हैं, डूब चुके जानवर भी उतराने लगे। लेकिन अभी तक प्रेमिका आती दिखाई नहीं दे रही।

 

प्रेमी का दिल इतना बेचैन हुआ कि लगा नदी किनारे लहरें उसके पैरों को पकड़कर गिड़गिड़ा रही हों, चलो जल्दी चलो, कहीं देर न हो जाए। प्रेमी को जब कुछ समझ नहीं आया तो आखिरकार लहरों ने ही प्रेमिका की चोली उसके पैरों में ला रख दी। प्रेमी चिला उठा और नदी में छलांग लगा दी। लहरें नियति से बंधी थी, तो क्या मदद नहीं कर सकती ?

 

एक अधिकारी नियमों के तले काम करता है, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि वह नियमों का गुलाम हो गया, वह अधिकार प्राप्त व्यक्ति होता है, जो नियम के लिए काम जरूर करता है लेकिन समयानुसार वह निर्णय ले सकता है, जो किसी के भले के लिए हों। यदि नियमों से भलाई होती नहीं दिखती, तो यह अधिकारी ही होती है जो विरोध कर सकता है, क्योंकि वह नियम और नियम मानने वालों के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी होता है। ऐसा ही कुछ लहरों ने नियति का पालन करते हुए प्रेमी के साथ प्रेमिका के लिए किया। 

 

आखिरकार लहरों ने प्रेमी को प्रेमिका के पास पहुँचा दिया, प्रेमिका अपनी थकान भूल गई, भयानक मौसम को भूल गई, अपने साथ बहाकर ले जाती लहरें उसे मखमल लगने लगी, घड़ा तो मानो उसका हथियार बन गया, मुस्कराते हुए प्रेमी से कहने लगी, ‘माफ कर दो मुझे, मैं आ नहीं पायी’

 

प्रेमी की आँखों में आँसू थे, दोनों एक दूजे से लिपट गए। जोर-जोर से अपनी किस्मत पर रोने लगे। वे समझ गए आखिर प्रकृति चाहती क्या थी। घड़ा पिघल चुका था, बस मुँह ही रह गया था पिघलने को, क्योंकि प्रेमिका ने उसे भी अपने सीने से लगा रखा था, सो बचा रहा। हाय रे प्रेमिका तुझे अपनी जान की परवाह न रही, उस कमजोर घड़े को बचाए रही, जिससे खुद मदद माँग रही थी। नारी दिखती कमजोर है, पर होती सबसे मजबूत है। उसकी आवाज में कितनी विवशता क्यों न हो, लेकिन उसके कर्म प्रकृति को जिन्दा रखते हैं। 

 

जैसे ही प्रेमी जोड़ा मिला, वैसे ही गाँव में बाढ़ आ गयी। लग रहा था, मानो प्रेमियों के आँसूओं से बाढ़ आ गयी। नदी का गुस्सा फूट पड़ा। ऐसा लग रहा था, जैसे नदी अपने लहरों को गाँवों में संदेश भेज कर कह दिया हो, बेरहमों! लो मैं उन्हें अपने साथ ले जा रही हूँ, जिन्हें तुमने प्यार से रहने नहीं दिया। ये बेचारे तो जीना चाहते थे, लेकिन इनको मरता देख तुम खुश हो रहे होगे। देख लो, अब तुम्हें नफरत करने की जरूरत नहीं, ले जा रही हूँ इन्हें हमेशा के लिए। लेकिन इतना याद रखना जब तक मेरा अस्तित्व है, इनके प्रेम की सुगंध मुझसे आती रहेगी। 

घड़ा प्रेमी जोड़े के प्यार को देख रोने लगा। अंतिम साँसों में पूछ बैठा, ‘प्रेमिका क्या तुमसे कुछ पूछ सकता हूँ ? मैं जानता हूँ, तुम्हारी मदद नहीं कर पाया, जानता हूँ, तुमसे पहले मैंने हिम्मत छोड़ दी, तुम आखिरकार अपने प्रेमी से मिल ही ली। इस अंत समय में मेरा योगदान क्या है ?’

 

प्रेमी जोड़ा डूब रहा था, अंत समय में भी प्रेमिका के चेहरे पर मुस्कान थी, कहने लगी, ‘तुम्हारा ही योगदान है कि मैं अपने प्रेम से आखिरी समय में मिल पायी और अभी तक नहीं डूबी। तुमने जो सहारा इस संकट में दिया, वो हमेशा याद रहेगा। तुम कच्ची मिट्टी के जरूर बने हो, लेकिन तुम्हारे इरादे किसी फौलाद से कम न थे। मुझे तुम्हारे इरादों ने बचाकर रखा। जाओ तुम्हें वरदान भी देती हूँ, जो लोग हम दोनों के प्रेम को याद रखेगा, वो तुम्हें भी याद रखेगा। इस नदी ने हम प्रेमियों को जगह दी। तो इन नदियों से ही पता चलेगा कि दुनिया में प्रेम कितना शेष है। नदियाँ सूखने लगे तो समझना प्रेम खत्म हो रहा है।’

 

प्रेमिका ठहरी नहीं, अंत में यह भी कह गई, ‘घड़े तुम्हें ये किसने का कि तुम पूरी तरह डूब जाओगे, माना कि तुम्हारा पूरा बदन पानी में मिल गया, लेकिन तुम्हारा मौखला मेरे हृदय से लगने के बाद मेरे जैसा मजबूत हो गया है, तुम्हें किनारा जरूर मिलेगा। जब नई कोपलें खिलें, तो तुम उन्हें इस अंत समय की घटना को जरूर सुनाना। इंसान पूरी जानकारी ले न ले, अंत सबको जरूर समझना चाहिए। 

 

इसके बाद नदी प्रेमी जोड़े को अपने आगोश में ले गई। जो घड़ा अपनी अंतिम साँसे ले रहा था, अब उसे पता चला कि उसकी अंतिम साँसे नहीं है, जो घबराहट थी, वह अब न रही। बारिश तेज हो रही थी, नदी उफान पर थी, गाँव डूब चुके थे। शाम ढल चुकी थी। अंधेरा हो चुका था। सूरज तो जैसे डूबा, नहीं अचानक बदहवाश गिर गया हो। ऐसा लग रहा था, कोई मनवंतर शुरू हो गया हो।

 

घड़ा अब किनारा ढूंढ रहा था।

 

 

शुक्रवार, मई 08, 2020

4 रोटियों का विश्लेषण

photo by- google image



समझ नहीं आ रहा, फोटोग्राफर हमें 4 रोटियां क्यों दिखा रहा है?? चलो विचार करके देखते हैं.

अब रेल की पटरी पर रोटियों के पड़े रहने की दशा देखिये.

पहली रोटी सबसे ऊपर है और पूर्ण रूप से दिखाई दे रही है. चमकती हुयी.

इसके नीचे दूसरी रोटी है, जो लगभग पहली रोटी के नीचे 20 प्रतिशत दबी हुयी है.

तीसरी रोटी पहली और दूसरी के नीचे दबी हुयी है. तीसरी रोटी की स्थिति ये है कि वह ठीक से पड़ी नहीं है, मतलब मुड़ी है और दबी है. अर्थात पूरी तरह गोल दिखाई नहीं दे रही.... गोल बनी तो थी लेकिन अभी पटरी पर है और मुड़ी है और अन्य दो रोटी के नीचे दबी है.

अब बात करते हैं चौथी रोटी की. ये चौथी रोटी दूसरी और तीसरी रोटी के नीचे दबी है. 
हालांकि ये जो चौथी रोटी है ये फ़िलहाल सिर्फ दूसरी और तीसरी रोटी के ही नीचे दबी है.... पहली रोटी के दवाब में बिल्कुल नहीं है... और पहली रोटी के नीचे होने से पूर्ण रूप से स्वतंत्र है.



आखिर कैसे


खेतों में हम रहे, तेरा भरा पेट कैसे ?
मेहनत करी हमने, तू धन्ना सेठ कैसे ?
एक गेहूँ मेरा, एक गेहूँ तेरा
अनाज सबका एक तो फिर दोहरा रेट कैसे ?
खेत जोते, बीज बोया, पानी दिया मैंने
सल मेरी कह रही, तेरी जमीन कैसे ?

 एक जोड़ी कपड़ा पहना, विचार ऊँचा रखा हमने
गर सोच तेरी काली, तो सफ़ेद लिबाज़ कैसे ?
रोका तूने, टोका तूने, दिया नहीं कोई मौका तूने
लेकिन अब जो चल गया, रुकेगा ये आगाज कैसे ?

काम करूं दिन रात, बनती नहीं कोई बात
मेरे पास फटी धोती, तेरे पास कोट कैसे ?
धोखा खाया हर बार, भरोसा किया हर बार
वादा पूरा किया नहीं, तुझे दे दूं वोट कैसे ?

तूने बोला काम कर, आराम को हराम कर
अब चलने की बीमारी है, तो करूं पैर जाम कैसे ?
पढ़ने हमको दिया नहीं, किताब हाथ लिया नहीं
ज्ञान का सूरज तो अब निकला है, फिर अभी शाम कैसे ?

माना ये जमीन तेरी, लेकिन सारी मेहनत मेरी
बाँटने की बारी आई, तेरा पलड़ा नीचा कैसे ?
दया भावना कुछ भी नहीं, दुआ कामना कुछ भी नहीं
दिल इतना छोटा है तो, फिर तू अमीर कैसे ?

 सब कुछ तेरे हाथ में था, हर कोई तेरे साथ में था
जमीर आखिर बेच दिया, होगी नैया पार कैसे ?
उसने बोला आंखे खोल, कब समझेगा सच का मोल
फिर हमने आवाज उठाई, अब गद्दार कैसे ?
  
दिल ने कहा सवाल कर, वापस मेरा माल कर
अभी तो सिर्फ नजरें मिलायीं, तुझमें ये उबाल कैसे ?
मिट्टी से आकार दिया, सपना तेरा साकार किया
अब जब अंदर जा नहीं सकते, तो खुला दरबार कैसे ?


वो बोली अम्मा भात, वो बोली घर पहुंचा दो लगा आघात
अब भी नहीं आये तो, ऐसे भगवान् कैसे ?

-(बृजेन्द्र कुमार वर्मा )





मंगलवार, मई 05, 2020

बंटवारे के दिन

कविता 
उसके विचार ऊँचे थे
उसके सिद्धांत ऊँचे थे
उसकी सोच ऊँची थी
उसकी सीख ऊँची थी
उसका ज्ञान ऊँचा था
शायद इसीलिए
बंटवारे के दिन
पलड़ा उसका ऊँचा था

-बृजेन्द्र कुमार वर्मा 

सोशल मीडिया.... कृपया जागरूक हों

गलत लोगों से जुड़े कुछ लोग गलत लोगों के द्वारा भेजे फेक वीडियो सन्देश को लेते हैं फिर बाद में कहते हैं, सोशल मीडिया फेक न्यूज़ दे रहा है.
ये वैसा ही है... जैसे पत्नी खाना बनाते समय नामक सब्जी में भर दे और दोष दे दिया जाए गेस चूल्हे को जिसके कारण वो सब्जी पकी है.
अजीब है, जब आप गलत लोगों से जुड़कर गलत वीडियो प्राप्त कर रहे हो तो ऐसे लोगों से तत्काल दूर हट जाना चाहिए. या फिर भेजने वाले व्यक्ति से उसी समय भेजे गये वीडियो या सन्देश का रिफरेन्स पूछा जाना चाहिए.
यदि ये सब आप नहीं कर सकते तो बेवजह सोशल मीडिया पर सवाल उठाना ठीक नहीं.
बन्दूक का इस्तेमाल सरहद पर रक्षा करने के लिए कर लो या फिर समाज में ही चला चला के अपने लोगों को मारों... इसमें बन्दूक की गलती नहीं... चलाने वाले की है.
मेरा पुरजोर सुझाव है... जो भी गलत वीडियो भेज रहे हैं... उन्हें उस माध्यम से तुरंत ब्लोक कर दें... या फिर गलत जानकारी भेजने वाले की जानकारी प्रसाशन को दें. अपनी जिम्मेदारी निभाए.. सोशल मीडिया को बदनाम न करें.
कृपया जागरूक हों 

बदलती परिभाषा की परिकल्पना

वैसे तो अर्थशास्त्र में विकसित और विकासशील की अलग परिभाषा है, लेकिन कोरोना वायरस 19 ने यानि के एक बीमारी ने परिभाषा को पलट के रख दिया.
अर्थशास्त्र में विकसित मतलब हर तरह की बेहतर सुविधायें. पैसा ही पैसा
और विकासशील का मतलब बेहतर सुविधाओं के लिए संघर्ष.
लेकिन #covid19 ने परिभाषा को बदल दिया.
covid19 के अनुसार विकासशील मतलब जहाँ कम मौतें हो रही हैं और
covid19 के अनुसार विकसित मतलब लाशों का अम्बार, लाशें ही लाशें. रखने को जगह नहीं.

बंटाई

कविता 

  बंटाई  


फसल काट ली 
बोरों में भर ली 
बंटवारे की बात आई 
जिसकी जितनी क्षमता थी
उतनी बोरे रखने की आज़ादी 
मेहनत करने वाले ने अपना झोपड़ा खोला 
जमीन वाले ने अपना महल 
-बृजेन्द्र कुमार वर्मा 

शुक्रवार, मई 01, 2020

फेसबुक पर ऑनलाइन जुड़ाव नया आईडिया नहीं है

कुछ लोग दावा कर रहे हैं कि ऑनलाइन जुड़ाव नया आईडिया है.
नहीं भाई, फेसबुक पर "उस तरह" के लोग "उस तरह" के लोगों के लिए कई बार और कई साल से ऑनलाइन मीटिंग कर रहे हैं, जिसमें कुछ "उस तरह" के कर्मचारियों को बैठा दिया जाता है और घंटों बात चीत होती रहती है... सवाल जवाब चलते रहते हैं.
हालाँकि ये लोग, राजनीती, विकास, अर्थव्यवस्था आदि पर बात नहीं करते. लेकिन हां ज्ञान जरूर देते हैं.
क्राइम ब्रांच अधिकतर ऐसे लोगों पर नजर रखता है. देश में कई सालों से ह्यूमन ट्रेफिकिंग का सिलसिला जारी है. इन सब को आपस में जोड़ने की कोशिश कीजिये तो पता चल जायेगा. ऑनलाइन कब से और किस बारे में होती आ रही है.

और अंत में
फेसबुक पर ऑनलाइन गेदरिंग नई नहीं है. इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा, की देश में नई से नई तकनिकी का, शुरूआती दौर में गलत वर्ग के लोग ही उपयोग करने लगते हैं, सही उपयोग तो दैर में शुरू होता है .
तभी तो कहावत बनी है, देर आये दुरुस्त आये. 

मंगलवार, अप्रैल 28, 2020

क्यों ख़राब हो रही है सोशल मीडिया की छवि ?

सोशल मीडिया की छवि को जबरन खराब बनाया जाता है, क्योंकि वे जानते हैं यदि सोशल मीडिया को दबाया नहीं गया तो यही सोशल मीडिया सच की ऐसी दीवारे कड़ी कर सकता है जिसे गिरा पाना नामुमकिन हो जाएगा. जो काम आज सोशल मीडिया कर रहा है, वही का आज से पहले 20वीं शदाब्दी के शुरू के दशकों में प्रेस कर रहा था. जब उन पर रोक लगा दी जाती तो चुपचाप प्रेस चलाया जाता और छुपे छुपे पत्र एवं लेख एक जगह से दूसरी जगह भेजे जाते. लोगो को जागरूक करने की मुहीम हमेशा से चलती रही और चलती रहेगी.

वर्तमान में भी सोशल मीडिया पर सवाल उठाते हैं, इस माध्यम को बदनाम करते हैं, ताकि लोगो को जागरूक न किया जा सके. एक और कारण है, आजकल टेलीविजन पर समाचार कम देखे जाने लगे है और सोशल मीडिया पर आने वाले सूचना दायक वीडियो ज्यादा देखे जाते हैं, ऐसे में जो मुख्यधारा का मीडिया सूचना को तोड़ता मरोड़ता है तो आम जन को सोशल मीडिया से मिली सूचना से तुलना करके उस मुख्यधारा के मीडिया की सच्चाई पता चल जाती है और लोग देखना कम कर देते हैं, ऐसे में उस मीडिया की TRP प्रभावित होती है.

आज कल कुछ न्यूज़ चैनल, सोशल मीडिया के कुछ संदेशो की सच्चाई, जांच पड़ताल आदि जैसे कार्यक्रम कर बताते हैं कि सोशल मीडिया पर कैसे फेक न्यूज आ रही हैं..... पर वे लोगों को जिन्दा जलाने वाले वीडियों, या महिला पुरुष को भगा भगा के मारने वाले वीडियो की जांच पड़ताल नहीं करते... क्योंकि वे सरकार के इशारों पर काम करते हैं और सरकार की हो सकने वाली बदनामी वाले सो० मि० के संदेशों की जांच नहीं करते.
इससे कहा जा सकता है कहीं तो सोशल मीडिया को दबाने का प्रयास किया जा रहा है. 

इस बात से नकारा नहीं जा सकता कि सोशल मीडिया का दुरूपयोग भी तेजी से बढ़ा है. इसके लिए आम जन उपयोग करता को आना होगा. हर आने वाले मेसज के बारे में तर्क करना होगा. ताकि दुरूपयोग को रोका जासके. 

आप सोशल मीडिया को दूसरे तरह से भी समझ सकते हैं, जिस समय मुख्यधारा के चैनल विदेश की बातें, पडोसी देश के कारनामे दिखाए जाएँ तो उस समय आप अपना सोशल मीडिया पर आ रहे संदेशों पर ध्यान दें... आपको पता चल जाएगा... न्यूज़ चैनल विदेश की बातें क्यों कर रहे हैं... और सोशल मीडिया क्या बता रहा है. 
सोशल मीडिया का उपयोग करने वालों को एक बात से सचेत रहना होगा की वे किसी गलत मकसद से आने वाले संदेशो से बचे एवं उस व्यक्ति से तत्काल हट जाएँ या ग्रुप से रिमूव कर दें जो अनैतिक बात कर रहा है, धार्मिक द्वेष फैलाने की कोशिश कर रहा है. समझदारी से लिए गये निर्णय से आप सोशल मीडिया को भी बचा सकते हैं और इसकी छवि को भी. 

सोशल मीडिया पर सवाल उठाना कितना सही ?

जो छात्र छात्राएं उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं या कर चुके हैं, शिक्षक बनना चाहते हैं या बन चुके हैं, वे हो सके तो अपना अध्ययन शेयर करें, उन्होंने क्या विशेष सीखा जो वे समाज को देना चाहते हैं. 

अभी तमाम लोग सोशल मीडिया से जुड़े हैं, ऐसे में ज्ञानार्जन कर रहे विद्यार्थी अपनी कोई विशेष योगता शेयर कर लोगों को ज्ञान विज्ञान आदि की जानकारी दे सकते हैं. समाज के आधी जनता भी चाहे तो सोशल मीडिया का उच्चतम उपयोग किया जा सकता है. सिर्फ ये कह देना की सोशल मीडिया जहर फैला रहा है... फलां फलां कर रहा है, इससे कुछ नहीं होगा. 

सोशल मेदिय अभी कोरे कागज की तरह होता है. आप उस पर कुछ भी शेयर कर सकते हैं. जैसे एक कलाकार, केनवास पर कुछ भी चित्र उकेर सकता है, जैसे कुम्हार मिट्टी से कोई भी बर्तन बना सकता है, ऐसे भी सोशल मिडिया का उपयोग उपयोगकर्ता कैसे भी कर सकता है... ज्ञान वर्धक जानकारी देकर या फिर जहरीली बातें शेयर करके.... आप माध्यम को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते... माध्यम को उपयोग करने वालो पर सवाल जरूर उठा सकते हैं.

जैसे, युद्ध में बन्दूक से दुश्मन को मारे तो सही लेकिन उसी बन्दूक से किसी अन्य को मार दें तो इसमें बन्दूक पर सवाल नहीं उठा सकते. वह तो सिर्फ एक उपकरण है. बिलकुल इसी तरह से आप सोशल मीडिया पर सवाल नहीं उठा सकते क्योंकि ये एक माध्यम है लोगो से, समूह से जुड़ने का. अब चाहे इसका सही उपयोग किया जाए या गलत. 

रविवार, अप्रैल 12, 2020

"social distancing" शब्द होना चाहिए या "physical distancing"


क्या सच में "social distancing" शब्द होना चाहिए या "physical distancing" covid-19 वायरस ने लोगों के बीच दूरी बना दी है, जिन्दा रहना है तो दूर रहना ही पड़ेगा, सामाजिकता तो वो प्यार मोहब्ब्बत है जो भारत में न कभी खत्म हुयीं न होगी.
हजारों सालों से मनुष्य ने दुनिया पर राज किया और ऐतिहासिक विकास किया है. मनुष्य ने इतना विकास कर लिया है कि कई वैज्ञानिकों ने तो अब ये ढूँढना शुरू कर दिया है की मनुष्य ने अपना विकास आखिर कहाँ से शुरू किया था. खेर ये तो बातें बाद में करेंगे. अब वापस आते हैं टॉपिक पर. किसी भी राष्ट्र में मीडिया के खासी महत्वपूर्ण भूमिका होती है. और इसका गंभीरता को समझना पड़ेगा.
शुरू में अमेरिका भी कोरोना को मजाक में ले रहा था और चीन पर मजाकिया टिप्पणियां कर रहा था, आज अमेरिका कोरोना से विश्व में सबसे अधिक प्रभावित है.
इस बीच भारत में "सामाजिक दूरी" पर जोर दिया जा रहा है, भारत हजारो वर्षों से बहुत ही सोम्य रहा है, इसका फायदा अक्सर विदेशियों ने उठाया और कई बार भारत को गुलाम बनाने का प्रयास किया. असल में भारत की यही सोम्यता और सहजता उसके लिए शक्ति भी साबित होती है. तमाम कोशिशों के बावजूद लोगों ने समाज से दूरी नहीं बनायी, हाँ शारीरिक दूरी बनायी हुई है क्योंकि कोरोना वायरस 19 को हराना है. हमारे वरिष्ठ चिंतकों को सोचना होगा और अपील भी करनी होगी कि शरीरिक दूरी बनानी है न कि सामाजिक दूरी. सामाजिकता तो मनुष्य के रहन सहन, खान पान, पहनावा, बोल चाल, व्यवहारिक जुड़ाव, विभिन्न परम्पराओं के अनुसार तय होती है, जो फ़िलहाल कोरोना से प्रभावित नहीं है, प्रभावित है तो वो है स्वास्थ्य.
आज भी लोगों का व्यवहार वैसा ही है जैसा कोरोना के फैलने से पहले था... जहर फैलाने वाले कोरोना से पहले भी किसी न किसी विषय को लेकर जहर फैला रहे थे सो आज भी फैला रहे हैं.
अपना ध्यान रखें. सुरक्षित रहें. दूसरों को भी सुरक्षित रखें.

गुरुवार, अप्रैल 02, 2020

देश के हर जिले में हो "जिला पत्रकार अधिकारी"

जैसे हर जिले में हर विभाग का सबसे बड़ा अधिकारी होता है, अब वैसे ही पत्रकारिता के स्तर को ठीक करने के लिए एक जिले का जिला पत्रकार अधिकारी बनाने की जरूरत है जो सीधे केंद्र का प्रतिनिधित्व करे. जैसे जिला कलेक्ट्रेट, जिला शिक्षा अधिकारी, जिला आबकारी अधिकारी, जिला स्वास्थ्य अधिकारी, जिला आपूर्ति अधिकारी, जिला विद्युत् अधिकारी आदि, वैसे ही अब जरूरत है कि पत्रकारिता में भी जिला स्तर कर सबसे बड़ा पद का सर्जन किया जाए जो जिला पत्रकार अधिकारी हो, जिसकी जिम्मेवारी प्रेस और मीडिया से संबधित सभी कार्यों की जिम्मेवारी हो.

एक महत्वपूर्ण निर्णय प्रेस से सम्बंधित यह भी लेना होगा कि प्रेस से संबधित हर क्षेत्र में सरकारी/प्राइवेट नौकरियों कासृजन किया जाए. देश सभी जिलों में जिला प्रत्रकार हो. इसकी जिम्मेवारी होगी की यह जिले से प्रकाशित हर खबर पर नजर रखे और यदि कोई पत्रकार गलत  खबर लिखता है या अन्धविश्वासी खबर हो तो तत्काल उस पर कार्यवाही कर सके. उसे बर्खास्त कर सके. उसका वेतन रोकना आदि जैसे अधिकार उसे प्राप्त हों.  अभी इस तरह की जिम्मेवारी जिला कलेक्टर के पास है. 

जिले का जिम्मेवार हो 
जब जिले में आपूर्ति सम्बन्धी कोई कमी होती है या शिकायत होती है तो जिले का आपूर्ति विभाग का जिला अधिकारी कार्यवाही करता है, जब किसी स्कूल में कोई घटना घटती है तो उसका जिम्मेवार जिला शिक्षा अधिकारी होता है. ऐसे ही अब जिला पत्रकार अधिकारी होना चाहिए जो जिले के प्रत्येक पत्रकार का और उसकी ख़बरों का जिम्मेवार हो. 

देश के हर जिले के हर विभाग में एक पत्रकार हो 
अब वक़्त आ गया कि जिले में कार्यरत हर विभाग में एक पत्रकार की पोस्ट होनी ही चाहिए. इससे होगा ये तमाम सूचनाओं से संबधित कार्य विभाग का पत्रकार करेगा. अभी होता ये है की बिजली कट गयी तो फ़ोन बिजली विभाग के सीधे अधिकारी को कर देते हैं, जबकि अधिकारी से पास पहले से ही बहुत काम होता है, ये अधिकारी अपना विषय पढ़कर आते हैं, जनसंचार की पढाई करने वाला ही जानता है कि जनता से जन संचार कैसे किया जाए. 

आज कल अधकारियों के प्रति, पुलिस के प्रति, राजनेताओं के प्रति जनता में अराजकता का भाव आ रहा है. यह और कुछ नहीं, सिर्फ और सिर्फ जन संचारकों की कमी की वजह से है. 

मंत्री, सांसद, विधायक को दिया जाए पत्रकार
हर मंत्री, सांसद, विधायक की टीम में सरकारी मीडिया कर्मी होना चाहिए जिसके पास जन संचार की डिग्री हो, जो जनता और जन प्रतिनिधि के बीच में पुल का काम करे. अभी तक यह काम वे लोग करते हैं जो जन संचार को कभी पढ़े भी नहीं होंगे. ऐसे में जन प्रतिनिधि और जनता के बीच जो खायी है उसे भरना बहुत मुश्किल है, जनता अपने जनप्रतिनिधि से मिल नहीं पाती, इस खायी को सिर्फ एक पत्रकार ही भर सकता है. एक विकासशील देश के लिए ऐसी खायी विकास में बड़ी रुकावट की तरह है. 

सूचना एवं जनसंपर्क विभाग नाकाफी 
हमारे देश में हर जिले में, बाकी तीनो स्तंभों से जुड़े अधिकारी/प्रतिनिधि मिलते हैं लेकिन, विभागों में पत्रकार नहीं मिलते. हालाँकि जिले में जनसंपर्क विभाग होता है, जिसे देश की 3 तिहाई आबादी जानती तक नहीं. और बाकी विभागों में जनसंपर्क विभाग वह व्यक्ति संभालता है जिसने कभी जन संपर्क नहीं पढ़ा होता. रेलवे, बस अड्डे में जाइये और उनके बात करने का लहजा देखिये और उसे रिकॉर्ड करके लोगों को सुनाइए और चर्चा कीजिये. अस्पतालों में भी जनसंपर्क का काम कोई डॉक्टर ही देखता है. ऐसे में प्रेस की गंभीरता को समझना चाहिए. हालांकि कई जगह अब एक पोस्ट के लिए पत्रकारिता में डिग्री मांगने लगे है, लेकिन ये क्षद्म स्तर पर ही है. 

प्रेस/मिडिया में भर्ती के समय नहीं होती मानसिक परीक्षा
जब आई0आई0टी0, आई0आई0एम० या छोटे संस्थानों से भी कोई प्लेसमेंट होता है तो उनका फिटनेस सर्टिफिकेट भी माँगा जाता है. लेकिन अख़बारों और मीडिया में ऐसा देखने को नहीं मिलता. जबकि प्रेस/मीडिया में जिसे नौकरी दी जा रही है उसका मानसिक संतुलन अवश्य चेक करना चाहिए. हमारे देश की जनसँख्या 1,30,00,00,000 से भी ज्यादा है, ऐसे में यहाँ के पत्रकारों की मानसिक स्थिति कैसी है इसका विशेष ध्यान रखना चाहिए.  क्योंकि इसका सीध असर देश पर ही पड़ता है.

समय समय पर हो पत्रकारों की काउन्सलिंग 
आपने सुना होगा समय समय पर अधिकारीयों के लिए कार्यशाला आयोजित की जाती है, जिसमें उन्हें उनके काम के दवाब के साथ कैसे समायोजन करना है, अपना ध्यान रखना है आदि सिखाया जाता है. लेकिन पत्रकारिता में ऐसा शायद ही कहीं होता हो. अभी हाल ही में दलित दस्तक के सम्पादक ने भरत रत्न बाबा साहेब डॉ भीम राव अम्बेडकर के प्रथम अख़बार "मूकनायक" एक 100 वर्ष पूरे होने पर आयोजन किया था, जिसमे देश भर के पत्रकार, समाज चिंतक आदि को आमंत्रित किया गया था, जिसमें पत्रकारिता से सम्बंधित चर्चा भी हुयी. कई राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय अखबार समय समय पर कार्यक्रम आयोजित करती है जिसमें आम जनता की भी सहभागिता होती है लेकिन, देखा जाए तो विशेष तौर पर सिर्फ पत्रकारों से सम्बंधित कोई विशेष कार्यक्रम आयोजित नहीं किया जाता जिसमें उनके स्वास्थ्य सम्बन्धी, मानसिक या किसी भी प्रकार की काउंसलिंग नहीं की जाती. सवा सौ करोड़ की जनता के लिए विभिन्न राज्यों में विभिन्न अखबार प्रकाशित न्यूज़ चैनल प्रसारित किये जा रहे हैं, लेकिन उनके लिए काम करने वालो की परिस्थितियों पर किसी प्रकार की चर्चा नहीं होती.

पत्रकार अब समाजसेवी नहीं एक पद है. 
ऐसा इसलिए है कि अभी तक पत्रकार को समाज सेवी समझा जा रहा है, लेकिन भारत के वैश्विक होने के बाद अब ऐसा नहीं रहा. पत्रकार भी किसी न किसी संसथान से जुड़ा होता है, जिसमें किसी कंपनी की तरह के ही नियम लागू होते हैं. जैसे एक कर्मचारी एक कंपनी में काम करता है तो वह दूसरी कंपनी में काम नहीं कर सकता. दोहरी आमदनी का काम नहीं करेगा. कंपनी में किये जाने वाले काम की जानकारी सार्वजनिक नहीं करेगा आदि. इसी तरह से पत्रकार पर भी कुछ नियम लागू होते हैं, वह अपने संस्थान के लिए लिखी खबर को अन्य अखबार को न देगा, न बेचेगा. दो अखबारों में काम नहीं कर सकता. पत्रकारिता की नौकरी के साथ कोई अन्य काम नहीं कर सकता. टैक्स के दायरे में आएगा.
अब जबकि एक पत्रकार कानूनी नियमों का पालन कर रहा है तो उसे समाज सेवी नहीं समझना चाहिए. उसकी एक पोस्ट होती है, उसका भी प्रोमोशन होता है, यदि कोई समाज सेवी है तो वह आजीवन समाज सेवी ही रहेगा. समाजसेवियों का कोई प्रोमोशन नहीं होता. तमाम तर्क यह सिद्ध करते हैं की पत्रकार को समाज सेवी नहीं मन जाना चाहिए, वह एक व्यावसायिक नौकरी (प्रोफेशनल जॉब) है, जिसमें काम के बदले निर्धारित आय प्राप्त होती है. पत्रकार के पास अपे संस्थान का पहचान पत्र (आई0डी0) होता है, जैसे अन्य कंपनी अपने कर्मचारी को देती हैं. वह भी टैक्स भरता है.

पत्रकरों की भी लिखी जानी चाहिए CR 
जिस तरह से तमाम अधिकारियों की CR (चरित्र रजिस्टर) लिखी जाती है, बिल्कुल वैसे ही पत्रकारों की CR लिखी जानी चाहिए, इससे उनमें डर बना रहेगा कि गलत खबर दिखाने पर उनके चरित्र पर क्या प्रभाव पड़ेगा. एक दो अख़बारों को छोड़ दिया जाए तो शायद ही कोई अख़बार गलती प्रकाशित हो जाने पर माफ़ी मांगता है.
जिस देश में धार्मिक कट्टरता, पाखण्डवाद, सैकड़ों जातियां, अन्धविश्वास जैसी चीजों से जड़ें जमा रखी हों, वहां एक छोटी सी गलती नरसंहार, दंगे, झगड़े-फसाद, जातिगत हिंसा आदि करवा देती है, जिसके कई उदहारण हमारे सामने हैं.  ऐसे में पत्रकारिता की जिम्मेवारी बहुत ही गंभीर हो जाती है.

नये प्रेस आयोग की हो स्थापना 
भारत की आज़ादी के कुछ समय बाद 1952 में प्रेस आयोग की स्थापना की गयी थी, फिर 1978 में, जिसे दोबारा गठित किया 1980 में. ऐसे में 40 साल हो रहे हैं.
इन चालीस सालों में 2 पीढ़ी जवान हो गयीं हैं, टीवी रंगीन हो गये हैं, अख़बारों के पन्ने बढ़ गये, छपाई की गुणवत्ता बेहतर हो गयी, रेडियो में एफ0एम0 भी जुड़ गया, तकनीकी जबर्दस्त तरीके से फैली. हर काम कंप्यूटर से होए लगे. मोबाइल के रूप में दुनिया मुट्ठी में आ गयी. भारत खुली अर्थव्यवस्था बन गया.
इतना सब कुछ बदल जाने के बाद अब नये प्रेस आयोग का गठन होना जरूरी हो गया है. जीवन का तरीका बदला है, नजरिया बदला है, पहनावा, खान पान, व्यवहार आदि में भी परिवर्तन है ऐसे में पत्रकारिता भी बदली है.
इस बदली पत्रकारिता के लिए नये आयोग को आना चाहिए और नये ज़माने और लगातार परिवर्तित होती तकनीकी के अनुसार नियमन कर करना चाहिए.



सोमवार, मार्च 30, 2020

पत्रकारिता को 10वीं 12वीं में क्यों पढ़ाया जाय

संविधान के चार स्तम्भ हैं और माध्यमिक और उच्च माध्यमिक में सिर्फ 3 स्तंभों (न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका) बारे में कुछ न कुछ पढ़ाया ही जाता है, लेकिन जब बात आती है चौथे स्तम्भ  पत्रकारिता की तो इसकी तरफ कोई ध्यान नहीं जाता, जबकि चौथा स्तम्भ असीम संभावनाओं का भण्डार है.

जबकि होना ये चाहिए कि देश में सबसे अधिक पढाई और सजगता इस स्तम्भ के प्रति होनी चाहिए. प्रेस को फ्री कर देने से इसका नाजायज फायदा भी उठाया जाता है जो आजादी के बाद से होता आ रहा है. सर्वाधिक विविधता प्रेस के पाठ्यक्रम को लेकर होनी चाहिए. प्रेस की पढाई माध्यमिक से जरूर शुरू कर देनी चाहिए. उच्च माध्यमिक में और विविधता के साथ पढ़ाया जाना चाहिए, विषय के रूप में पढ़ाये तो और अच्छे निष्कर्ष आयेंगे.
चूँकि, प्रेस की पढ़ाई स्नातक से होती है तो ऐसे में प्रेस के पाठ्यक्रम से जुड़ाव जल्दी नहीं होता, प्रेस का पाठ्यक्रम भी बहुत छोटा और दूसरे विषयों से लिए उधार पर टिका होता है, ऐसे में प्रेस की जो गंभीरता आनी चाहिए वह आ नहीं पाती.
करोड़ों की जनसँख्या वाले भारत देश में प्रेस/मीडिया में अन्धविश्वास या आध्यात्म ज्यादा दिखाई देता है और विज्ञानं की कमी देखी जाती है. आज भी भारत में तमाम न्यूज़ चैनल ऐसे हैं जो भविष्य फल, धार्मिक स्थलों का रहस्य, धार्मिक प्रवचन आदि दिखाते हैं, जबकि उतनी मात्रा में संविधान या क़ानून की जानकारी या विज्ञान या तकनीकी की जानकारी वाली सामग्री नहीं होती. 

असल में इस तरह की कमी उनकी सोच और नजरिये की वजह से है, उनकी पत्रकारिता की पढाई या फिर प्रेस के प्रति जिम्मेदारी का अहसास उनके पाठ्यक्रम में कराया ही नहीं गया. प्रेस को बहुत ही छोटा मान लिया गया. देश के किसी पाठ्यक्रम को इस तरह नहीं बनाया गया जिससे प्रेस और संचार क्षमता की गंभीरता और उसके प्रतिफल को समझा सके. 

लगभग सभी संस्थानों को सिर्फ और सिर्फ अपना पाठ्यक्रम पूरा करके नौकरी दिलवानी है ताकि "कैम्पस प्लेसमेंट" दिखाकर और बच्चों को प्रवेश के लिए ललचा सकें. 

पत्रकारिता किसी भी देश की रीढ़ होती है. यदि संचार गलत किया गया, तो देश की विचारधारा भी वैसी ही बनेगी. किसी राष्ट्र का विकास वहां मौजूद पत्रकारिता (प्रेस/मीडिया) की कार्पयप्ररणाली पर निर्भर करता है.  

गंभीरता से लिया जाए तो प्रेस की पढ़ाई माध्यमिक स्तर से ही शुरू कर देनी चाहिए. छात्र जितना जागरूक होंगे, उतना ही प्रेस को निखारा जा सकेगा. जुझारू छात्र इस ओर आएंगे और प्रेस की भी यही मांग होती है.