सीखने के लिए मैंने हर जख्म सींचे हैं, पढ़ना है दर्द मेरा तो सब लिंक नीचे हैं

शनिवार, सितंबर 19, 2015

मीडिया आखिर करे तो करे क्या ?

डेंगू का कहर इन दिनों जोरों पर है. हर जगह लोगों में एक दर पैदा हो गया है. स्थिति ये है, कि सरकार को स्वयं कहना पड़ रहा है कि डरने की जरूरत नहीं, डेंगू का इलाज है. अगर डेंगू कि खबरों कि बात करें तो मीडिया इन दिनों भारी दवाब से गुजर रहा है. बात ये नहीं कि मीडिया डेंगू के मरीजों की बढ़ती संख्या को दिखा रहा है या अस्पतालों की खस्ता हालत को बयाँ कर रहा है और डेंगू के डर को फैला रहा है या उसकी रोकथाम में अपने भूमिका दर्ज करा रहा है. बात ये भी है, कि आखिर जो भी खबरें मीडिया में प्रकाशित या प्रसारित की जा रही हैं, उनका असर लोगों पर क्या पड़ रहा है?

एक ओर, एक पाठक, एक ही अख़बार पढ़कर डेंगू की भयावय स्थिति को जानता है और वहीं दूसरी ओर, उसी अखबार में सरकारी विज्ञापन, ये सन्देश देता दिखाई देता है कि डेंगू से डरने की जरूरत नहीं, दहशत में आने की जरूरत नहीं है. अब ऐसे में पाठक समझ ही नहीं पाता कि आखिर अखबार कहना या बताना क्या चाहता है? कई बार पाठक द्वारा ये तय करना मुश्किल हो जाता है कि आखिर भारत में प्रकशित हो रहे अखबारों का मूल उद्देश्य क्या है? क्या उनका मूल उद्देश्य सूचनाओं को प्रेषित करना है या विज्ञापन प्रकाशन के चलते धन कमाना?

पिछले कुछ दिनों से अखबारों में डेंगू की स्थिति पर अच्छा कवरेज हुआ है. हर दिन डेंगू के बढ़ते मरीजों के अलावा, अस्पतालों के हाल तक बयाँ किये जा रहे हैं. आलम ये है कि लोग डेंगू से जुडी ख़बरों को पढ़कर डरने लगे हैं. क्यूंकि आये दिन डेंगू के बुखार से लोग मर रहे हैं. सरकारी चिकित्सालयों में मरीजों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ने से सबको सही तरह से इलाज़ नहीं मिल पा रहा है. खबरें ये भी आयीं हैं कि छोटे-छोटे बच्चे डेंगू कि चपेट में आये, बुखार हुआ और डेंगू का पता लगते ही 48 घंटों में ही उनकी मौत हो गयी. इस तरह की खबरों को पढ़कर शायद ही कोई पाठक होगा जो सहमा नहीं होगा या कहें, दहशत में नहीं आया होगा. एक तो सरकार डेंगू के मरीजों को सही समय पर वांछित उपचार और आराम नहीं दे पा रही है, क्यूंकि डेंगू के मरीजों की संख्या इतनी ज्यादा है कि डेंगू के सकारात्मक या नकारात्मक होने की रिपोर्ट सही समय पर नहीं मिल पा रही है, और जब तक रिपोर्ट आती है तब तक मरीज की हालत और बिगड़ जाती है. हाल ही में खबर मिली कि डेंगू के टेस्ट की फीस भी बारह सौ से पंद्रह सौ तक पहुँच गई है. निजी अस्पतालों की तो बल्ले बल्ले हो रही है आजकल. 

स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है, मरीजों को सरकारी अस्पतालों में बिस्तर तक नसीब नहीं हो पा रहा है, किसी का उपचार फर्श पर लिटाकर किया जा रहा है तो किसी को जमीन पर लेटने के लिए जगह तक नसीब नहीं. हर पाठक इन परिस्थितियों से वाकिफ हो रहा है. अब बात आती है, कि इस तरह की ख़बरों का पाठकों या कहें जनता पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, तो बड़े आसानी से इसका जवाब मिल जाएगा कि लोग अब दहशत में आने लगे हैं. डेंगू जिस कदर लोगों को उनके परिजनों से हमेशा हमेशा के लिए दूर कर रहा है, इस तरह की खबरों से हर कोई हैरान-परेशान हो चुका है. अब पाठक अखबार में डेंगू की स्थिति जानने के लिए अख़बार नहीं पढ़ रहा, अब पाठक सिर्फ रोकथाम और सार्थक उपचार को खोज रहा है.

अभी तो हमने सिर्फ एक पक्ष की बात की है. दूसरा पक्ष भी हमें देखना होगा. मीडिया में चाहे खबरों का कुछ भी असर हुआ हो लेकिन, विज्ञापनों के जरिये लोगों तक ऐसी जानकारी पहुंचाई जा रही है, जिससे वे सहमे नहीं और विवेक से काम लें. सरकार द्वारा जारी किये जा रहे विज्ञापनों में डेंगू सम्बन्धी रोकथाम और उपचार के बारे में बताया गया है. अगर एक और खबरों से पाठक भय में भी आया है तो विज्ञापन से मन थोडा बहुत तो हल्का हुआ है.. इसका एक लाभ ये हुआ कि लोगों तक पहुंचकर विज्ञापन ने उन्हें सांत्वना दी है और दूसरी तरफ अखबार को भी विज्ञापन प्रकाशित करने से आर्थिक लाभ पहुंचा. सरकार भी पुरजोर प्रयास कर रही है, पर ये प्रयास डेंगू के कहर के आगे कमजोर नजर आ रहे हैं. सरकार के नुमाइंदों को अब सड़क पर आना ही पड़ेगा. यहाँ आला अधिकारियों को उपचार करने के लिए नहीं कहा जा रहा. यहाँ उनके द्वारा डेंगू को और अधिक न बढ़ने देने और उसकी रोकथाम में अहम् भूमिका निभाने से हैं. जबरन गन्दगी फैलाने वालों पर सख्त कार्यवाही को शुरू करना होगा. जागरूक अभियानों को नये कलेवर के साथ प्रस्तुत करना होगा. "पानी जमा न होने दें" जैसे संदेशों के विज्ञापनों का दौर अब लगभग खत्म हो चुका है. अब वक़्त है ये बताने का कि जब आप आस्तीन में सांप नहीं पालते, ये जानते हुए कि इसके काटने से आदमी की मौत अड़तालीस घंटों में हो सकती है, उसी प्रकार आप अपने घर में रुके हुए पानी में मच्छर कैसे पाल सकते हो, जिसके काटने से भी आदमी की मौत अड़तालीस घंटों में हो सकती है?

शनिवार, सितंबर 12, 2015

ब्रज भाषा पर भ्रम

12 सितम्बर 2015 
हाल ही में हिंदी के सम्बन्ध में एक पुरानी पुस्तक पढने का मौका मिला.
इस पुस्तक में उत्तर प्रदेश के पश्चिमी हिस्से की एक भाषा को लेकर एक अजीब बात लिखी है.

लेखक के अनुसार, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खड़ीबोली से वर्तमान हिंदी और उर्दू कि उत्पत्ति हुई. और दूसरी बोली ब्रज भाषा, पूर्वी हिंदी की बोली अवधी के साथ कुछ काल पूर्व तक साहित्य के क्षेत्र में वर्तमान खड़ीबोली हिंदी का स्थान लिए हुए थी. आगे लिखा उन्होंने, "इन दो बोलियों के अतिरिक्त पश्चिमी हिंदी में और भी कई बोलियाँ सम्मिलित हैं, किन्तु साहित्य की दृष्टि से ये विशेष ध्यान देने योग्य नहीं हैं....."

क्यों साहब, क्यों ध्यान देने योग्य नहीं है???
 ब्रज भाषा ने हिंदी साहित्य को बहुत कुछ दिया है. इसे कोई भी अनदेखा नहीं कर सकता. 
मैं बड़े सम्मान के साथ विरोध करता हूँ लेख का और ये बड़े आदर के साथ बता देना चाहता हूँ, कि वर्तमान में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में केवल खड़ी बोली या अवधी ही नहीं, बल्कि ब्रज ने भी अपनी जड़ें जमाई है. आगरा, मथुरा, फर्रुक्खाबाद, एटा, इटावा, औरैया, कन्नौज, मैनपुरी, फिरोजाबाद और हाथरस जैसे जिलों के आस पास के क्षेत्र में बड़े स्तर पर ब्रज बोली जाती है.

हिंदी विद्वानों ने ब्रज भाषा को सबसे अधिक कोमल भाषा मानी है.
सूरदास, नरोत्तमदास ने इस भाषा में अपनी रचनाओं को लोगों के सामने रखा.
अब बुंदेलखंड में भी बुन्देलखंडी भाषा का बोलबाला बढ़ रहा है, इस क्षेत्र को हम बिल्कुल नकार नहीं सकते. अब तो बुंदेलखंड अपनी अलग पहचान बना चुका है.

इस पुस्तक में बहुत सी जानकारी है जो अध्ययनकर्ता के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती है, परन्तु मुझे इसमें कुछ कमी लगी तो मैंने इस पुस्तक का सन्दर्भ लेकर इसके बारे में अपनी राय दी. 
मैंने आलोचना नहीं की है.
मैंने अपना विचार प्रस्तुत किया है. हो सकता है, लेखक का मंतव्य वो न हो जैसा मैं सोच रहा हूँ. हो सकता हो, लेखन कुछ और अपनी बात कहना चाहता हो... पर मुझे लगा तो मैंने अपनी राय लिखी.