सीखने के लिए मैंने हर जख्म सींचे हैं, पढ़ना है दर्द मेरा तो सब लिंक नीचे हैं

सोमवार, दिसंबर 30, 2013

अलविदा 2013

ए 2013 मैं तुझे कुछ नहीं कहूँगा. हालाँकि तूने मुझे काफी कुछ दिया और बहुत कुछ छीन लिया है..पर तुझ पर कोई आरोप नहीं लगाऊंगा. बस यही मान लूँगा कि शायद ये नियति में लिखा था, सो हुआ...
.
तुम्हें मुस्कुराकर अलविदा कहना मेरा फर्ज है क्यूंकि मैं जानता हूँ कि तुम मुड़कर कभी वापस नहीं आओगे...

मंगलवार, नवंबर 12, 2013

काश! पुनर्विवाह पर और बनें विज्ञापन


कुछ दिनों से एक विज्ञापन मुझे बेहद प्रभावित कर रहा है, इतना कि इस विज्ञापन के बारे में लिखने को मजबूर हो गया और मैं खुश भी हूँ कि शायद मैं पहला शख्स हूँ जो इस विज्ञापन की लिखित तारीफ़ कर रहा हूँगा.

मैं बात कर रहा हूँ. तनिष्क ज्वेलरी के विज्ञापन की. ये हाल ही में प्रसारित होना शुरू हुआ है.
इस विज्ञापन में वो ख़ास बात है जिस पर राज कपूर साहब पहले ही पुरजोर तरीके से "प्रेमरोग" पर काम कर चुके हैं......पुनर्विवाह.

इस विज्ञापन में अपने देखा होगा, एक महिला गहनें पहनकर सज धज रही है, इतने में एक नन्ही बालिका आती और उस महिला के साथ स्वयं सजने की बात करती है. थोड़ी देर में वे दोनों समारोह में जाते हैं, जिसमें पता चलता है कि वह महिला (जो सज रही थी) शादी कर रही है.
सभी फोटो गूगल फोटो से साभार.

फेरे लेते समय वो नन्ही बालिका उस महिला को "ममा" (माँ) कहकर बुलाती है. तभी विज्ञापन में खुलासा होता है कि महिला का पुनर्विवाह हो रहा है.


बेहद सादगी के साथ पुनर्विवाह को प्रोत्साहित किया. जबकि देखा ये गया है कि पैसे कमाने की होड़ और बिजिनेस के लिए कंपनी कभी सभ्यता या संस्कृति पर ध्यान नहीं देती. पर इस बार तनिष्क ने इस नजरिये को भी बदला है और धारणा को भी.

मैं व्यक्तिगत तौर पर इस कंपनी के इस तरह के विज्ञापन को प्रसारित करने की क्षमता की प्रशंसा करता हूँ... क्यूंकि जहाँ आज भी देश में पुनर्विवाह को हेय दृष्टि से देखा जाता है वह बिजिनेस को ताक पर रखकर जोखिम उठाना हर कंपनी के बस की बात नहीं होती...

तनिष्क, मैं आपकी सराहना करता हूँ.
मैं उस स्क्रिप्ट रायटर की भी तारीफ खुले मन से करता हूँ, जिसने इस कांसेप्ट को कंपनी के सामने बेझिझक रखा होगा...
बेहद सुखद और प्रेरित करने वाला विज्ञापन.



(मैं एक बात और साफ़ कर दूं, कि जीवन में मैंने तनिष्क के उत्पाद नहीं ख़रीदे.)

शुक्रवार, नवंबर 08, 2013

बॉक्स तक सीमित "गरीब" खबरें

Amar Ujala (Lucknow edition) 7 nov 13 page-11

आजकल के अखबारों को पढ़ा जाए तो समझना आसान हो जाएगा कि आखिर जमाने में किस वर्ग को ज्यादा महत्व दिया जा रहा है, गरीब को या उच्च मध्य वर्ग/ अमीर को.

7 नवम्बर का अमर उजाला पढ़ा. अच्छा दैनिक समाचार पत्र है. पर मेरी नजर में इसकी उत्कृष्टा तब कम हो गयी, जब मेरी नज़र अलग अलग पेज पर एक जैसी खबरों पर गयी.
Amar Ujala (Lucknow edition) 7 nov 13 page-11
एक कोचिंग में पढने वाली यानि पैसे वाले परिवार की लड़की के साथ बदसलूकी हुयी तो तीन कॉलम खबर बना दी गयी. और वही एक गरीब दलित युवती से गैंग रेप यानी सामूहिक बालात्कार हुआ तो उस खबर को बॉक्स में फिट कर दिया गया....


ये बिल्कुल ऐसे ही है जेसे कुछ महीनों पहले हुआ था. जब दिल्ली में "निर्भया" के साथ दुराचार, हुआ तो पूरे देश का खून खोल गया और जब उसी दौरान, उसी दिल्ली में दलित का बालात्कार हुआ तो उन्हीं लोगों के खून में न जाने कौन सा बेक्टीरिया लग गया कि खून खोला ही नहीं.
लगता है अखबारों ने भी वही चलन स्वीकार कर लिया है.

एक बात तो साफ़ है, अभी दलित, पिछड़ों, गरीबों को और संघर्ष करना होगा.


सम्बंधित खबर - (http://teesrakadam.blogspot.in/2013/02/blog-post.html)

बुधवार, फरवरी 06, 2013



बुधवार, अक्तूबर 02, 2013

हरिजन तो पूरा संसार है

मोहनदास करमचंद गांधी जी ने जब अहमदाबाद से 1932 में "हरिजन सेवक" निकाला तो उन्होंने सोचा होगा कि दलितों को "हरिजन" संज्ञा दे दी जाए तो वे खुश हो जायेंगे. 
लेकिन ये गजब की गाली थी हर दलित समुदाय के लिए. दलित उस समय अनपढ़ जरूर रहे होंगे, परन्तु मूर्ख कदापि नहीं थे. सोचने वाली बात है कि सिर्फ दलित को ही हरिजन क्यों कहा गया?

हरिजन अर्थात हरि के जन मतलब भगवान् के लोग.
अब सोचने वाली बात है कि अगर भगवान् ने ये सृष्टि बनायी है तो पूरा संसार, पशु, पक्षी, मानव, वृक्ष, पेड़, पौधे पृथ्वी का हर अंश हरिजन हुआ. ऐसे में गांधी जी ने सिर्फ दलितों को हरिजन क्यों कहा मेरी समझ से परे है. या तो इसलिए कि बाबा साहेब अम्बेडकर के खिलाफ लॉबी तेयार करके दलितों को भ्रमित करना चाह रहे थे या उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से दलितों को गाली दे रहे थे. क्योंकि अगर ये गाली नहीं थी तो सवर्णों को दलित क्यों नहीं कहा जाता, जबकि भगवान/मंदिरों के आस पास यही लोग जयादा पाए जाते हैं.

खैर मैं सवर्ण-अवर्ण के पचड़े में नहीं पड़ना चाहता. मेरा सवाल सिर्फ इतना है कि केवल दलितों को ही "हरिजन" की संज्ञा क्यों दी गयी....
हरिजन समाचार पत्र की एक प्रति.
साभार- http://en.wikipedia.org/wiki/Harijan

हरिजन शब्द का इतिहास 

हरिजन शब्द का एक अघोषित अर्थ रहा है. पुराने समय में गाँव की कुछेक कन्याओं को जो सुन्दर हुआ करती थी, उन्हें किसी न किसी बहाने से देवदासी घोषित कर दिया जाता था, या तो देवी का रूप बताकर या दूसरे लोक की कन्या बताकर कि इसका जन्म भगवान की सेवा के लये हुआ है, बस इतना सब करके उन शारीरिक रूप से सुन्दर आकर्षक कन्याओं को देवदासी बना दिया जाता था. इन देवदासियों का काम मंदिर की साफ़ सफाई हुआ करता था. परन्तु इसे कुछेक धूर्त पुजारी अपनी शारीरिक हवस का शिकार बनाते थे. इनसे आये दिन शारीरिक सम्बन्ध बनाते और कहते ये तो ईश्वर का आदेश है. जब ये कन्याएं गर्भवती होकर माँ बन जातीं तो इनके बच्चों को, वे पुजारी, जिनकी ये संतानें होती थी, स्वीकार करने से मना कर देते और कहते ये तो प्रभु की देन है और ये भगवान् के बच्चे हैं हमारे  नहीं. ये तो - "हरिजन" हैं.
क्या अजीब न्याय है.

क्या गाँधी जी ने ऐसा कुछ कभी पढ़ा नहीं था?

कहा जाता है कि गांधी जी बहुत ज्ञानी थे, बहुत किताबे पढ़ते थे, दार्शनिक थे. तो क्या उन्होंने "हरिजन" शब्द का इतिहास नहीं पढ़ा था. क्या इस शब्द का जन्म उन्होंने किया था? क्या उनके द्वारा इस शब्द के इस्तेमाल से पहले इस शब्द का इस्तेमाल नहीं हुआ था? मैं ये नहीं मानता असल में गाँधी जी अच्छे से जानते थे. लेकिन ये नहीं चाहते थे कि अच्छी शिक्षा ग्रहण करें, बस वे चाहते थे कि दलित अपना पैतृक काम करें. कमाल हैं खुद सुनार होकर वकील बन गये, और दूसरों को सलाह देकर कहते हैं पैतृक काम करो. क्यों करें??? क्या अपने पैतृक काम किया? जो चीज आप खुद पर लागू नहीं कर सकते तो आप उसे दूसरे पर भी लागू नहीं कर सकते.

खैर ये बातें तो होती रहेंगी. मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि आप सभी मेरे साधू पाठकों से निवेदन है कि किसी वर्ग विशेष को "हरिजन" कहना ठीक नहीं, अगर आप धर्म में आस्था रखते हैं और भगवन/ अल्लाह/ ईशा मसीह/ रब/ वाहेगुरु/ या कोई भी आपके ईष्ट (GOD) को मानते हैं तो आप ये भी समझते होंगे ये संसार हरि अर्थात भगवान् (GOD) का है और हर चीज हरिजन है. ये पूरा संसार "हरिजन" है. एक-एक तिनका हरिजन है.

इसलिए कृपया किसी वर्ग विशेष को "हरिजन" न कहें, क्योंकि अगर दलितों को हरिजन कहा जाएगा तो सवाल उठेगा कि यदि दलित "हरिजन" हैं तो बाकी क्या "दानवजन" हैं???


मंगलवार, सितंबर 24, 2013

दुर्गा जी ने भी आखिर मान लिया कि उनसे "गलती" हो गयी

आखिर दुर्गा शक्ति नागपाल जी ने भी मान लिया कि उनसे "गलती" हो गयी. 
जिस देश के लोगों के लिए उन्होंने अपनी नौकरी कुर्बान कर दी, उस देश के लोगों ने एक आन्दोलन तक नहीं किया और एक नाबालिग के साथ दुराचार के आरोपी बाबा के लिए लोग अपनी जान तक देने को राजी हैं.
किसी ने सच ही कहा है, लोग जैसे होंगे, उस देश की सरकार भी उन्हें वैसी ही मिलेगी.

वैसे मैं अपना विचार व्यक्त करूँ तो दुर्गा जी ने सही निर्णय लिया. वे भी सोच रही होंगी जिस समाज के लिए उन्होंने संगठित ताकतवर लोगों से पंगा लिया, उस समाज ने एक बार भी उनका सहयोग नहीं किया. एक बार भी मोर्चा नहीं निकला, मार्च नहीं किया.. तो क्यूँ बेकार में इन लोगों के लिए कोई अपना भविष्य और करियर खतरे में डाले.

अमर उजाला, 22 sep 2013 (lucknow edition)
शायद वे सोच रही होंगी, इस गुंडा गर्दी और इस तरह की सरकार को बढ़ावा किसने दिया??? निश्चित ही वोट देकर आम जनता ने. और जब आम जनता खुद ऐसी सरकार को पसंद कर रही है तो फिर क्यों खनन के खिलाफ खड़ा हुआ जाए.

और अब देखिये न दुर्गा जी ने ये कहकर कि स्थिति को समझ नहीं पायी और गलती हो गयी और भविष्य में ऐसा नहीं होगा... बहाली पा ली.
इसका अर्थ समझे आप-
1 गलती हो गयी
2 स्थिति को समझे नहीं
3 भविष्य में ऐसा नहीं होगा.
पहले का मतलब है कि माफियाओं से भिड़कर गलती कर दी, दुसरे का कि माफियाओं की ताकत की स्थिति समझ नहीं पायीं और तीसरे का मतलब ये कि भविष्य में असंवेदनशील समाज के हित के लिए अपना करियर खराब नहीं करेंगी और न ही अब माफियाओं से पंगा लेंगी.

अगर समाज किसी आरोपी बाबा को बचाने की जगह दुर्गा जी जैसी अधिकारीयों का साथ देता तो शायद दुर्गा जी इस सिस्टम के आगे इतनी जल्दी हार नहीं मानती. 

गुरुवार, फ़रवरी 14, 2013

यूपी विधान सभा में हंगामा हुआ तो क्या गलत हुआ?

सौजन्य- गूगल 
14 feb 2013
उत्‍तर प्रदेश विधानसभा में बजट सत्र शुरू होना था, सपा ने सोचा होगा कि उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर जो 37 श्रद्धालुओं की मौतें हुयी हैं, उस पर कोई कुछ नहीं बोलेगा.
बस यहीं पर सपा सरकार गच्चा खा गयी. पहले ही दिन बहुजन समाज पार्टी ने तेवर दिखा ये सन्देश दे दिया कि कुम्भ में 37 लोगो के गुद-गुदी नहीं की गयी बल्कि उनकी मौतें हुयी हैं, जिसकी जिम्मेदारी लेनी ही होगी और पूरी जांच करनी होगी, वो भी निष्पक्ष.

बसपा सदस्यों ने अपनी पार्टी के रंग की नीली टोपी पहन ली और बैनर लेकर हंगामा करने लगे। टोपी और बैनर पर 'प्रदेश में विकास ठप है, अखिलेश सरकार पस्त है', 'सरकार चलाना खेल नहीं, आपस में है मेल नहीं यूपी', 'केंद्र का देखो खेल, जनता मरती क्यों टाल मटोल' जैसे नारे लिखे थे.
हंगाम इतना हुआ के सदन की कार्यवाही स्थगित कर दी, उस वक्त मुख्यमंत्री शांत थे, लग रहा था जैसे कुछ हुआ ही नहीं. लेकिन अगर ध्यान दिया जाए तो हुआ बहुत कुछ है.
और जो बहुत कुछ हुआ उसका सारांश विरोधी दल स्वामी प्रसाद मौर्य ने पत्रकारों से सदन स्थगन के बाद कह भी दिया. उन्होंने कहा कि सरकार हर मोर्चे पर असफल है। कुंभ में एक हजार करोड़ रुपए से अधिक राशि खर्च कर दी गई लेकिन श्रद्धालुओं की सुरक्षा के आवश्यक इंतजाम नहीं किए गए और इसी बदइंतजामी की वजह से श्रद्धालुओं की जान चली गई।
उन्होंने कहा कि कुंभ की घटना मामूली नहीं है, इसके लिए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को इस्तीफा देना चाहिए। विधानपरिषद में नेता विपक्ष नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने कहा कि सरकार ने चीनी मिल मालिकों से मिलकर गन्ना किसानों का उत्पीड़न किया। शोषण हर ओर हो रहा और सरकार फेल हो गई है

"न करें राजनीति" 
मैंने जब मुख्यमंत्री के ब्यान सुने तो मुझे बड़ा अटपटा लगा...बोले कुम्भ हादसे में किसी को कोई राजनीति नहीं करनी चाहिए.... असल में उनका कहने का मतलब ये था कि कोई भी कुम्भ हादसे के बारे में बाते न की जाएँ और इस बात को जल्दी से दबा दिया जाए.... वो तो अच्छा हुआ के मीडिया से ये नहीं कहा के भाई अब तुम कुम्भ के मरने वालो से सम्बंधित खबरे भी मत छापो.

क्यों न हो हंगामा 
चौथा दिन है आज. कोई सच सामने नहीं आ सका. सब ढोल पोल चल रहा है, अभी साक्ष्य कहाँ है, किसी को नहीं पता. और न ही कोई इन्हें खोजने निकला है. अधिकारी चुप्पी साधे बैठे हैं. फुर्सत ही नहीं घटना की सच्चाई पता लगाने को.  अधिकारी एक-दूसरे पर दोषारोपण कर रहे हैं. सरकार ने तेजी से जांच कराकर कार्रवाई का ऐलान किया था. सुनने में आया है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के निर्देश पर जांच की जिम्मेदारी राजस्व परिषद के अध्यक्ष जगन मैथ्यूज को दी गई है. देखते हैं क्या निकल के आता है.

जिन्होंने हादसा होते देखा वो तो वापस चले गए 
सोचिये, जिन्होंने हादसा देखा उनमे ज्यादातर लोग या तो वापस चले गए, या घटना स्थल की सच्चाई बदलने लगी, या फिर सबूत मिटा दिए गए. कहा से पता चलेगा सच्चाई का? रही बात स्टेशन पर लगे सीसीटीवी कैमरों की तो उसकी रिकॉर्डिंग में भी फेरबदल कर दिया हो पिछले तीन दिनों में तो कोई बड़ी बात नहीं.

इस पर भी पड़ा है पर्दा 
कुम्भ प्रबंधन में एक बात और समझ से परे है कि सिविल लाइंस स्थित नवाब यूसुफ रोड से स्टेशन परिसर में प्रवेश प्रतिबंधित था, फिर भी, स्नानार्थी बड़ी संख्या में सिविल लाइंस साइड से प्लेटफार्मों पर पहुंच गए. अगर प्रतिबंधित था तो लोग कैसे पहुचे, पुलिस या व्यस्थाकर्मियों ने उन्हें रोका क्यों नहीं? महाकुंभ मेला की तैयारियां शुरू होते ही रेलवे ने साफ कर दिया था कि नवाब यूसुफ रोड से मेला की भीड़ जंक्शन के प्लेटफार्मों पर नहीं जाएगी. स्मिथ रोड से भी नियमित ट्रेनों के यात्री आएंगे-जाएंगे. इसी के मुताबिक सिविल लाइंस साइड में दो फुटओवर ब्रिजों को बंद कर दिया गया.
अगर इजाजत दी गयी तो किसने दी, ये भी किसी को नहीं पता?
बस ये सबको पता है कि हादसा हो गया.

आजम खां ने न्यूज चैनल्स को जिम्मेदार ठहराया 
कुम्भ में लोगों की जान चली गयी और उत्तर प्रदेश के शहरी विकास मंत्री आजम खां गंभीरता को समझने को राजी तक नहीं. कह दिया कि इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर हुई भगदड़ के बाद मची अफरातफरी के लिए न्यूज चैनल जिम्मेदार हैं.
संवाददताओं से बातचीत में उन्होंने कहा है कि मौनी अमावस्या के दिन नाले में गिरने से दो लोगों की मौत हो गई। चैनलों ने इसे ब्रेकिंग न्यूज की तरह दिखाया और बताया कि मेले में भगदड़ मचने से दो लोगों की मौत हो गई. उन्होंने कहा कि इस खबर के बाद श्रद्वालु मेले से बाहर निकलने लगे और रेलवे स्टेशन पर एकाएक दबाव बढ़ गया. वहां ट्रेनों की घोषणा के उचित इंतजाम नहीं थे, जिससे भ्रम की स्थिति बनी और भगदड़ मच गई.
जरा बताइये मुझे प्लेटफार्म पर कितने टीवी लगे हैं??? और कितने केवल चैनल चल रहे हैं? और उस प्लेट फार्म पर कितने लोग समाचार देख रहे थे?

सरकार क्या और हादसे चाहती है?
जो लापरवाही दिख रही है, उससे तो यही अंदाजा लगाया जा सकता है कि यूपी सरकार इस हादसे से कुछ सीखी नहीं है. यही कारण है कि अभी भी व्यवस्था चाक चोबंद नहीं है.
हाँ एक दिन व्यवस्था मस्त थी, जिस दिन मुख्यमंत्री अलाहाबाद आये थे.
बाद में फिर वही हाल. खैर इस बदइंतजामी से एक बात साफ़ हो गयी है, कि सरकार ने कुछ सीख नहीं ली है. आखिर सरकार क्या और हादसे चाहती है???


बुधवार, फ़रवरी 06, 2013

गरीब है तो क्या इसके लिए कोई आंदोलन नहीं? क्या आन्दोलन सिर्फ अमीर के लिए?

कहाँ से शुरू करू, दिल्ली के गैंग रेप से या हाल ही में सीतापुर में गरीब मजदूर की बेटी के साथ हुए गैंग रेप से?
6 फ़रवरी 2013 को अमर उजाला कानपुर-फतेहपुर
संस्करण में पेज 9 पर प्रकाशित खबर का क्लिप 
आज 6 फ़रवरी 2013 को अमर उजाल कानपूर-फतेहपुर  संस्करण (पेज 9) पर एक गैंग रेप की खबर प्रकाशित हुयी. चूँकि गरीब मजदूर की नाबालिग बेटी थी तो उसे छोटी सी दो कोलम जगह मिल पायी.
दोस्तों ये खबर भी प्रत्येक अखबार की लीड बनती अगर---गरीब/मजदूर/दलित/भिखारी/असहाय/कमजोर/ग्रामीण होती :-(
खेर जो है नहीं उसकी बात क्या करनी.

अगर बात ही करनी है तो दोहरी विचार धारा के लोगों के बारे में की जानी चाहिए. प्रेस और मीडिया के सौतेलेपन के बारे में करनी चाहिए. सरकार कि दोहरी नीति के बारे में करनी चाहिए. सच ही कहा है,
"जब समाज के लोग ही दोहरे विचार के हों, तो उन्हें सरकार, मीडिया, प्रेस, धर्म, आतंक भी दोहरेपन का मिलेगा."
16 दिसंबर की रात हुए हादसे में आंदोलन सिर्फ इस घटना पर हुआ... फिर ध्यान से पढ़िए कि इस गैंग रेप के बाद भी कई गैंग रेप हुए पर आंदोलन सिर्फ इस गैंग रेप के खिलाफ हुआ.
क्यों? बाकी क्या नाबालिग लड़किया इन आन्दोलनकारियों को "लड़कियां" नहीं लगी? या इन लड़कियों की सहायता से कुछ मिलने वाला नहीं था?
एक पीड़ित लड़की के लिए कुछ और दूसरी (गरीब/बेसहारा/दलित/मजदूर) पीड़ित लड़की के लिए कुछ और...

इसलिए एक के लिए इतना बडा आन्दोलन और दूसरी के लिए अखबार में भी जगह नहीं. खबर को इतना दबोच कर लिखा जाए के उसका दम घुटने लगे...
बड़ा दुःख होता है ये जानकर के हमारे देश के लोग दोहरी नीति के हैं.

जिस वक्त ये घटना घटी मिडिया और प्रेस को भी मसाला मिल गया और TRP बटोरने के लिए अलग अलग तरीके से इसी खबर को पेश किया गया.
लोग भी कम नहीं आन्दोलन में किसी ने आन्दोलन की आरती बना डाली तो किसी ने इस घटना पर गाने बनाए तो किसी ने गिटार, तबले बजाये. मेरा एक प्रश्न है के भाई दुखद आन्दोलन में गिटार और तबले का क्या काम?

मेरा मानना है, आन्दोलन का मकसद, पीडिता को इन्साफ दिलाना कम, उस घटना से अपना फायदा निकालना ज्यादा था. सामाजिक NGO's अचानक दिल्ली में नजर आने लगे थे... और कमाल की बात तो ये हैं की NGO's  को केवल दिल्ली का बलात्कार मामला दिखा. उसी महीने में हुए मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और खुद दिल्ली में अन्य बलात्कार की घटनाओं पर कोई टिप्पणी नहीं की.

  • सीन एक - दिल्ली में बलात्कार की घटना घटी.....मीडिया ने दिखाया, प्रेस ने फ्रंट पेज पर प्रकाशित किया, राजनेता बोले, सामाजिक कार्यकर्ता चीखे, जनता चिल्लाई.
  • सीन दो-  मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और खुद दिल्ली में उसी समय (दिसम्बर-जनवरी) बलात्कार की घटनाएं घटी पर, ...... मीडिया ने नहीं  दिखाया, प्रेस ने फ्रंट पेज पर प्रकाशित नहीं  किया, राजनेता नहीं  बोले, सामाजिक कार्यकर्ता नहीं  चीखे, जनता नहीं  चिल्लाई.
ऐसा क्यों हुआ, ये लोग ही जाने.

मुझे इस देश के लोगों का हिसाब कुछ समझ नहीं आता. आन्दोलन हुआ ठीक है, पीड़िता का नाम भी रख दिया, "दामिनी". नाम तो रखा वो तो ठीक है, लेकिन सिर्फ इसी लड़की को आप इस नाम से बुला सकते हो और अगर किसी अन्य बलात्कार पीड़ित को नहीं???? क्या उन्हें इन्साफ नहीं मिलना चाहिए? क्या उनके साथ किये कुकर्म के आरोपियों को सजा नहीं मिलनी चाहिए? क्या उन्हें देश की जनता का साथ नहीं चाहिए? क्या अजीब हैं लोग भी.
क्या आपने कभी सोचा है कि उपरोक्त घटना जब दबे/कुचले/गरीब/असहायों के साथ घटती है तो क्यों तवज्जो नहीं दी जाती. क्योंकि वो काम अंजाम दिया जाता है जिसमे व्यक्तिगत लाभ मिले. बस.
अगर व्यक्तिगत लाभ नहीं मिलता तो काम को अंजाम भी नहीं दिया जाता.

अब इस नई घटना के लिए कौन आगे आएगा?
कल (5 feb 2013) फिर गैंग रेप की घटना सीतापुर में हुयी. अब आप मुझे बताइए कि इस घटना के लिए क्या वो सभी लोग आगे आएँगे, जो दिल्ली में डेरा जामाये बैठे थे दामिनी के लिए इन्साफ मांगने के लिए? क्या दिल्ली की तरह सीतापुर में भी सामजिक NGO's नजर आयेंगे? क्या यहाँ भी तबले और गिटार बजेंगे? क्या यहाँ भी इस गरीब/दलित/असहाय/लाचार/मजदूर के लिए भी गाना लिखा जाएगा? 
क्या इसे भी "दामिनी" बोला जाएगा?????????????????????


सवाल मेरा और जवाब आपका.



सम्बंधित खबरें- http://teesrakadam.blogspot.in/2013/11/blog-post.html