सीखने के लिए मैंने हर जख्म सींचे हैं, पढ़ना है दर्द मेरा तो सब लिंक नीचे हैं

गुरुवार, दिसंबर 18, 2008

मैं नाराज हूँ तुमसे.....


मैं नाराज हूँ तुमसे.....

मैं नाराज हूँ रुखी बयारों से
ऊँची दीवारों से
खेत से
खलियानों से
बड़े पहलवानों से,
हिंदू के मीत से
मुस्लिम की रीत स
मैं नाराज हूँ तुमसे.....

मैं नाराज हूँ किसी के आने से
फिर चले जाने से
बाद में समझाने से,
बातों से
रातों से
इन मुलाकातों से
मैं नाराज हूँ तुमसे.....

मैं नाराज हूँ कलियों से
गलियों से
और उन परियों से
हाँ से
न से
फिर चुप चुप से,
कल से
आज से
आते हुए कल से
मैं नाराज हूँ तुमसे.....

मैं नाराज हूँ गरीबों की रोटी से
अमीरों की 'बोटी' से
आईने से
असली माइने से,
कभी शायद खुदा से
तो अपनी अदा जुदा से
मैं नाराज हूँ तुमसे.....

मैं नाराज हूँ मन्दिर से
मस्जिद से
और अपनी 'इज्जत' से,
नीचाई से
ऊंचाई से
"उनकी" सच्चाई से
मैं नाराज हूँ तुमसे.....

मैं नाराज हूँ अमीरों से
गरीबों से
'दिलकश' मरीजों से
शहादत से
आफताब से
एक खुली किताब से,
दिल से
दान से
और पुण्य 'काम' से,
लाभ से
हानि से
हर बेईमानी से
मैं नाराज हूँ तुमसे.....

हाँ , मैं नाराज हूँ.......... 'तुमसे'.....


(मोमबत्ती 3) इन्हे भी आखिर सिखा ही दिया......


इस तस्वीर को पहले जी भर के देख लीजिये, में इससे बहुत प्रभावित हुआ हूँ।
ये वो फोटो है जो एक प्रतिष्ठित रास्ट्रीय अखबार के सप्लिमेंटरी में गत ९ दिसम्बर,2008 को छपी।

ये बच्चे किसे श्रृन्धांजलि दे रहे हैं शायद ये जानते भी हों , लेकिन तारीफ उस फोटो ग्राफेर की जिसने ये फोटो अपने कैमरे में उतारी होगी । क्या बात है , बच्चे बड़ी खुशी के साथ श्रृन्धांजलि दे रहे हैं ...... और फोटोग्राफ़र ने उस मौके को अपने कैमरे में कैद कर लिया ।

समझ मेरे ये नहीं आ रहा कि बच्चो को श्रृन्धांजलि देने के लिए कहा गया है या फोटो लेने के लिए उन्हें जबरन वहां बैठा दिया गया और जैसे कह दिया हो कि .... बच्चो लो ये मोमबत्ती और इसे पकड़कर वहाँ बैठ जाओ और मैं एक झूठी फोटो ले लेता हूँ...... वो भी मुस्कराते हुए , ताकि उसमे ये दिखे कि बच्चे भी खासा दुखी हैं....... बढ़िया ... खूब ... शानदार कदम ....

लेकिन अब ये देश के छोने (बच्चे) भी सिख गए कि हाँ अब से हमें दिखावा करना होगा तो हम कैसे करेंगे........


इस फोटो को देखने से इतना तो साफ़ जाहिर होता है कि शायद ये फोटो किसी भी शहीद की शहादत में नही होगी।

गुरुवार, दिसंबर 11, 2008

(मोमबत्ती २.) ATS का जवान अस्पताल में : बेहाल कदम

मुंबई पर आतंकी हमलो में घायल हुआ राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (ATS) का एक जाबाज कमांडो ऐ के सिंह अस्पताल में घायल पड़ा है। ये जो मोमबत्ती जलाकर शोक का धकोश्ला कर रहे थे किसी में इतनी हिम्मत नही हो पायी की उसके लिए कुछ करते.....

अब इनकी सद्भावनाएं कहाँ गई ? ये भावनाएं क्या तभी निकलती हैं जब कोई जवान शहीद हो जाता है।
ओबरॉय होटल में १८ वी मंजिल पर श्री सिंह कार्यवाही कर रहे थे तभी आतंकवादी ने उनपर हथगोला फेंक दिया जिससे वे बेहोश हो गए। उनके पूरे शरीर में गोले के छर्रे घुश गए। एक छर्रा उनकी आँख में भी चला गया जिससे उनकी आँख ख़राब हो गई। अस्पताल में बायीं आंख से छर्रा नहीं निकला जा सका । अजीब सी बात लगती है.......

कमाल की बात तो ये है की देश जो कभी मोमबत्ती , तो कभी शांत जुलुश निकल कर श्रृधांजलि दे रहा था अब कहा गायब हो गया.........

और दुःख तो तब होता है जब मोके का फायदा उठाने नेता भी यहाँ झूठी तस्सली देने नही आते। कांग्रेस ने सोचा होगा की शिवराज पाटिल और देशमुख को हटा दिया तो बहुत बड़ा तीर मार दिया। एक भी नेता उन्हें देखने तक नही आया यहाँ तक की उनकी बटालियन के वरिष्ठ अधिकारी भी बिना हाल पूछे दिल्ली लौट गए..... ये है हमारे देश का कदम.....

लगता है हमारे देश वासी भी तभी भावनाएं दिखाते हैं जब या तो आसपास कैमरा होता है या कोई व्यक्तिगत लाभ।
अगर इतना ही आतंकी हमले का दुःख हैं तो मुझे लगता हैं जिस पैसे से मोमबत्ती से शोक या सद्भावनाएं जो भी दिखाते हैं, उसकी जगह इन्हें ऐ. के सिंह जेसे सिपाहियों पर खर्च करना चाहिए।

नहीं तो कहीं ऐसा न हो की सिपाही भी कोताही बरतने लगे ये सोच कर कि, अरे यार ये देश तो हमारी केयर करता नही, तो हम ही क्यों फालतू में झक मराएँ।

मंगलवार, दिसंबर 02, 2008

(मोमबत्ती 1) लो हो गई श्रऋधांजलि पूरी : ऐसे हैं हमारे कदम


ये साधारण सी बात है , जब पता लगे की श्रऋधांजलि उन लोगों ने दी जो असहाय है और कमजोर हैं। जो कुछ कर भी नहीं सकते आतंक के खिलाफ, वो जिन्होंने अपनी शक्तियों से देश चलाने का दारोमदार उन्हें दे दिया जो बुढापे के मारे ख़ुद नही चल सकते।
लेकिन तब कैसा लगेगा, जब ये बात सामने आए की कुछ इसे लोग , जो समाज को एक दिशा देते है, जो जनता का प्रतिनिधित्व करतें हैं उनके सवालों, आशाओं, मांगों को सरकार के सामने रखते हैं साथ ही सरकार को उसका आयना दिखाते हैं , ने भी सिर्फ़ मोमबत्ती जलाकर उनकी शहादत को सलाम कर दिया, और पल्ला झाड़ लिया...... बस बाकि कुछ नही............

मानता हूँ की पत्रकारों को भी इसका बेहद दुःख है। यहाँ तक की द टाईम्स ऑफ़ इंडिया की महिला पत्रकार भी इस हमले का शिकार हो गयीं। अगर पत्रकारों को भी इतना दुःख है तो उनके पास तो लेखनी की सबसे बड़ी ताकत है तो क्यों नही उसका इस्तेमाल करते? और सिस्टम के गलियारों की गंदगी को सामने लाते ? उनको जनता जरूर जवाब देगी चुनाव तो चल ही रहे हैं , लेकिन असल बात तो यह है की पत्रकारों को दुःख ही नहीं।

शायद सब चाहते हैं की सब लोग मोमबत्ती जलाकर शोक प्रकट कर रहे हैं तो क्यों न रूपये-दो रूपये की मोमबत्ती जलाओ और शोक प्रकट कर दो। कल फिर अगर कोई शहीद होगा तो असहाए समाज की तरह फिर कुछ मोमबत्तियां वे "हाथ" जला देंगे जो समाज का आईना अपने पास रखते हैं, जो रखते हैं होंसला समाज बदलने का।

एक बात मेरी बिल्कुल समझ में नही आई कि अगर मेरे हिंद के लोग इतने दुखी हैं तो वो मोमबत्ती जलाकर कैमरे कि तरफ़ मुह किए हुए क्यों थे ? क्या वे अपना दुःख जमाने को दिखना चाहते थे या फिर उन शहीदों के परिवार वालों को? कि ये देखो हमने भी..........
कम से कम कोई एक व्यक्ति तो इधर-उधर खड़ा होता ! रही बात कैमरामैन कि तो वह तो ख़ुद-ब-ख़ुद सबको कवर कर लेता।

मैं सच कहूं तो उनके दुःख को समझ नहीं पाया लोगों कि मोमबत्तियां तेज़ हवा मैं बुझ रही थी, लेकिन उनका उस दुःख माध्यम कि तरफ़ ध्यान न होकर दुःख को कैमरे में दिखाने के प्रति ज्यादा था। मुह कैमरे कि तरफ़ करे खड़े हुए थे ? अगर हेंडसम और ब्यूटीफुल चेहरे आ भी गए तो बुझी मोमबत्ती से क्या दुःख खाक नजर आयेगा ?

शहीदों को मोमबत्ती जलाकर शान्ति नही मिलेगी। वो शदीद ही इसलिए हुए हैं की समाज समझ सके की "दोस्तों हमने अपनी जान दी तुम्हारे लिए , और अब तुम वोट दो 'हमारे 'लिए ........
"। कोई शहीद नही कहता कि उसकी शहादत में मोमबत्तियां जलाई जायें , वो सिर्फ़ इतना चाहता है कि मेरे साथ हुए शहीदों के शहीद होने के कारण को ही जड़ से उखाड़ फैका जाए ताकि अगली बार कोई सिपाही शहीद न हों , माँओं कि गोद सूनी न हों, बच्चे यतीम न हों, कोई विधवा न होने पाए........

शायद मैं ही ग़लत हूँ । ये भी तो हो सकता है, कि मोमबत्ती के साथ दांत बातें हुए दिख जाए बस...... बाद मैं मोमबत्ती जलाकर दुःख प्रकट करते रहेंगे ।

क्या मोमबती पकड़े और अपना चेहरा टीवी पर दिखाना जरूरी है? जिसे दुःख होगा वो अपने को tv पर कभी नही दिखना चाहेगा क्योंकि वो नही चाहेगा कि मेरे दुखी चहरे को देख कर लोग और दुखी हो जायें .......

अभी-अभी मेरा एक दोस्त आया और ऊपर की लाइन पढ़कर मुझे बोलता चला गया, कि अबे ये सब करना भी जरूरी है ताकि आतंकियों को लगे कि वो देश को दुखी करना चाह रहे थे तो सचमुच देश दुखी हो गया है......
अगर हमने ये दिखावा नही किया या हम दुखी नही दिखे , वो फिर से आतंकी हमला कर देंगे ......तू तो जनता ही है अपनी सरकार को चाहे गृह मंत्री नया हो चाहे नही उन्हें जब हमला करना होता है कर देते हैं .......

सोमवार, अक्तूबर 20, 2008

राष्ट्रपति का कुत्ता और हिंदुस्तान :वो एक कदम

कभी किसी देश के राष्ट्रपति का कुत्ता गाँधी जी की समाधि को सूंघता है तो कभी कोई विदेशी निवेशक भारत की खिल्ली उड़ाता हुआ कहता है कि जब रतन टाटा भारतीय मूल के होने के बावजूद प. बंगाल में सफल नहीं हो सकते तो अमेरिकी निवेशक सफल होने कि कैसे उम्मीद कर सकतें हैं।

है तो आख़िर कमाल कि बात कि घर में घुस कर कोई कुत्ता अपने देश के प्रमुख कि रक्षा के लिए हमारे राष्ट्र पिता कि समाधि को सूंघता है और हम कुछ नहीं कर पाते। वो तो अच्छा हुआ कि उस कुत्ते को सुसु नहीं लगी नहीं तो जहाँ उन मानिये श्री कुत्ते जी ने सूंघा है उस जगह को टांग उठा कर गीला करने में देर भी नहीं लगती।

क्या हम उन्हें घूमने के लिए अपनी सुरक्षा के अंतर्गत उन्हें सिक्योरिटी नहीं दे सकते थे ? क्या हमारे सुरक्षा कर्मी उनकी सुरक्षा करने के लायक नहीं थे। कभी-कभी तो ये लगता है कि जैसे हम अमेरिका के पिछलग्गू हैं। इसीलिए तो हम असली हिन्दुस्तानी कहलाते हैं।

अब तो अमेरिकी निवेशक भी खिल्ली उड़ाकर कह देते हैं कि जब भारतीय मूल के निवेशक को इतना सताया जा रहा है तो हमें तो हम क्या सफल होंगे।
पहली बात तो हमे अच्छी तरह मालूम हैं कि उनके निवेश करने का यहाँ क्या प्रयोजन होता है। जितने ये लोग पैदा करे और हम अपने देश में ले जाए चाहे वो आर्थिक हो या फ़िर उत्पादित।
हम इतने ढीट क्यों होते जा रहे हैं। अब हमे इसके खिलाफ भी कदम उठाना होगा ताकि हमारे देश कि कोई युही हँसी न उड़ा पाए ।

शनिवार, अक्तूबर 18, 2008

सांड की जगह भालू क्या करेगा चालू

पहले था सांड अब भालू हावी हो गया है. हो भी क्यों न ? अब स्टॉक एक्स्चेंज का सांड भी तो गधे की तरह लगा रहता है। इसलिए स्वाभाविक हैं की सेंसेक्स तो चढेगा ही। पैसा ही पैसा. लेकिन ये कैसे हुआ की सांड की जगह भालू स्टॉक एक्सचेज कंपनियों की छाती पर चढ़ आया ? सांड और गधे में फर्क नहीं और तो और मुझे अब इस व्यस्त दुनिया मैं आदमी भी गधे की तरह ही नजर आ रहा है। कैसे ? आदमी जब तक ऑफिस में रहता है तब तक गधों की तरह काम करता रहता है। जैसे ही घर पर पहुचता है बीवी बाज़ार से समान लेने की लिस्ट पकड़ा देती है तो बिचारा वो सामान गधों की तरह अपने ऊपर रखकर लाता है. और यदि बच्चे हों तो एक-एक करके उसे गधा बनाकर उसकी पीठ पर चढ़कर खेलते रहते हैं। बेचारा वो गधा ओह्ह ! माफ़ कीजिये वो व्यक्ति गधा ही बनकर रह जाता है। यदि वो पत्नी के अलावा कोई दूसरी महिला पर नजर डाले तो पुब्लिक उसे गधे की तरह मारती है और बाद में गधे पर बैठा कर मुँह काला कर देती है।

हम बात कर रहे थे सांड और भालू की। मंदी की ऐसे स्थिति आ चुकी है कि बेचारा सांड टिके भी कहा तक। ऐसे में भालू को तो हावी होना ही था। अब तो हर तरफ़ भालू ही भालू है। संकट जो है। जहाँ भी देखो मूंह फाड़ के ही नज़र आता है। ऐसे में तो उसे देखकर अच्छे अच्छों कि नस्ल बदलती जा रही है। यहाँ तो फिर भी इंसान कि ही बात है। जो किसी कि इज्जत लूटने के लिए भेड़िया बन जाता है। झूंठी तरक्की पाने के लिए कुत्ता बन जाता है। और जब मनी इन्वेस्ट करने की बार आती है तो भेड़। जब कोई बन्दा कोई साहसी काम करता है तो लोग उसे शेर बोल देते हैं घोम घाम कर बात जानवर पर ही आकर रुक जाती है। अब मैं भी सी पर चिंतन करने में लगा हूँ की आख़िर मनुष्य और जानवर को इतना घनिष्ठ क्यों माना जा रहा है।

आप सोच रहे होंगे की ये गधा भालू और सांड के चक्कर में न जाने कहा की बात किए जा रहा है.

शनिवार, अक्तूबर 11, 2008

मैं भी था तीसरे कदम में -- शहीद जवानी

११ अगस्त आया और चला भी गया पर ये किसी को भी पता नही चल पाया कि इस दिन वो शहीद हो गया था जिसने अभी जवानी में कदम ही रखा था। और जिसकी शहादत के ३९ साल बाद स्वतंत्रता का सूर्योदय हुआ। जी हाँ खुदीराम बॉस जिसे ११ अगस्त १९०८ को फांसी पर चढा दिया गया । वे १८ वर्ष १८ महीने और १८ दिन कि उमर में फांशी चढ़ गए। उनके हांथों में उस समय पवित्र गीता थी और चहरे पर मुस्कान। जब हम गाँधी जी को भूल गए तो ये खुदीराम बॉस क्या चीस है। इसे भी भूलना लाज़मी है। क्यों ? क्यों नही ?........ देश का प्रसिद्ध गाना नही सुना आपने "छोड़ो कल कि बातें कल कि बात पुरानी .........." । ऐसे में हम उन्हें भूल गए तो क्या। शायद यही कारण है कि हमें आए दिन बम धमाकों से जूझना पड़ता है। खुदीराम बॉस ने किसी स्वतंत्रता सेनानी से कम काम नही किया। जवानी कि प्रथम अवस्था में फांसी पर चढ़ जाना सबके बस की बात नही। इनका जन्म ३ दिसम्बर १८८९ बंगाल के मेदिनीपुर जिले के म्होबानी गाँव में हुआ था। खुदीराम १६ अक्टूबर १९०५ में बंगाल विभाजन हुआ तब ये अरविन्द घोस , बारिन घोष के क्रांतिकारी संघठन "युगांतर" में शामिल हो गया। १६ साल की काछी उम्र में ही बेखोफ होकर अंग्रेजों के खिलाफ देश प्रेम के लिए पर्चे बाटने में कोई उनका सानी नही था। फरवरी १९०६ की घटना है. मेदनीपुर में अंग्रेजों ने प्रदर्शनी लगाई। ताकि लोग समझे की ये अंग्रेज हम लोगों के लिए कितना काम कर रहे हैं। यहाँ शेड कपडों में गुप्तचर भी मोजूद थे। भीड़ होने के बावजूद खुदीराम वहां पहुच गए और कुछ पर्चेडी "सोनार बांग्ला" शीर्षक से बाटने लगे इसमे अंत में लिखा था - "वंदे मातरम ..."। इससे अंग्रेजों की हिप्पी-सिप्पी गुल हो गई। ये वहां से तुंरत नो दो ग्यारह हो गए। कलकत्ता प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट किन्ग्फोर्ड उन दिनों काफी कुख्यात था। उसने क्रांतिकारियों के खिलाफ कई कड़े फेसले दिए। यहाँ तक की एक युवक सुशील सेन को तो अदालत की अवमानना का आरोप लगाकर कोड मरने की सजा भी दे दी। इस पर युगांतर ने किंग्स्फोर्ड को मृत्यु दंड तय कर दिया। तभी औंग्रेजों ने उसे मुजफ्फरपुर का मजिस्ट्रेट बनाकर बिहार भेज दिया। युगांतर के फेसले पर अमल की जिम्मेदारी खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी को सोपी गई। दोनों तुंरत बम को बिहार ले गए। बोस और चाकी ने मुजफ्फरपुर में कुछ दिनों तक किंग्सफोर्ड की दिनचर्या जानी। फिर क्या ३० अप्रेल १९०८ को यूनियन क्लब के गेट पर वे एक ख़ास वाहन का इंतजार कर रहे थे। वह वाहन नजर आते ही उन्होंने उस पर बम फेके। किंग्सफोर्ड की तकदीर अच्छी थी की उस गाड़ी में वह नही था। उसमे बेरिस्टर प्रिंगल केनेडी की पत्नी ,देती और नोकर थे। तीनो मरे गए। पुलिस का व्यापक बंदोबस्त तो ऐसे स्थानों पर रहता ही त५ह। तुरत वे बोस और चाकी को पकड़ने दोड । समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पर घिर जाने से चाकी ने स्वयं जान न्योछावर कर दी। खुदीराम पकड़े गए। दो महीने सुनवाई चली और उन्हें सजा-ऐ-मौत सुना दी गई। आख़िर ११ अगस्त १९०८ का वह दिन भी आया, जब १८ वर्ष १८ महीने और १८ दिन की उम्र में खुदीराम फांसी के फंदे पर चढ़ गए।

रविवार, अक्तूबर 05, 2008

श्रमदान या शादी का कदम - राहुल गाँधी


अब राहुल जी ने तसला भी उठा लिया । अच्छी बात है कामयाबी को जल्दी छुएंगे । भई मेहनत का फल तो मीठा होता ही है।
सुना है कि राहुल गाँधी ने राजस्थान के बरन जिले के पिंजरा गाँव में श्रमदान किया है।
मेरी एक महिला मित्र हैं। जिनती वो प्यारी और भोली है उतनी ही चकड़ भी। अब आज वो मुझसे लड़ पड़ी बात सिर्फ़ ये थी कि वो मानती है राहुल जी कि मेहनत गरीबो के दर्द को जानना नही है बल्कि उनका उद्देश्य कुछ और है।
मैंने झट से कहा फिर क्या राजनीति वो बोली तुम तो पूरे........ ।

मैंने खीज कर कहा तुम ही बताओ?
समझाने लगी - एक तो वो कुंवारे हैं। उनके पूरे देश में घूमने का एक-आध उद्देश्य नही कुछ और भी है। वो राजनीति प्रबल और जिन्दगी सुखद बनाने कि मस्श्कत्त में लगे हैं। लोगों का सवाल होता है कि आप (राहुल जी ) शादी कब कर रहे हैं? तो वे कहते हैं मोका आने पर बताऊंगा क्यों नहीं बताते ? असल बात ये है, कि वे अभी ओपसन ही ढूँढ रहे हैं। ख़बर तो ये भी है कि वो वहाँ गाँव कि महिलाओं से भी मिले।
मैंने कहा ये सरासर ग़लत है। और दूसरी बात तुमने उनके श्रमदान को शादी से क्यों जोड़ा ? श्रमदान और शादी का आपस में क्या सम्बन्ध ? वो गुस्से में "तुम" कि जगह "तू" करके बोली अबे तू कभी पत्रकार नहीं बन सकता। मुझे धोड़ा अटपटा लगा। उसने इसके लिए एक अजीब ही तर्क दिया।
कांग्रेस के महासचिव युवराज इसलिए फावड़ा नहीं चला रहे हैं कि वो गरीबो का दर्द समझ सके या इसलिए तसला नहीं उठा रहे कि वो राजनीति है। बल्कि इसलिए ताकि यदि भविष्य में कभी भगवान् न करे कि वो राजनीति में असफल हो जाए तो अपनी धर्मपत्नी का पेट फावड़ा चलाकर और तशला उठाकर तो भर ही सकें।
मैंने उसका घोर विरोध किया। लेकिन ये उसका विचार था जो में बदल भी नहीं सकता।
खेर देखना अब ये है कि युवराज अपनी जीवन संघ्नी का नाम कब बतायेंगे और उनका अगला कदम क्या होगा.....

शनिवार, अक्तूबर 04, 2008

शेयर, सोना और देवरानी : प. पुराणिक (२)

अब कोई शादी में जाएगा तो शेयरधारी अपनी बीवी को शेयर का सर्तिफिकैत तो गले में पहनायेगा नहीं। इसके लिए तो सोने का हार है। पर एक तरफ़ माँ बिजनेस के पुजारी प. पुराणिक जी कहते हैं की साब सोने में इन्वेस्ट करना बेवकूफी है। अब बेवकूफी नही की तो अर्धांगनी अपनी जेधानी से हार जायेगी । बेचारे पति को तो पंडित जी ने दोनों तरफ़ से फंसा दिया। अर्धांगनी हार न जाए इसलिए "हार" चाहिए। पंडित कहते हैं की सोने की वेल्यु वेसे की वेसे ही बनी हुए है। सोने में इन्वेस्ट बेकार। अर्धांगनी जेधानी से पीछे नहीं रहना चाहती। करें क्या ?? खरीदा क्या जाए ? शेयर या सोना ? पैसे सीमित हैं। सोने की वेल्यू बढ़ नहीं रही। शेयर खरीदा तो बीवी गुलाबी गाल फुला लेगी।
मैंने सुझाव दिया क्यों न बिजनेस मैया का चालीसा पढ़ा जाए। उन्होंने पढ़ा भी, लाभ भी हुआ। जनाब ने हार जेधानी को हराने के लिए तो नहीं लेकिन पूरी-पूरी टक्कर लेने के लिए खरीदवा दिया। बाकि पैसे इन्वेस्ट.....
लेकिन कहते हैं इनवेस्टमेंट इज दा सब्जेक्ट ऑफ़ मार्केट रिस्क , बिचारे क्या करते.... जेसे-तेसे जेधानी को जलाने के लिए लिया गया वो हार गरबा करते समय गिर गया।
उनका किया गया इन्वेस्ट "इन-वेस्ट " हो गया ।
खेर आज में आपको उन पति महोदय के यहाँ निमंत्रित करता हूँ। आज साम उनका हर्ट अटैक से .........
अब उनके कदम ईश्वर की तरफ़ जा रहे हैं.........

शुक्रवार, अक्तूबर 03, 2008

नव रात्रे में "बिजनेस माँ"- पंडित पुराणिक

देश भर में नवरात्रे के दिन लोग दुर्गा माँ की आराधना कर रहे हैं। लेकिन आजकल एक नई देवी का अवतरण हुआ है। माँ बिजिनेस देवी का।
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में आज बिजिनेस पंडित प. आलोक पौराणिक ने छात्रों को जीवन बरकरारनी माँ बिजिनेस का न केवल पाठ पढाया बल्कि ये भी एहसास कराया की इनके आशीर्वाद की हमारे जीवन में कितनी जरूरत है।
अब मेरी समझ में काफी कुछ आ गया है.
जैसे नवरात्रे में गरबा होता है, वैसे ही बिजिनेस में भी गरवा होता है। उदाहरण आप ले कसते हैं - लेमन ब्रदर की कंपनी का।
पहले गरबे में कृष्ण भगवान् गोपियों को नचाते थे फिर गोपिया कृष्ण जी को। वैसे ही लेमन ब्रदर्स दूसरे बैंको को नाचते थे अब दूसरे बैंको ने लेमन ब्रदर्स को नचा दिया.....

लेकिन ऐसे में किया क्या जाए??? अजी मुसीबत आने पर आप क्या करते हैं?? जय हनुमान ज्ञान गुन सागर जय कपीस त्रिलोक ..... । बस यही तो करना है... यानि.......???? ००००० बिल्कुल सही बिजिनेस चालीसा

बिजिनेस धर्म के प्रकांड पंडित प. पौराणिक ने बिजिनेस की चालीसा को बताया। कहा बिजिनेस पत्रकार बनना है तो इसे रट लो।
हो भी क्यों न...
हालंकि बिजिनेस मैया को भी चढावा चढाया जाता है। तभी रिटर्न अच्छा मिलता है। और चालीसा पढ़ ली तो बात ही क्या।
बिजिनेस माँ , लक्ष्मी माँ का ही एक रीसेंट अवतार है।

लक्ष्मी माँ के दर्शन मन्दिर में होते हैं। लेकिन बिजिनेस मैया के दर्शन या तो अखबार..टीवी ..या फिर कंप्यूटर में ही मुनासिब है।
यदि आप इसके बावजूद मैया के दर्शन से वंचित है तो कोई बात नही। मैया के कई भक्त आप को फ़ोन करके स्टॉक मार्केट में या लोन लेने की सॉरी चढावे की जिद ऊहू... मेरा मतलब मांग करेंगे।
अब आपको भी जल्द ही बिजिनेस के दर्शन होने वाले हैं। अगर बिजिनेस मैया को और समझना है तो पंडित जी से भी संपर्क कर सकते हैं।

ख़बर- बिजिनेस के नव रात्रे में कन्या कब खिलाये --- कल बतायेंगे.

गुरुवार, अक्तूबर 02, 2008

वो गजल का कदम

आज एक अखबर में क्या खूब गजल आई जिससे मैं बहुत प्रभावित हुआ।

हर सिम्त से आती सदा - ईद मुबारक
चलती हुए कहती है हवा - ईद मुबारक।

मन्दिर के कलश ने कहा हंसकर मीनार से
कौन करे हमको जुदा - ईद मुबारक।

आज सुबह आरती अजान से मिली
परमात्मा कहता है खुदा से - ईद मुबारक।

रमजान की पाकीजगी सावन से कम नही
लीजिये सावन की दुआ - ईद मुबारक ।

दीपावली पे खान ने दी मुझको बधाई
"mohan" ने कहा शीश झुका - ईद मुबारक।।

सोमवार, सितंबर 29, 2008

अब उनके कदम.....

कमाल की बात है जैसे ही बीजेपी ने विजय कुमार मल्होत्रा को मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किया तो वे भी अपने दायित्वों के प्रति सचेत हो गए। अब देखिये न २७ सितम्बर को हुए दिल्ली बम ब्लास्ट में वे तुंरत घटना स्थल पर पहुंचे और सरकार पर खूब जम के बरसे..... जम के मतलब जम के। मल्होत्रा साब जल्दी से अपने उत्तरदायित्वों को समझ गए । नहीं तो ये वही नेता जी हैं जो पिछले दिल्ली बम ब्लास्ट में बिल्कुल चुप नजर आए थे। और जब प्रत्याशी बने तो ......
लेकिन मुख्यमंत्री प्रत्याशी होने के नाते उन्होंने वो टिप्पणियां नहीं की जो की सामान्य प्रत्याशी जोरो-शोर से करता है।
शायद उन्होंने सोचा की टिका-टिप्पणी करने से मेरे पाले के लोग ही न भड़क जाए ? और कहे -- क्या यार क्यों तुम नाक कटाने पर तुले हो। इन छोटी-मोटी वारदातों पर छीटाकशी कर रहे हो। ध्यान रहे । सरकार पर तब तक भूखे शेर की तरह नहीं टूटना चाहिए , जब तक की कोई बड़ा हादसा न हो जाए।

जैसे- जैसे ये हादसे बढते जा रहे हैं। वैसे -वैसे जनता से किए वादों की चट्टानों में दरार आती जा रही है और उनमे से निकलने वाली रक्त -ज्वाला जनता की मानसिकता पर धैर्य के उपले को सुलगाती जा रही है।
अब वक्त आ चुका है। अब तीसरा कदम उठेगा। जनता का। उनके ख़ुद के लिए। ताकि वो जी सके और पूरा कर सकें उन अरमानों को जिसके लिए वे आज संघर्षरत हैं।

शुक्रवार, सितंबर 26, 2008

इंडियन मुजाहिद्दीन - ढांचा

ये ग्रुप कोई छोटा मोटा नही बल्कि इस ग्रुप में १२ लीडर हैं। इसमे से केवल तौकीर के बारे में पता है.बाकि परदे के पीछे से काम करते हैं। कुछ ये बताते हैं की ये आई एस आई के इशारों पर काम करती है। ये ग्रुप ओसामा बिन लादेन और मुल्ला उमर के इस्लाम के जेहादी स्वरुप में ही विश्वाश रखते हैं।
ग्रुप मैनेजमेंट-
इनका सबसे बड़ा ग्रुप है कॉल ऑफ़ इस्लाम । इस ग्रुप के सदस्यों की संख्या ६०००० से भी अधिक है। ये लोग करीब ३५ साल की उम्र के हैं। ये ज्यादातर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, केरल और महाराष्ट्र में मोजूद है। फेले तो ये पूरे देश में हैं। इनमे से अनेक मोलवी, शिक्षक, पेशेवर और शिक्षशाश्त्री हैं, जो उपरी तौर पर कानून का पालन तो करते हैं। लेकिन आदेश अपने ईस्ट का ही मानते हैं जो शीर्ष लीडर हैं।
इसके बाद नीचे का ग्रुओप है - इख्वान मतलब भाई । इसके सदस्य ६००० कोर सदस्य हैं। स्पेशल काम के लिए होते हैं, काम होने के बाद अपनी दोहरी पहचान के साथ अकेले छोड़ दिए जाते हैं।
तीसरा ग्रुप है- अंसार अर्थात सहायक । ये ५५० सदस्यों का ग्रुप है। ये अंशारी समुदाय ही अहमदाबाद और जयपुर धमाको के आरोपी हैं.ये धमाको के लिए न केवल बम्ब बनाते हैं बल्कि समान भी समान भी खरीदते हैं।
अगला ग्रुप है- सफ़ेद बाज "द व्हाइट फाल्कन।" इनका काम ५ से १० साल के बच्चों को जोड़ना है और उन्हें जेहादी विचारों की दीक्षा देना है।
अन्तिम तौर पर जो ग्रुप है- मुस्लिम ब्रदरहुड । इस ग्रुप का मुख्य कार्य विभिन्न तरीकों से फंड और पैसा जुटाना है। ये जेहादी संगठनो के संपर्क में रहते हैं। इसमे कम से कम १०,००,००० लोग जुटे हैं।
अगर माने तो इनका संगधन सरकारी तंत्र से भी ज्यादा मजबूत हैं।

इसके लिए हम सभी को उठाना होगा तीसरा कदम..............

गुरुवार, सितंबर 25, 2008

बात बीस धमाको की थी


बीस सितम्बर को आतंकवादी बीस धमाके करने की फिराक में थे। आखिर नेहरू प्लेस भीड़-भाड़ वाली जगह है, यहाँ पैर वे लोग ब्लास्ट करके पूरी दिल्ली में दहशत फेलाना चाहते थे। लेकिन शुक्रवार को पुलिस मुठभेड़ में दो आतंकी मारे गए और दो गिरफ्तार कर लिया गया । इससे उनके मनसूबे नाकाम हो गए। एस मुठभेड़ में जांबाज पुलिस अफसर श्री मोहन चद्र शर्मा शहीद हो गए।
आतंकी जानते थे की नहरू प्लेस भीड़ भाड़ वाला इलाका है। खासकर शाम को काम से लौटते हैं। ऐसे में बीस ब्लास्ट करते तो ज्यादा से ज्यादा जान-माल की हानि होती। यहाँ १०० इमारतें हैं देशी-विदेशी कम्पनियों का कारोबार भी जोरों से चलता है। यहाँ कम से कम दो लाख लोग रोज आते-जाते हैं।
जो हुआ वो सराहनिए तो है ही।
मजा तो अब आयेगा ........
दिल्ली पुलिस ने तीनो आतंकियों अब्दुल रहमान के बेटे जिया-उल-रहमान और उसके साथी साकिब निसार व मोहम्मद शकील को रिमांड पर ले लिया है। अब सामर उनकी भी आएगी जो इन आतंकियों के सम्पर्की रहे। पुलिस किसी को छोड़ेगी नहीं।

जवान तो मर ही रहे हैं?

जम्मू और कश्मीर के पास एल ओ सी पैर सोमवार को एक मुठभेड़ में भारतीय सेना के २ जवान शहीद हो गए। दोसरी तरफ़ पता लगा की नागालेंड में एक असम रेजिमेंट का सिपाही मर दिया गया, जिसमे ४ आतंकी भी मरे गए।
जो भी एक तरफ़ खुसी है तो उससे ज्यादा दुःख की बार है की हमारे जांबाज सिपाही शहीद हो गए। असल में इस तरफ़ किसी का भी ध्यान नही जा पता कि आखिर किसी भी मुठभेड़ में सरकार को कितनी हनी उठानी पड़ती है। बस इस बात कि खुसी जाहिर कर दी जाती है कि जवानों ने अच्छा कारनामा कर दिखाया। लेकिन उसके घर में मातम होता है जिसके घर से वो बेटा हमेशा के लिए चला जाता है, जो कि उस मुठभेड़ में शहीद हो गया.

मंगलवार, सितंबर 23, 2008

रोज गंगा पूजा, चढावे में गंदगी





ऋषिकेश। जब हम धर्म की बात करते हैं तो उसे समाज से जोड़कर चलते हैं लेकिन जब धरम को समाज से जोड़ा जाता है तो यह ध्यान रखा जाता है समाज से जोड़ते समय धर्म की परिभाषा की अवहेलना न हो। धर्म क्या है? धर्म वो है जो हमे नेतिकता में बांधता है , हमें संस्कार प्रदान करता है, हमारे कर्म की सीमा निर्धारित करता है ताकि हम ग़लत रस्ते पर न जाए। परन्तु जब इस धर्म पर खुला प्रहार हो तो ?
इसी विषय से सम्बंधित एक प्रकरण हमारे सामने है। देहरादून जिले के एक प्रमुख शहर ऋषिकेश में त्रिवेणी नामक एक घाट है। "पवित्र" घाट। हर शाम को यहाँ गंगा समिति के पंडितों द्वारा गंगा मैया की पूजा की जाती है। यह आस्था है, धर्म का एक रूप है। परन्तु कमल की बात देखिये उसी घाट पर पूरे ऋषिकेश का मल-मूत्र नाले के माध्यम से इन्ही 'गंगा' मैया में विषर्जित कर दिया जरा है। ये कैसा धर्म या कैसे आस्था है, की एक तरफ गंगा की घी के दीयों , फूल-मालाओं, अगरबत्तियों से पूजा की जाए , प्रसाद के रूप में गंगा जल पी लिया जाए और दूसरी तरफ उसी गंगा में अपना मल-मूत्र या शारीरिक गंदगी छोड़ दी जाए।
जब कोई "समझदार" व्यक्ति गंगा में पैसे फैकता है तो उसे कोई नही टोकता, जबकि यह राष्ट्रीय हनी है जिसे प्रत्येक अर्थशास्त्री भी स्वीकार करते हैं। अगर पानी में फैकने की बजाये राष्ट्रीय हित में एक-एक रुपया दिया जाने लगे तो भी सरकार के पास करोडो रूपये पहुच सकते हैं क्योंकि आज भी लगभग ७० % जनसँख्या धार्मिक आस्था से जुड़ी है। जुस्से सरकार भी वही पैसा अधिकतम सामाजिक लाभ में व्यय कर सकने में समर्थ हो सकती है। परन्तु यदि वही गंगा मैं गिरा पैसे कोई गरीब बीनने (उठाने) लगे तो धर्म के ठेकेदार उसे मारते हैं, पीटते हैं और घाट से फिकवा देते हैं। अगर वो गरीब भिखारी उस को ले ले और पेट भर ले तो शायद गंगा मैया नाराज न होकर खुश ही होंगी की उनके आशीर्वाद से एक और गरीब का पैर भर गया। बात त्रिवेणी घाट की हो रही थी। वही त्रिवेणी घाट हहाँ शाम के समय होता है एक तरफ गंगा मैया की पूजा, दूसरी तरफ गंगा मैया को दिया जाने वाला ऋषिकेश का गंद और तीसरी तरफ घाट में ही फलता-फूलता लड़के- लड़कियों का "चक्कर"। घाट का माहौल देखा जाए तो मुझे कहीं आस्था नजर नही आती। अब देखिये न, घाट के दोनों छोर को छोड़कर शौचालय बीच में बनाया। वो भी माता मन्दिर के बिल्कुल बगल में। जब वहां के आस्तिकों के इस संदर्भ में पूंछा गया तो उनका एक ही सामान्य जवाब मिला, "बल यु सौचालय मंदिरे का बग्ल्या नी होंद छेंदु , यु हमारी आस्था पैर वार छ "। शायद ये धर्म का नया ट्रेंड हो जहाँ लड़के-लडकियां इश्क मट्टका करे , गंगा मैया की पूजा भी हो और उसी गंगा में बहाया जाए शहर का मल-मूत्र।
मैं मानता हूँ की कोई और नदी ऋषिकेश के पास नही जिसमे यह नाला बहाया जा सके परन्तु , जब करोडो रूपये सरकार विकास के लिए व्यय कर सकती है, तो सरकार गंगा की पवित्रता व गरिमा बरकरार रखने के लिए भी खर्च कर सकती है। यदि ऐसा नहीं हो सकता तो घाट में गंगा पूजा के नाम पैर हो रहे देखावे को बंद कर देना चाहिए। में अंधविश्वास को नही फैलाना चाहता, बस परम्परा की बात करता हूँ । ताकि हमारा एक रास्ता हो और उस रस्ते पर चलकर विकास की उत्कृष्टता को छू सके।

सोमवार, सितंबर 22, 2008

शीर्षक के बारे में

मेरा मानना है कि सरकार समाज के लिए पहला कदम उठाती है और प्रसाशन दूसरा । लेकिन जो हम समाज के साधारण से लोग इनसे जो आशा रखते हैं उस पर ये खरे नही उतर पाते ........... बस तब मैंने यह सोचा क्यों न अब हम इन्हें जगाने के लिए तीसरा कदम उठायें ..............इन्हें याद दिलाएं की हमे खुशी चाहिए , हमे चाहिए सुख शान्ति और वो.... जो देखा है ख्वाबो में ......................

तीसरा कदम

लो आज से मैं भी आ गया उस ज़ंग में जिस ज़ंग ने संभाला हुआ है समाज की उस डोर को जो देती है ख़बर , विचार , मनोरंजन , सोच और वो चिंतन जो समाज को बाँधता है उसे उसकी सुरक्षा के लिए , ताकि वो समझ सके अपनेआप को , जाने नेतिकता को परम्परा को। जिसमे पाठक मेरे साथ है और मैं हूँ पाठक के लिए समर्पित ।
मैं कोशिश कारूंगा की आपकी चाहतों पर खरा उतर सकू ।
आपकी ही तरह कुछ सोचने वाला ....
आपकी तरह कुछ करने की सोच रखने वाला .....
आपकी ही तरह तत्पर उस समाज के लिए जिसने दिया मुझे ये विस्वाश की कुछ करू .....
बृजेन्द्र कुमार वर्मा

तीसरा कदम