सीखने के लिए मैंने हर जख्म सींचे हैं, पढ़ना है दर्द मेरा तो सब लिंक नीचे हैं

सोमवार, सितंबर 05, 2016

शिक्षक ही तो है, जो इंसान को इंसान बनाते हैं.

5 सितम्बर 2016 
शिक्षक दिवस पर शिक्षक को समर्पित

क्यों ख्वाहिशें पूरी करने को भगवान मनाते हैं,
चलो आज शिक्षक को भगवान बनाते हैं.

वो तो चढ़ावा लेते हैं, तब देते हैं आशीर्वाद,
चलो उससे सीखकर एक समाज बनाते हैं.

मंदिर न जाओ तो वो हो जाते हैं नाराज,
चलो उनके पास, सुना है वो नवाब बनाते हैं.

दलित गरीबों पर अत्याचार कर हृदय पाषाण बनाते हैं,
शिक्षक ही तो है, जो इंसान को इंसान बनाते हैं.

-बृजेन्द्र कुमार वर्मा 

शनिवार, अगस्त 13, 2016

इरोम चानू शर्मिला पर टिप्पणी क्यों?

जिसने 16 साल, देखते ही गोली मारने के कानून को हटाने के लिए अनशन किया, जिसकी दुनिया में तारीफ होती है. जिसने दूसरों की जिंदगियां बचाने के लिए अपना जीवन न्यौछावर कर दिया. जिसने दूसरों पर अपनी सारी खुशियाँ लुटा दीं, आज कुछ नासमझ लोग उनकी आलोचना कर रहे हैं.

बहुत दुखी हूँ मैं. ये देख और सुनकर. यहाँ तक कि मीडिया भी चुटकी लेने से नहीं चूक रहा. 

कहा जाता है कि 2 नवम्बर 2000 को मणिपुर के इंफाल के मालोम जगह पर असम रायफल की वजह से 10 बेगुनाह मर गये थे. इस पर "सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम 1958" को हटाने के लिए 4 नवम्बर को शर्मिला जी अनशन पर बैठ गयीं. नाक में नली के जरिये उन्हें खाना पहुँचाया जाता था. उन्हें आत्महत्या के प्रयास करने के लिए गिरफ्तार भी किया गया. एक अस्पताल में उनका कमरा जेल की तरह बन गया. पर वे जनता के लिए अनशन करती रही. 

कर साल बीतने के बाद लोगों का ध्यान वह से हटने लगा. मीडिया ने भी अनदेखा किया. एक समय ये आया की मीडिया के पास पूर्वोतर के लिए स्थान ही नहीं रहता. 


शर्मिला का दुःख- जो दिखता है वो बिकता है.

photo - from google images (link- static.independent.co.uk/
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अगर बात की जाए शर्मिला जी के अनशन की तो ये बहुत बड़ा बलिदान है उनके जीवन का. ऐसा तो अन्ना हजारे भी नहीं कर पाए. फिर भी अन्ना हजारे शर्मिला जी से ज्यादा लोकप्रिय हो गये. 
यहाँ मन दुखी होने वाली बात भी है कि इस देश में जो टीवी पर दिखता है वो लोकप्रिय हो जाता है. और जिसने सच में अनशन किया. जिसने मीडिया को अपनी तरफ नहीं ललचाया. जिसने कभी खबर बनने की कोशिश नहीं की. जिसने कभी प्रसिद्धि का नहीं सोचा. आज लोगों ने भी उन पर ध्यान देना छोड़ दिया.
कितना अजीब है. लोगों की लड़ाई लड़ने वाली को ही लोगों ने भुला दिया. शर्मिला जी शायद इससे बहुत दुखी हो गयीं.
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अब आप समझ गये होंगे कि 200-300 साल पहले देश गुलाम क्यों बना था.

अनशन ख़त्म करते ही आलोचना शुरू.

कमाल की बात ये है, कि जिस महिला ने देश की जनता के लिए सर्वस्व न्यौछावर कर दिया, जब उसने राजनीति में आकर सुधार करने का सोचा तो लोग उनकी बुराई करने लगे. अनशन ख़त्म न करने की बात कहने लगे.
अरे क्या अनशन करने का ठेका लिया है शर्मिला जी ने? क्यों अनशन पर बैठी रहे. अरे सब कुछ तो दे दिया. अब क्या रहा उनके पास? अब वो राजनीति में आकर कुछ सुधार करना चाहें तो क्या नहीं करना चाहिए? कोई आतंकवादी बनने जा रही है क्या?? और अनशन की ही बात है, तो भैया तुम करो न अनशन उन्होंने 16 साल किया तुम 16 महीने ही कर लो, तब उन पर टिप्पणी करना. अगर नहीं कर सकते तो बुराई भी मत करो.

समाज निकला धोखेबाज़ 

सच कहूं तो समाज ही धोखेबाज़ निकला. 
इस सामाज का दोगलापन देखिये..... ये समाज गुंडों को, अपराधियों को, अनपढ़ों को, लालचियों को, भ्रष्टाचारियों को, मतलबियों को तो सरकार में मंत्री बना देती है,
पर,
ध्यान से सुनना,
इरोम चानू शर्मिला जैसी देश भक्त को, जो मानवता की रक्षा के लिए अपनी सारी खुशियाँ कुर्बान करके लोगों की, इस समाज की सेवा में लग गई, उसे सरकार में मंत्री बने नहीं देखना चाहती.
हाय रे दुर्भाग्य इस देश का.

और अंत में

गलती गुंडों, मवालियों, भ्रष्टाचारियों या अनपढ़ों की नहीं है जो सरकार में बैठ गये. असल में जनता खुद गुनाहगार है. कोई गुंडा नेता है तो असल में गुंडा वो नेता नहीं.. असली गुंडा समाज है जिसने वोट देकर उस गुंडे को सरकार के लिए चुना. भ्रष्ट कभी भी नेता नहीं होता दोस्तों, भ्रष्ट होता है समाज जो 100-500 के लिए अपना वोट बेचकर भ्रष्टों को सरकार बना देता है.
गलती समाज की होती है.



सोमवार, अगस्त 08, 2016

आस्तीन के सांप (कविता)

मित्रता दिवस (7 अगस्त 2016) पर लिखी रचना

मैंने तुम को दूध पिलाया,
दूध पिलाकर खूब खिलाया,
फोटो- सौजन्य से गूगल 

तुम्हें पढ़ाया तुम्हें लिखाया,
हर गलती को माफ़ किया और

बढ़कर तुमको गले लगाया,
पर ये क्या मैं देख रहा अब,

फायदा लेकर बदल गये सब,

अब तो ऐसा लगता मुझको कर दिया कोई पाप,
क्यूंकि मैंने पाल रखे थे आस्तीन के सांप

-बृजेन्द्र कुमार वर्मा 


मंगलवार, अगस्त 02, 2016

ग्रामीण पत्रकारिता का बदलता स्वरूप

एक समय था जब समाचार सिर्फ शहरों तक सीमित रहते थे। गांव की तरफ कभी-कभार ही समचार पत्र-पत्रिकाओं की नजर जाया करती थी। वो भी अपने पत्र-पत्रिका के प्रसार को बढ़ाने या बरकरार रखने के लिए। टेलीविजन की तो ये हालत थी कि कभी गांव-देहात की खबर आ गई तो गांव का भाग्य समझा जाता था। पंूजीगत लाभ न मिलने के कारण या दर्शकों की कमी होने के कारण समाचार चैनलों ने भी कभी गांवों की ओर रुख नहीं किया। पर जैसे-जैसे विकास हुआ वैसे-वैसे टीवी चैनलों की सोच भी बदली। ये महरबानी बाजारू प्रतियोगिता से हुई या फिर बढ़ती मांग की वजह से इसे कहना मुश्किल होगा। पर जो हो रहा है, वह गांव-देहात के लिए अच्छा ही है।

देश के वैश्वीकरण ने पत्रकारिता को जो उपहार दिया वो शायद कोई भी नहीं दे सकता। क्योंकि तब तक समाचार पत्र-पत्रिकाएं और रेडियो ही लोगों तक समाचार पहुंचाया करते थे। टीवी सेट इतने थे नहीं और जो थे भी वहां बिजली की समस्या और आखिरी में सब ठीक रहे भी तो समाचार सुबह या शाम को ही नसीब होते थे। वैश्वीकरण से हर क्षेत्र में सुधार आया। कम्प्यूटर, बैंकिंग सेवाएं, बिजली पानी, सड़क, परिवहन, सेटेलाइट, उत्पादन कंपनियां और भी बहुत कुछ। ऐसे में पत्रकारिता जगत पीछे कैसे रहता। निजी समाचार चैनलों ने भी दखल दिया। हाल ये हुआ कि 24-24 घंटों का प्रसारण किया जाने लगा। विकास होने के चलते बिजली की उपलब्ध्ता भी बढ़ी और इलैक्ट्राॅनिक क्रांति से उत्पाद सस्ते हो चले। ऐसे में टेलीविजन सस्ते हो चले। जो टेलीविजन आज से 20 साल पहले 20 हजार से अधिक की कीमत का मिलता था आज वह 12 सौ में मिलने लगा। केबल नेटवर्क सैकड़ों चैनल मुहैया कराने लगे। फिर डीटीएच आ गया। समचार चैनलों की बाजार में टिके रहने की और लाभ अर्जित करने की प्रतियोगिता ने गांवों की ओर मोड़ दिया और वहां अवसर तलाश करने को मजबूर कदया दिया। हालात और बदले और तो चैनल क्षेत्रीय भाषाओं या बोलियों में प्रसारित किए जाने लगे। मलयालम, कन्नड़, तमिल, भोजपुरी, हरियाणवी, बंगाली आदि। ग्रामीण क्षेत्र को इसका बहुत लाभ हुआ। जो पढ़े लिखे नहीं थे और क्षेत्रीय भाषा अथवा बोली के अलावा अन्य नहीं जानते थे उन्हें एक दोस्त के रूप में समाचार चैनल मिल गया जो पूरी तरह उन्हीं पर केन्द्रित रहने लगा। ये विकास की बड़ी सीढ़ी साबित हुआ। लोग घर से निकल कर अपनी बात कहने के लिए बाहर बेझिझक आने लगे।

आज यह स्थिति है कि हर कोई गांवों की ओर देख रहा है। टीवी चैनलों के राष्ट्रीय चैनलों के साथ क्षेत्रीय चैनल भी खुल रहे हैं। बिजिनेसमेन गांवों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। अखबार ग्रामीण संस्करण निकाल रहे हैं। शहर के शोर से दूर लोग गांवों में जमीन लेकर शांति से रहना पसंद कर रहे हैं। सड़कें गांवों से जुड़ रही हैं। खरीद-फरोख्त में बिचैलिए कम होते जा रहे हैं। आॅनलाइन शाॅपिंग गांवों तक डिलीवरी देने की होड़ में लग गए हैं। औसतन कहें तो गांव बदल रहे हैं। गांव अब गांव नहीं रह गए।

अब बात करते हैं पत्रकारिता की। पत्रकारिता में भी पिछले 20 वर्षों में भारी परिवर्तन देखने को मिला। जहां एक ओर आज से 20 वर्ष पहले पत्रकारिता एवं जनसंचार के दो-चार संस्थान हुआ करते थे, वहां आज के समय लगभग-लगभग हर बड़े शहर में पत्रकारिता संस्थान है जैसे दिल्ली, मद्रास, मुंबई, कोलकाता, लखनऊ, भोपाल आदि। देश के तमाम विश्वविद्यालयों में भी पत्रकारिता के पाठ्यक्रम संचालित किए जा रहे हैं।

पत्रकारिता का अपना जुनून है। जोखिम भरा कॅरियर होने के बावजूद युवा इस क्षेत्र में आकर देश की सेवा करते हैं। देश के बड़े-बड़े भ्रष्टाचार को पत्रकारों ने ही उजागर किया है। हम कह सकते हैं कि पत्रकारिता संस्थान और पत्रकारों की बढ़ती मांग और पूर्ति से पत्रकारिता जगत में तमाम आयाम खुले। जैसे, राजनीतिक पत्रकारिता, खेल, अपराध, सामाजिक, विज्ञान, सांस्कृतिक, ग्रामीण, कारोबार, पर्यावरण, फोटो आदि। इन सभी कॅरियर क्षेत्रों में एक ग्रामीण पत्रकारिता। हालांकि यह कारोबार या राजनीतिक पत्रकारिता जितना आकर्षक न हो लेकिन सम्मान जनक जरूर है। क्योंकि यह ग्रामीणों पर पूरी तरह केन्द्रित होता है। उन्हें मिलने वाली सुविधा, सरकारी योजनाएं, वहां घट रही घटनाएं, अपराध, मिलने वाला राशन, किसी योजना का प्रचार-प्रसार, भ्रष्टाचार, चोरी-डकैती आदि बहुत सार मुद्दों को उठाया जाने लगा। 

आज ग्रामीण पत्रकारिता का महत्व ये है कि देश की राजनीति में ग्रामीण मुद्दों पर चुनाव लड़ा जाने लगा है। इसमें शौचालय, जल हैंडपंप, मनरेगा, किसान कर्ज आदि शामिल हैं। यही कारण है कि अब पत्रकारों का रुझान ग्रामीण पत्रकारिता की ओर बढ़ रहा है। यहां सम्मान ज्यादा है। जितना शहर में पत्रकारों को सम्मान की नजरों से देखा जाता है, उससे कहीं ज्यादा ग्रामीण क्षेत्र में पत्रकारों का सम्मान है। ग्रामीण पत्रकारिता का भविष्य अन्य पत्रकारिता के क्षेत्रों से ज्यादा हैं। ग्रामीण विकास के लिए यह अच्छी बात है और इसे यूं ही बढ़ते रहना चाहिए।

गुरुवार, जुलाई 21, 2016

सूखी का स्कूल

बृजेन्द्र कुमार वर्मा 
घोषणा- ये कहानी पूर्णरूप से काल्पनिक है। इसका किसी भी व्यक्ति विशेष या स्थान या किसी संस्थान से कोई भी/किसी भी प्रकार का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष संबंध नहीं है।
अगर कहीं भी किसी पाठक को ऐसा लगता है तो वह उसकी निजी सोच मात्र होगी और कुछ नहीं।

हर बार की तरह ये दिन भी कुछ नया नहीं था। बस, वही सुबह, वही उगता सूरज और स्कूल जाते बच्चे। सूखी के लिए ये कोई नई बात नहीं थी। उसका काम सूरज उगने से पहले ही शुरू हो जाता था और सूरज के ढलने तक चलता रहता था। गांव का हर किसान यही कहता, ‘सूखी पांच साल की है जरूर पर किसी तीस साल की महिला से कम काम नहीं करती’। कई बार तो सूखी के मां-बाप से भी गांव वालों की बहस हो जाती। 
जो कोई उसका मुस्कराता चेहरा देखता तो थोड़ी देर के लिए अपनी सारी समस्याएं भूल जाता। एक दिन पड़ोस की बड़ी अम्मा ने सूखी को सरसों का बड़ा गट्ठा सर पे ले आते देखा तो सूखी की मां पर तिलमिला उठी।
‘कय, सूखी की अम्मा, तोय शरम नहीं आत, के मोड़ी इत्ती सयानी तो नाएं भई अबे के तुम बाते सुबह-शाम कामई करबात राओ’। सूखी की मां चुप रही। बड़ी अम्मा सख्त नाराज दिखीं। अपनी आवाज में ओर जोर देकर सूखी के पिता से कहा। ‘का, गुचुरिया (गर्दन) टोड्रयो का, तोय दिखात नहीं, बा इत्तो बड़ो गठा उठाए लिये?’ 
पड़ोस के चाचा भी आ गए, सूखी इनको बहुत प्यार करती थी। इसका भी एक कारण था। शाम होते ही चाचा किताबों की कहानियां सुनाया करते थे। क्योंकि चाचा शहर में तेहरवीं में पढ़ते थे और वहां से कहानियों की किताब लाते और सूखी के साथ और बच्चों को सुनाते। सूखी इन्हें गौर से सुनती और कहती मैं भी किताबे खरीदूंगी और पूरे गांव को कहानियां सुनाया करूंगी। चाचा सुन कर हंस देते। 
बड़ी अम्मा की नाराजगी देख पिता ने उनकी ओर देखा और सर पर पड़ी गठरी की धूल को झाड़ते हुए छप्पर के बाहर चले गए। बोले कुछ नहीं। बोलते भी कैसे, कर्ज लेकर जैसे-तैसे बटाई पर खेती की, इटावा में नहर न होने के कारण ट्यूबवेल से पैसे देकर सिंचाई की और जब फसल पकने को आई, तो एक रात में ही बादलों ने अपना डेरा डाल लिया। आनन-फानन में फसल काटी और भींगने से बच जाए, इसलिए जल्दी जल्दी बीवी बच्चों के साथ उसे छप्पर में रख लिया। इसमें सूखी पर भी काम का भार पड़ा। पर पिता करता भी तो क्या। 
बड़ी अम्मा इस बात को जानती थी, पर उनका तर्क था कि पांच साल की लड़की से व्यस्क व्यक्ति जितना काम कैसे कराया जा सकता है। छोटे-मोटे काम हर कोई करता है, गांव में और भी बच्चे हैं, सब खेलते हैं, सिवाए सूखी के। 
आज तो हद हो गई थी, आज सूखी का चेहरा मुस्कराता हुआ नहीं था। बड़ी अम्मा ने वापस अपने घर जाते हुए ऐसे कहा, जैसे कोई फैसला सुना रही हों।
‘सूखी, तू कल से स्कूल जाओ कर। पंचे में परीयई। बा दिना माहट्टर आओ तो, पूछत तो काउको दखिला होन है के नाईं, तू जा हम देखत तोए को मना करये’
इतना कहना था कि सूखी की गर्दन का दर्द भी बंद हो गया, बिना हांथ-पांव धोये थकान भी चली गई। ऐसे मुस्कराई जैसे आज चांद को अपनी चांदनी बिखेरने की जरूरत ही नहीं। भागती हुई चाचा के पास गई और बोली।
‘चाचा, अब हमऊं पढ़न जयहैं। बड़ी अम्मा कात ती, कै तू स्कूल जाओ कर, तेरी उमर हुईयई  पढ़वे लाए’। 
इससे पहले चाचा शुभकामना देते, भागती हुई सहेलियों को बताने चली गई। शाम को भैंस को पानी भी सूखी की जगहर पिता ने ही पिलाया। सूखी देर से घर लौटी। रात का भोजन बनाते हुए मां चिंतित थी। पिता ने चिंता का कारण भी पूछा। मां चुप ही रही। पर, मन की उधेड़ बुन को सुलझा नहीं पा रही थी। अगर सुबह मां ने सूखी को पढ़ने के लिए भेज भी दिया तो भैंस को सानी कौन लगाएगा? घर पर भी तो किसी को रहना होगा। क्योंकि स्वयं तो ठेकेदार के साथ मजदूरी पर चली जाती है और पिता बटाई के खेत पर काम करते हैं। अगर मां घर में रहे तो सिर्फ पिता की कमाई से घर नहीं चल सकता। मां ने तय कर लिया सूखी पढ़ने नहीं जाएगी। 
सुबह हुई, मां काम में लग गई, पिता गुमटी पर बीड़ी पीने चले गए। सूखी सड़क पर जा खड़ी हुई, बच्चे साफ-सुधरे खाकी कपड़े पहने हुए, आंखों में काजल, बाल संवरे हुए, काले जूते पहने स्कूल जा रहे थे। कंधे पर बस्ता। सूखी बड़े ध्यान से सबको देख रही थी। क्योंकि अब उसे भी ऐसे ही अनुशासित होकर स्कूल जाना होगा, वरना मास्टर साब स्कूल में बैठने नहीं देंगे। सूखी घर में तैयार होने के लिए अंदर आई ही थी, कि मां ने कहा, ‘हम जाए रए बिटिया..... हमने गोबर एक तार कद्दओ, तुम बस कंडा पाथ दियो’
ये क्या? सूखी को कुछ समझ नहीं आया। मां ने काम क्यों दिया? उसे तो स्कूल जाने को कहा गया, स्कूल के बाद कुछ भी काम दिया जा सकता था।
सूखी ने कभी काम से मना नहीं किया पर आज उसका काम करने का मन नहीं था, आज उसे स्कूल जाना था। पिता भी बिना कुछ बोले हार (खेत) चले गए। अब क्या सूखी काम में लग गई ओर सड़क के किनारे गोबर ले जाकर कंडा पाथने लगी। एक तरफ स्कूल की घंटी कानों में हल्की हवा के झोंके के साथ सुनाई दे रही थी तो दूसरी तरफ कंडा पाथते हुए हाथों की थाप की आवाज। आते-जाते सहेलियां पूछती रहीं कि उसे तो स्कूल जाना था तो गई क्यों नहीं? सूखी अब भी मुस्कुरा रही थी। 
दिन बीता, मां घर आई, पिता भैंस को घास डाल रहे थे। सूखी के पास सवाल थे, जिसका उत्तर उसे आज लेना था। रात को पिता को भोजन परोसा, और अपनी मुस्कान के साथ पिता को कहा, ‘पापा कल ते लता जिजी संगे हमऊं स्कूल जएंयें’ पिता ने उसकी मुस्कान की तरफ नहीं देखा, देख लेते तो सूखी को मना नहीं कर पाते, इसीलिए नजरें झुका के बोले, ‘नईं, अबे नईं, अबे घर में पैसा है नाईं’
‘पर चाचा कात ते के स्कूल में तो फ्री में दाखिला हुइयात’, सूखी ने तपाक से तर्क किया।
‘अरे तो कपड़ा तो खरिदबाओं परये के नाईं’, पिता ने वितर्क किया।
‘नहीं कपड़ऊ मिलत हैं’, सूखी अब भी मुस्कुरा रही थी।
‘अरे तो किताबन काजे हमपे पैसा नाईं हैं, और न ही हम पढ़ाए सकत’, पिता ने आखिरी दांव फेंका, सोचा सूखी को इतना तो पता नहीं होगा। पर चाचा के पास वो सिर्फ कहानियां ही सुनने नहीं जाती थी, अच्छी-अच्छी जानकारियां भी लेती थी। 
‘चाचा ने कई हमते, किताबें ही नाईं वजीफाउ मिलो करये हमें, जानत ओ’, सूखी का चेहरा अब उतरने लगा। पिता राजी नहीं हो रहे थे। भोजन कर लिया, लौटा उठाया और हाथ धोने चले गए। आखिरकार उनके मुंह से भी वो बात निकल गई जिसका सूखी के सवाल पिता के दिमाग में मंथन कर रहे थे। 
‘हम दोनों तो घर ते चले ही जात, अब तुमहुं चली जइयो तो, घर में को रहये? और जा भैंस को दिखये?’ भैंस ग्यावन थी, कुछ हफ्तों में ही उसको बच्चा होना था। ऐसे में अगर उसकी देखभाल सही नहीं हुई तो दूध कम देगी और उसकी कीमत भी कम हो जाएगी। ऐसे में उससे हो सकने वाली आय प्रभावित होगी, जो पिता कभी नहीं चाहता। इसलिए घर में सूखी रहेगी तो भैंस की देखभाल भी रहेगी और घर के काम भी होंगे। मां अगर घर में रही तो पैसे की कमी पड़ जाएगी।
‘बस, अब नाईं, तुमाई बात सुन लई हमने, कोई स्कूल नाईं जएये’
‘हम स्कूल जएंये’, पहली बार पिता के खिलाफ सूखी ने जवाब दिया। जिसकी पूरा गांव तारिफ करता था, जिसकी मुस्कान देख किसान अपनी दिन भर की थकान मिटाते थे, आज वो अपने पिता के खिलाफ जा रही थी। मां भी सोच रही होगी, कौन है जो इसे ऊंची आवाज में बोलना सिखा रहा है, कौन है जो पिता के खिलाफ बोलने को प्रेरित कर रहा है। कहीं लड़़की हाथ से निकल तो नहीं रही?
अगले दिन बादल मंडराने से कम रोशनी थी या सूखी की मुस्कान उसके चेहरे पर नहीं थी, इसका कारण तो पता नहीं लगा पर हां, बड़ी अम्मा को पता चला कि सूखी की मां ने उसे पीटा है। बड़ी अम्मा के ताक-झांक करने पर पता कि शायद सूखी को मार इसलिए पड़ी कि मां बार-बार गोबर-कूड़ा एक तार करने के लिए कह रही होगी और सूखी सड़क पर स्कूल जाते बच्चों को देख रही होगी। बात अनसुनी की तो सूखी की मार पड़ी।
बच्चे मिट्टी में खेलते हैं, काम बिगाड़ते हैं, घर के काम से जी चुराते हैं, पर गांव में कोई बच्चों को नहीं मारता और एक सूखी है, जिसने शिक्षा के सपने देखे तो उसकी पिटाई हुई। रात को खूब बारिश हुई। ऐसा लग रहा था मानो गांव में पानी नहीं बरसा बल्कि सूखी के साथ बादल भी रात भर रोए हों। 
क्या गलत किया, बच्चों को स्कूल जाते हुए ही तो देखा, किसी को धक्का तो नहीं मारा न, कोई चोरी तो नहीं की न, घर का काम तो नहीं बिगाड़ा न। दो किताबें पढ़ना क्या गलता हैं? अगर वो पढ़-लिख जाएगी तो क्या मां-बाप की नाक कट जाएगी। सूखी तो घर का पूरा काम करती है। किसी को शिकायत का मौका नहीं देती। सबका कहना मानती है, तो उसका एक कहना क्यों नहीं माना जा रहा। उसने दाखिला के लिए पैसे तो नहीं मांगे, स्कूल के लिए रोटी तो नहीं मांगी, उसने नए कपड़े भी नहीं मांगे, किताबें भी नहीं मांगी, ये सब तो उसे मुफ्त में मिलना ही है। उसने तो सिर्फ अपने मम्मी-पापा की सहमती ही मांगी थी। वो भी नहीं मिली। इतना ही नहीं मां तो सोचने लगी कि लड़की बिगड़ने लगी है। बचपन में ठीक थी, बीमार हो जाती थी, एक जगह पड़ी रहती थी, उस समय इतनी कमजोर ही हुआ करती थी कि उससे चला ही नहीं जाता था, तभी तो उसे सब ‘‘सूखी’’ ‘‘सूखी’’ कहने लगे थे, घर से बाहर भी नहीं जाती थी, अब तो जब देखो तब दरवाजे पर आते जाते लोगों को निहारती रहती है, मां का कहना भी नहीं मानती। उफ्फो.... अब तो इसके हाथ-पांव तोड़ने ही पड़ेंगे। 
आज सूरज देवता भी तनतनाए निकले, जैसे सूखी की पिटाई से नाराज हों, धूप इतनी की पल-पल में प्यास लगे। पिता सुबह सुबह ही खेत मजदूरी पर निकल गए। अपने सपनों को आंखों में मलते हुए सूखी उठी और बढ़नी (झाड़ू) उठा गोबर कूड़ो करने लगी। मां ने भोजन तैयार किया और मजदूरी पर जाने लगी। हर बार की तरह पिता को खेत पर रोटी समय से देने की बात भी दोहरा दी। पर इस बार मां ने रोज की तरह नहीं कहा। आज ऐसे कहा जैसे सुधरने का आखिरी मौका दिया जा रहा हो कि उल्टे सपने मत पाल। सूखी ने सुना और काम में लगी रही। 
सूखी स्कूल को लेकर मन में आ रहे विचार के झंझावतों में फंसी रही। मां ऐसा क्यों सोच रही है। क्या मेरा जीवन ऐसे ही व्यतीत होगा... मां क्यों मेरे सपने नहीं पूरे होने देना चाहती। क्या मां ऐसी होती है या मां के सामन कोई ऐसी मजबूरी है जो मां मुझसे छुपा रही है और मुझे स्कूल जाने से रोक रही है। गरीब पैदा हुए हैं तो क्या गरीब रहकर मर जाएं। क्यों मुझे अपना नसीब बनाने का हक नहीं। क्यों सिर्फ बड़े वर्ग के पास किताबें हैं? क्या मुझे किताब पढ़ने का हक नहीं? मैं क्या सिर्फ जीवन भर मजदूरी करने के लिए पैदा हुईं हूं, मेरा हाड़ मांस दूसरों के हाड़ मांस से अलग है। क्या मुझे प्रकृति ने बड़े वर्ग के बच्चों से अलग बनाया है? क्या प्रकृति ने मुझे कम दिमाग दिया है? गांव के उस ओर जब छोटे ठाकुर जी का लड़का पढ़ सकता है तो मैं क्यों नहीं? एक दिन चाचा कह रहे थे पंडित जी की बिटिया बड़े स्कूल में पढ़ने के लिए शहर चली गई। जब ये सब पढ़ सकते हैं तो मुझे किताबों से दूर क्यों रखा जा रहा? सबके माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ा रहे हैं तो मेरे माता-पिता मुझे क्यों रोक रहे हैं? क्या मेरे माता-पिता मुझसे प्यार नहीं करते? या कोई ओर बात है? कौन सा डर उन्हें सता रहा है, जो मुझे स्कूल भेजने से मना कर रहा है? क्या मैं इतनी बुद्धिमान हूं कि लोग मुझसे डर रहे हैं और मेरे हाथों में किताब नहीं दे रहे? क्या मैं पढ़ लिख कर इतनी बड़ी हस्ती बन जाऊंगी कि लोग मुझे बड़े पद पर देख कर सहन नहीं कर पाएंगे? मेरी क्या गलती है, जो ऐसी पैदा हुई।
सूखी ने गोबर-कूड़ो कर खाना खाया और चौका बासन कर पिता को खेत रोटी देने चल दी। खेत को जाते हुए एक ओर स्कूल दिखता था। स्कूल की छुट्टी होने वाली थी। सूखी कभी रास्ते पर ध्यान देती तो कभी स्कूल की ओर देखती। स्कूल में बच्चों की हलचल उसकी जिज्ञासा बढ़ा देती। सूखी ने स्कूल की ओर मुख किया और अनायास रुककर सोचन लगी। अगर घर का सारा काम जल्दी खत्म कर लिया जाए और पिता को रोटी स्कूल की छुट्टी होने के बाद पहुंचा दी जाए तो पिता को भी दिक्कत नहीं होगी और मुझे भी। रही बात भैंस और घर की तो भैंस को सुबह भुस की सानी मिल ही जाती है और घर में ऐसा है क्या जो चोरी हो सके। और वैसे भी पड़ोस में बड़ी अम्मा है तो। बस, अब क्या था सूखी की मुस्कान फिल लौट आई। पिता को रोटी दी। कुछ समय वहीं रुकी और घर लौटने लगी। उसकी मुस्कान से अब सूरज भी पसीज गए, ठंडी हवा भी चलने लगी। अब तो सूखी को रात का इंतजार था। रात को सूखी माता-पिता को पूरी बात समझा देगी और विश्वास दिलाएगी कि घर का कोई काम नहीं रुकेगा। पिता ने भैंस को सानी लगाई। मां ने भोजन बनाया। सूखी ने पिता को भोजन परोस कर दिया और स्कूल जाने के लिए दोपहर में बनाई योजना पिता को सुनाई।
‘‘पापा... जा बताएरै... हम रोजई जल्दी उठो करयैं और सबरो काम खतम करलेओ करयैं, फिर स्कूल चले जाओ करयैं, जैसे ही घंटी बजयै तुम्हें रोटी देन आ जाओ करयैं.... हओ?’’
बेटी की बातों को सुन के पिता का दिल पिघल गया। कैसे कहे पिता कि वो तो चाहता है कि तू तो लाटसाब बने, कलेक्टर बने पर हाय रे हमारी तकदीर जो हम ऐसे पैदा हो गए। तुझे क्या पता बेटी तूने आज किताबें हाथ में थामी उधर कुछ लोगों की आंखों में तू खटकने लगेगी। तुझे परेशान करना शुरू कर देंगे। हमें भी मारा-पीटा करेंगे। और अगर तू होशियार निकली तो तुझे रास्ते से हटाने की कोशिश करेंगे, उठा लेंगे। और चंूकि तू लड़की है तो न जाने क्या-क्या करेंगे तेरे साथ। इस देश में बलात्कार सिर्फ आकर्षक शरीर देखकर ही नहीं होते, बल्कि कई बार रंजिश के कारण, बदला लेने कारण, किसी को नीचा दिखाने के कारण, जातिगत और कभी-कभी अपनी सत्ता और शक्ति प्रदर्शन करने के कारण भी होते हैं। मेरी प्यारी बेटी तू इन बड़े लोगों से जीत नहीं पाएगी। तेरे पास सिर्फ दिमाग है। पर उनके पास दिमाग, पैसा और ताकत सब हैं। 
सूखी, पिता के मन को पढ़ नहीं पा रही थी। पिता खाना खा चुके थे। रात में करोसिन की डिब्बी जल रही थी, पिता का चेहरा साफ नहीं दिख रहा था तो सूखी ने उत्तर जानने को कुछ बोला, ‘‘का कात पापा....’’
‘‘का बताएं बिटिया.... तुमहंू एकई बात पे अड़ी ओ...’’, पिता ने धीरे-धीरे लंबी संास छोड़ते हुए अधूरा उत्तर दिया। 
सूखी समझ चुकी थी कि पिता उसकी बातों से सहमत नहीं हैं। शायद पिता को योजना पसंद नहीं आई। मां भी भ्रकुटी टेढ़ी करके देख रहीं हैं। सूखी चुपचाप छत पे बिछोनिया करके लेट गई, आसमान में देखने लगी। देखो तो सितारे कैसे चमक रहे हैं। कितने आजाद हैं ये सितारे। क्या किसी एक सितारे ने दूसरे सितारे को चमकने से रोका? रात को अपनी मर्जी से आते हैं और सुबह होते ही अपनी मर्जी से चले जाते हैं। इन्हें तो कोई चमकने से नहीं रोकता? और अगर कभी-कभार बादलों ने सितारों को एक-दो रात रोकने को प्रयास भी किया तो क्या, वे बादल भी बरसते हुए जमीन पर बिखर ही जाते हैं न। इन सितारों पर कोई पाबंदी नहीं तो फिर मुझ पर पाबंदी क्यों? 
‘हम तो स्कूल जएयैं’, सूखी ने इतना बोला और सो गई।
आज सूखी बिना आंखें मले, पौं फटने से पहले ही उठ गई। गौरेया भी सूखी की आवाज से ही जागी, जिसका घोंसला आंगन में लगे नीम के पेड़ पर था। मां सोच में पड़ गई कि मुझसे भी पहले उठ गई, इतनी जल्दी? जब तक पिता जागे तब तक सूखी गोबर-कूड़ो कर चुकी थी, पिता हैरान थे, मां परेशान थी। नीम का दतोन तोड़ कर पिता बड़ी अम्मा के नल पर कुल्ला करने चले गए। बड़ी अम्मा जान चुकी थी कि सूखी आज भौर में ही उठ गई है। आज उसका कहा होने वाला सा लग रहा था। पर, मां ने आज खाना नहीं बनाया, ये काम सूखी को दे दिया गया, मां समझ गई थी कि इसे स्कूल जाना है और रोकने का यही तरीका है। सूखी मुस्कराई और खाना बनाने में लग गई। आज मां बिना खाए पिए ही काम पे जाने लगी और सूखी को कह दिया कि पहले मुझे रोटी देने आ जाए और फिर दोपहर में पिता को खेत में रोटी दे आए। पिता भी ये सुनकर चल दिए। मां ने पिता का चेहरा देखा और नजरें चुराते हुए चली गई। पिता भी बिना बगैर खाए चले गए। सूखी थोड़ा बहुत भोजन बनाना जानती थी सो बना दिया। पर सोचने लगी कि अब स्कूल जाना संभव नहीं होगा, क्योंकि भोजन बनाने में देर हो गई, इसके अलावा दो जगह रोटी पहुंचाना है। पहले मां को और फिर दोपहर में पिता को। फिर भी सूखी ने नहाया, स्वयं रोटी खाई फिर कागज में रोटी बांधी और मां को देने चल दी। रास्ते में स्कूल दिखाई दिया, स्कूल की आधी छुट्टी हो चुकी थी। बच्चे इधन-उधर घूम रहे थे। स्कूल देख सूखी सोचने लगी, कहीं ऐसा तो नहीं कि मुझे स्कूल जाने से रोकने के लिए मां ने मुझसे भोजन तैयार कराने का नया पैंतरा अपनाया हो। अगर ऐसा है तो मैं तो कभी स्कूल जा ही नहीं पाऊंगी। 
बस फिर क्या था सूखी ने पहले रोटी देखी और स्कूल की तरफ मुड़ी.... रोटी देखते हुए बोली, ‘‘मम्मी तुम और पापा तुमहूं.... आज दोऊ भूखे बने रओ और बेसे भी हमने अच्छी सब्जी नहीं राहंदी...’
सूखी मुस्कराई और तेजी से स्कूल की तरफ दौड़ते हुए चिल्लाई... ‘हम तो जाएरयै स्कूल’।

मंगलवार, जुलाई 19, 2016

संचार की भाषा

अन्य देशों की तुलना में भारत में संचार प्रक्रिया पर ध्यानाकर्षण अन्य देशों की तुलना में देर से जरूर गया, लेकिन आज स्थिति देश में बहुत अलग है. हमारा देश विविधताओं का देश हैं. बीस से अधिक भाषायें और न जाने कितनी बोलियाँ प्रचलित हैं. ऐसे में देश में संचार प्रक्रिया को समझना बहुत जटिल हो जाता है. आधारित तौर पर तो संचार प्रक्रिया सामान्य है. अन्य देशों की तरह भारत में भी सामान्य संचार प्रक्रिया के तहत हम संचार कर सकते हैं. लेकिन जब बात भारत देश की हो तो थोड़ा सोचना पड़ता है. 
प्रेषक - सन्देश - माध्यम - प्राप्त कर्ता ..... यह तो सामान्य प्रक्रिया है. लेकिन भारत में बहुत अधिक बोलिया हैं.. कई भाषाएँ हैं. ऐसे में हम चाहे कि एक ही बार में एक ही भाषा में सभी भारतियों को सन्देश भेज दिया जाए तो शायद ये मेरे अनुसार संभव नहीं है. 
एक कहावत तो सुनी होगी आपने, "कोस-कोस पर पानी बदले तीन कोस पर बानी" ये यूं ही प्रसिद्ध युक्ति नहीं है. असल में यह बहुत गंभीर कथन है संचार शास्त्रियों के लिए.
चाहे सरकार चाहे या कोई विज्ञापन जारी करने वाली कंपनी या कोई भी बड़ा आदमी, एक सन्देश को भारत में एक ही भाषा में जारी नहीं कर पाते. इसे चाहे समस्या कहा जाए या मजबूरी, होता तो ऐसा ही है. ऐसा इसलिए होता है क्यूंकि एक क्षेत्र का व्यक्ति दुसरे क्षेत्र के व्यक्ति की भाषा नहीं समझ पाता.
21वीं शताब्दी के 15 वर्ष बीत जाने के बाद भी, जबकि लाखों लोग एक प्रदेश से दुसरे प्रदेश में रहते हैं, फिर भी एक क्षेत्र का रहवासी दुसरे क्षेत्र के रहवासी की भाषा नहीं समझ पाता. 
अब बात आती है कि संचार कैसे किया जाए कि भारत में एक प्रेषक एक ही बार में अधिक से अधिक संख्या में भारतियों से जुड़ सके???
ये सवाल ज्यादातर बहु-राष्ट्रीय उद्योगों के होते हैं, जैसे वाहन निर्माता, बिल्डर्स, मार्केटिंग कंपनी, सॉफ्टवेयर कंपनी, मोबाइल फ़ोन, कंप्यूटर या इसके अलावा और भी. 

दोष- भारत में वर्चस्व की भी लड़ाई है, चाहे वह धर्म की हो या भाषा या धन की. हर कोई अपनी चीज से लोगों को जोड़कर अपने को मजबूत साबित करना चाहता है. पूरे देश में हिंदी बोले जाने को लेकर बहस चल रही है कि देश में एक भाषा हिंदी को संचार की प्रमुख भाषा के तौर पर होना चाहिए. वही दूसरी और राजनीति करते हुए हिंदी को दक्षिण क्षेत्र में फैलने नहीं दिया जाता है. दक्षिण भारत में तो यह स्थिति है कि हिंदी भाषा को न फैलने देने पर राजनीति होती है, दक्षिण अपनी भाषा को पूरे देश में फैलाना चाहते हैं, और हिंदी भाषी हिंदी को देश में प्रमुख भाषा बनाना चाहते हैं. भाषाओँ के प्रसार के लिए फिल्म, गानों के एल्बम, नाटक, अखबार, समाचार चैनल जैसे माध्यमों का सहारा लिया जाता है. इस तरह के प्रयासों में हिंदी, उर्दू, तमिल, पंजाबी, बंगाली, मराठी, कन्नड़, मलयालम, आसामी, गुजराती आदि भाषाएँ शामिल हैं. 

यही कारण है कि देश में एक भाषा में संचार करना मुश्किल हो जाता है. हर कोई उद्यमी या सरकार किसी योजना या उत्पात को लोगों तक पहुचाने के लिए एक भाषा का उपयोग न करके क्षेत्र विशेष कि भाषा को अपनाता है. कई विद्यामानो ने तो प्रभावी संचार के लिए क्षेत्रीय भाषा को मत्वपूर्ण माना है. यही कारण है कि विभिन्न टीवी चैनलों ने अपने अपने क्षेत्रीय चैनल शुरू किये. इससे उन्हें न केवल ज्यादा मुनाफा हुआ, बल्कि क्षेत्रीय भाषा होने के कारण लोग जुड़ने भी लगे. 
हमारे देश में प्रभावी संचार में भाषा बहुत बड़ा अवरोधक रही है. तमाम संचार शास्त्री इस बात से सहमत हैं. 

नुकसान - भारत में सभी भारतियों के लिए एक संचार भाषा न हो पाने के कारण. विदेशी भाषा अंग्रेजी नें देश में आपने पैर जमा लिए. ऐसा नहीं कि भारत में अँगरेज़ आये तभी अंग्रेजी ने जोर पकड़ा. एक तर्क से आप समझ सकते हैं. जब 1947 में भारत आज़ादी के बाद अँगरेज़ भारत छोड़ कर गये तो तब अंग्रेजी भाषा से ज्यादा हिंदी और अन्य भाषा बोलने वाले लोग मौजूद थे, अर्थात उस समय अंग्रेजी से ज्यादा हिंदी, तमिल, मराठी, उर्दू, कन्नड़, बंगाली और अन्य भाषाएँ बोलने वालों की संख्या थी. 
फिर भी पिछले 50 सालों में अपनी अपनी भाषा को प्रमुख बनाने कि लड़ाई ने विदेशी भाषा अंग्रेजी को आसानी से प्रमुख बना दिया. अंग्रेजी को प्रमुखता देने वालों में बहु राष्ट्रीय कम्पनियाँ, सेवा क्षेत्र, विदेश से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े संस्थान हैं. 
आज देश में संचार की प्रमुख भाषा अंग्रेजी हो चली है. हिंदी दुसरे स्थान पर है. अंग्रेजी का प्रसार इस पर से किया जा रहा है कि अगर आप अंग्रेजी बोलते हैं तो आप आधुनिक हैं और हिंदी बोलते हैं तो आप आधुनिक नहीं है. दिखावे कि दुनिया ने न चाहकर भी अंग्रेजी बोलने पर विवश कर दिया लोगों को. ऐसे में हिंदी और दबती चली गई. हिंदी को सींचने वाले ही अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाने लगे. आज ये आलम है कि व्हाट्स एप, फेसबुक, हाइक, ट्विटर, स्कूल, कॉलेज, होटल, केफे, पार्क आदि हर जगह हिंदी कम अंग्रेजी बोलने वाले ज्यादा मिलेंगे.

अंत में - सवाल फिर वही पैदा होता है, कि संचार किस भाषा में किया जाए कि एक ही भाषा में सभी भारतियों से बात की जाए?  अंग्रेजी का बोल बाला हर जगह है पर फिर भी इस देश में आधी आबादी को भी अंग्रेजी बोलनी नहीं आती. अंततः आप अंग्रेजी बोलकर भी आधी आबादी से नहीं जुड़ सकते. 

अगर देश एक भाषा को प्रमुख बनाने में सहयोग कर दे, और हर भारतीय किसी एक भाषा को स्वीकार कर ले तो समझ लीजिये अंग्रेजी को देश छोड़ने में देर नहीं लगेगी. चीन इसका एक बहुत बड़ा और गंभीर उदहारण है. 

सोमवार, फ़रवरी 15, 2016

चरण वंदन

बृजेन्द्र कुमार वर्मा 
घोषणा- ये कहानी पूर्णरूप से काल्पनिक है। इसका किसी भी व्यक्ति विशेष या स्थान या किसी संस्थान से कोई भी/किसी भी प्रकार का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष संबंध नहीं है। अगर कहीं भी किसी पाठक को ऐसा लगता है तो वह उसकी निजी सोच मात्र होगी और कुछ नहीं। लेखक ने इसी वजह से कि कोई इस कहानी को किसी से जोड़ कर न देखे, कहानी में स्थानों का और संस्थानों का नाम नहीं लिया है। 

1
आज सुबह से ही मां गुस्से में थी। एक तो सुबह-सुबह पति के लिए नाश्ता तैयार करना और दूसरे घर काम। घर में सब हैं पर कोई काम के आड़े नहीं आता। पीएच0 डी0 के लिए एडमिशन का एक्जाम होने के बाद तो विक्रम आलसी हो गया था। मां कितना भी कहे पर बस पड़ा रहेगा, लेकिन कोई काम नहीं करता। 
‘हाथी हो गया है, लेकिन पड़़ा रहेगा कोई काम नहीं कर सकता। इतना बड़ा हो गया , कुछ तो घर के काम किया कर’, आज मां नाराज दिख रही थी।
विक्रम सुबह 9 बजे आंखे मलते हुए उठा और भांप गया कि मां आज नाराज लग रही है। इसलिए जल्दी से घर के कामों में लग गया। घर के काम किए फिर अपने बेड पर बैठ गया। सोचा के 11 बजे के बाद कुछ देर पढ़ाई कर ली जाए। पीएच0 डी0 का एक्जाम दिए 20 दिन हो चुके थे। पता नहीं कब परिणाम आएगा। इसी सोच में पढ़ाई में लग गया। 
मां फिर जोर-जोर से बोलने लगी। फोन विक्रम की तरफ फैंकते हुए बोली, ‘ये फोन आ रहा है, बस अब गप्पे हांको और कुछ तो काम नहीं तेरे दोस्तों को भी। आग लगे इस मोबाइल को’। विक्रम ने नज़रें झुकाते हुए चुपके से फोन कान में लगाया और हल्के से बोला। फोन दोस्त का आया था, तेज आवाज में बोला, ‘अबे जल्दी से कम्प्यूटर खोल पीएच0 डी0 का रिजल्ट आ गया है। मेरा और तेरा दोनों का नाम है। 7 दिन बाद इंटरव्यूह है। विक्रम उछल पड़ा। अभी तक मां जोर-जोर से खुशफुसा रही थी। अब विक्रम चिल्लाते हुए किचन में गया और दोपहर का भोजन बना रही मां को गोद में उठा लिया। 
‘अरे क्या कर रहा है नाशमिटे, गिर जाऊंगी मैं’ मां ने संभलते हुए बोला।
‘अरे मां मैं केन्द्रीय विश्वविद्यालय में पीएच0डी0 की परीक्षा में पास हो गया। एक हफ्ते बाद इंटरव्यूह है और अगर इंटरव्यूह पास हो गया तो में सामाजिक विज्ञान में शोध करूंगा। इस देश के विकास में योगदान मेरा भी होगा। मैं भी भारत सरकार को अपने शोध के माध्यम से सुझाव दूंगा ताकि कमियों को दूर कर हम सशक्त भारत का निर्माण कर सकें।’ 
‘विक्रम के चेहरे पर आए तेज से मां की नाराजगी दूर हो गयी। विक्रम के खिलते चेहरे से मां का चेहरा भी खुशी से भर गया। उसकी आस खाली नहीं जाएगी। रोज बेटे को डांटने का शायद प्रतिफल मिल गया। वो समझ गई मेरी तपस्या सफल होने वाली है। 
मुस्कुराहट में डांटते हुए कहा, ‘तो इसमें कौन सी बड़ी बात है, जब रिसर्चर् बन जाए तो बता दियो’, मां ने अपनी खुशी छुपाते हुए कहा। मां नहीं चाहती थी कि वो सिर्फ इतनी ही खुशी में अपने आगे की तैयारी भूल जाए। अभी तो बहुत कुछ करना बाकी है। 
‘चल जा यहां से और पढ़ाई कर’, मां ने कहा।
विक्रम अब नए जोश के साथ पढ़ाई में लग गया। सात दिन ज्यादा दूर नहीं थे, तो बीत गए। 
2
विक्रम मां के पैर छू कर गया, केन्द्रीय विश्वविद्यालय के सामाजिक विज्ञान विभाग पहुंचा, इंटरव्यूह दिया। एक अच्छी बात ये हुई कि विक्रम का इंटरव्यूह अच्छा हुआ। चेहरे पर निश्चिन्तता का भाव था। 
3
ये ही कोई 7 दिन बीते होंगे कि अचानक फोन की घंटी बजी। सभी भोजन कर चुके थे। आज मां शांत थी। इस बार मां के चेहरे पर उत्सुकता का भाव था कि आखिर इतनी रात को किसका फोन आ गया। विक्रम आलसी तो हो ही गया था, शायद इसलिए कहीं भी फोन रख देता था और उसका ध्यान नहीं रखता था। मां ने खुद फोन उसे लाकर दिया कि फोन आ रहा है। विक्रम ने फोन लिया, मां वहीं खड़ी रही और बेटे के चेहरे को देखती रही। बेटे कि अचानक आंखे बड़ी हो गई। हाय राम आखिर क्या सुन लिया बेटे ने, फोन पर बात करते हुए ही बीच में बोला, ‘क्या हुआ बेटा’। बेटा एकदम जोर से चिल्लाया, ‘हुर्रेर्रेर्रेर्रे.....’‘
‘मां मेरा पीएच0डी0 के लिए सेलेक्शन हो गया’, बेटा मां से चिपक के बोला। मां भी खुशी से झूम उठी। पिता भी खबर सुन कर पास आशीर्वाद देने आ गए। अब तो विक्रम के सारे सपने पूरे होंगे। विक्रम सोचने लगा था, वो भी देश की सेवा करेगा। मां भी गर्व महसूस कर रही थी। आज तक खानदान में यहां तक कोई नहीं पहुंच सका। हर कोई दस या बारह जमात तक पढ़ पाया। पहला चिराग है, जिसने 13वीं, 14वीं, 15वीं के बाद 16वीं, 17वीं और यूजीसी का जेआरएफ भी पास किया था। मां समझ चुकी थी अब बेटे को पंख लग गए हैं। देश के लिए अब वह एक से बढ़कर एक नई ऊंचाईयां नापेगा। वो सिर्फ मां का आंचल ही नहीं रोशन करेगा, बल्कि देश को नया आयाम देगा विकास करने में। उसका रिसर्च भी समाज के काम आएगा। 
रात भर विक्रम को नींद नहीं आई। सुबह क्या-क्या करना है। इसी सोच में वो पूरी रात खुली आंख से सपने देखता रहा। मां भी कच्ची नींद ही रही। उसे भी उत्सुकता की वजह से नींद नहीं आई। पिता मुस्कान के साथ सो चुके थे। शायद वो सपने में अपने बच्चे की उपलब्धियों को गिन रहे होंगे।
4
सुबह हुई, आज विक्रम जल्दी उठ गया। उसका आलसीपन पता नहीं कहां छूमंतर हो गया। मां खुद हैरान थी, जिसे जगाने के लिए दसियों खरी-खोटी सुनानी पड़ती थी, वो मां को तैयारी करने के सुझाव दे रहा था। कितना परिवर्तन आ गया था विक्रम में सिर्फ एक रात में। सच किसी को नहीं पता होता जिंदगी कब बदल जाएगी। 
विक्रम तैयारी करने लगा। सामान बांधकर आज वह घर से रिसर्च करने जा रहा था। 
‘बेटा तू रहेगा कहां, वहां कमरा कहां मिलेगा..’ मां ने परेशानी महसूस की। पर जब तक मां के चेहरे पर चिंता के भाव आते, विक्रम ने तपाक से उत्तर दिया, ‘विश्वविद्यालय में हॉस्टल के लिए ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन कर दिया था। अब बस वहां जाकर सामान रखना भर है और पढ़ाई में लग जाना था। आप भी मुझे लल्लू समझती हो।’
इतराते हुए कहा, ‘लेकिन मिसेज माताश्री इस विक्रम में बहुत दिमाग है परीक्षा यंू ही पास नहीं की’ मां हंस पड़ी। 
‘चल हट, भग यहां से’ मां ने मुस्कराते हुए कहा। 
विक्रम ने माता-पिता का आशीर्वाद लिया और चल दिया। 
5
विश्वविद्यालय बहुत भव्य था। बिल्कुल ऐसे लग रहा था, जैसे पक्षी पहली बार उड़ना सीखकर घौसले से दूर उड़कर जाता है और ऊंचाई से पहुंचकर दुनिया का नजारा देखता है। विक्रम की जिज्ञासाओं को यहीं शांति मिलनी थी। विक्रम ने सामान रखा और मैस में खाना खा के सो गया। सुबह जल्दी उठना था, वो अब आलसी नहीं रहा था। शायद मां रिजल्ट आने के इंतजार को आलसपन समझ बैठी थी। इसीलिए शायद रिजल्ट आने के बाद उसमें आलस नहीं रहा। अब तक विक्रम सो चुका था। 
6
सुबह विक्रम जल्दी से तैयार हुआ। नई नोटबुक उठाई और सामाजिक विज्ञान विभाग पहुंचा। अपनी पहचान संबंधी सरकारी औपचारिकताओं के बाद वह विभाग का एक शोधार्थी बन गया। विक्रम यहां नवागंतुक शोधार्थियों से मिला। जल्द ही विक्रम सबसे घुल मिल गया। हालांकि विक्रम किसी से ज्यादा चिपकता नहीं था। बस अपने काम से काम रखता था। न किसी की बुराई करना उसकी आदत थी न चुगली।
7
अब विक्रम रोज कक्षाएं लेने लगा। पीएच0डी0 के लिए कोर्स वर्क पूरा करना था। 6 माह तक कक्षाएं चलने लगी थी। शिक्षकों से भी प्रतिदिन किसी न किसी विषय पर बात हो ही जाती थी। ऐसे में विक्रम को लगने लगा था कि अब सपने दूर नहीं थे।
8
दो महीने कक्षाएं संचालित होने के बाद एक दिन अचानक दो शिक्षकों को आपस में बहस करते हुए विक्रम ने सुना। एक कोई श्री कुमार थे और एक श्री शर्मा। हालांकि आपसी बहस कुछ सेकंड ही चली। आज विक्रम को सिनॉपसिस जमा करनी थी। माहौल गरम था। आदिल, चेतना और कुनाल भी पहुंच चुके थे जो विक्रम के सहपाठी थे। आज कुछ हुआ था जो विक्रम नहीं समझ पा रहा था। सभी ने अपनी-अपनी सिनॉपसिस जमा की और अन्य कामों में लग गए। विक्रम समझ नहीं पा रहा था कि आखिर इतने पढ़े-लिखे लोग आपस में झगड़ क्यों रहे थे। क्यों इतना पढ़ लिख जाने के बाद भी हम अपने मस्तिष्क का इतना भी विकास नहीं कर पाते कि हम यह तय कर सकें कि आखिर हमें क्या करना शोभा देता है और क्या करना नहीं। 
9
कुछ ही दिनों में प्री पीएच0 डी0 की परीक्षा होनी थी। जो दोस्त बने थे उनका स्वभाव भी बदलने लगा था। पहले विक्रम को यहां अपना परिवार दिखने लगा था, लेकिन कुछ दिनों से जैसे-जैसे परीक्षा पास आ रही थी वैसे-वैसे दोस्ती दूर जाने लगी थी। बातें सभी करते थे। हाल-चाल सभी पूछते थे, लेकिन वो अपना पन नहीं मिल पा रहा था जो पहले मिलता था। क्या बदल रहा था, विक्रम खुद भी नहीं समझ पा रहा था। इन सब को परे हटा विक्रम ने तैयारी करना शुरू कर दी। 
10
परीक्षा की तिथि तय हो गई। टाइम टेबल बन गया। सभी परीक्षा के लिए तैयार थे। परीक्षा निर्धारित मापदंडों के अनुसार हुई। विक्रम का पेपर भी अच्छा हुआ। अब बात आगे बढ़नी थी। गाइड दिए जाने थे। डॉ0 कुमार विक्रम के गाइड बने। डॉ0 शर्मा को कुनाल का गाइड चुना गया। और आदिल को डॉ0 राधा और चेतना को डॉ उपाध्याय गाइड के रूप में मिले। अब थीसस लिखना शुरू कर दिया गया था। अब कॉलेज आना कभी कभार ही होता था। क्योंकि आंकड़ों के संकलन के लिए सर्वे करने बाहर जाना पड़ता था। विक्रम भी बाहर जाता था और कभी-कभी कॉलेज आता था। इस दौरान मित्रों से भी मेल-जोल कम होने लगा था। माहौल बदल रहा था। अब मित्र बिना सूचना के विभाग आ जाते और अपने-अपने गाइड और अन्य शिक्षकों से मिलकर चुपके से चले जाते। विक्रम समझ नहीं पा रहा था, कि आखिर 17-18 साल पढ़ लिख जाने के बावजूद लोग कैसा व्यवहार करने लग जाते हैं। जहां सोच खुली और उच्च कोटि की होनी चाहिए वहां ऐसी ओछी हरकतें अच्छी कैसे हो सकती हैं। विक्रम को ये भी आश्चर्य था कि आखिर ऐसी हरकतों को शिक्षक भी अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकृति दे रहे थे। शिक्षा में अपना जीवन बिता देेने वाले कैसे इन हरकतों को बढ़ावा दे सकते थे। 
11
विक्रम की नजर अब शोधार्थियों के व्यवहार पर रहने लगी। जो अपने पिता के प्रतिदिन पैर नहीं छूता था या थी वो सामाजिक विज्ञान विभाग में प्रतिदिन शिक्षकों के पैर छूने लगे थे। इनके कौन-कौन से कारण है, ये नहीं पता चल पा रहा था। इनके उत्तर ढूंढना मुश्किल हो रहा था कि आखिर ऐसा हो क्यों रहा हे। लग रहा था कि शिक्षकों और छात्रों के समूह बंट रहे थे। विक्रम इस परिस्थितियों से परेशान रहने लगा था। 

12
शोध थीसस की रफ्तार बढ़ रही थी। हर कोई अपनी थीसस पूरी करने में जीतोड़ मेहनत करने में लग गए थे। वक्त पास आ रहा था। थीसस पूरी करने के बाद रिपोर्ट जमा करनी थी। कमेटी बनने की भी तैयारी होने लगी थी। विक्रम का काम भी लगभग पूरा हो गया था। सर्वे करते समय कुछ कमजोर हो गया था। चेहरे पर कालापन आ गया था। लेकिन फिर भी काम में लगा रहा। आदिल थोड़ा पीछे चल रहा था। चेतना खुश थी, हालांकि उसका काम पूरा नहीं हुआ था फिर भी उसे कोई परेशानी नहीं हो रही थी। कुनाल तो कभी काम करता हुआ दिखता भी नहीं था फिर भी उसका काम हो रहा था। विक्रम ने कई बार पूछा कि आखिर वो अपने शोध प्रबंध के लिए गंभीर क्यों नहीं है, उसके बावजूद उसे कोई सही उत्तर नहीं मिल पा रहा था। सभी अपने अपने गाइड से खुसफुस करते हुए दिखते हैं। राजनीति होने लगी थी। एक दूसरे की बुराई की जानी लगी थी। विक्रम इस सोच में डूब चुका था कि जो इतनी पढ़ाई करने के बाद और परीक्षा पास करने के बाद यहां तक पहुंचा उसमें कमी क्या हो सकती है? और अगर कमी है भी तो उस पर खुलकर बात क्यों नहीं होती जिससे उस कमी को दूर का सशक्त भारत का निर्माण कर सके। लेकिन सिर्फ चुगली करना ही रह गया था, सुधार कुछ नहीं। विक्रम को ये सब देखकर घुटन होने लगी थी। उसके लिए तय करना मुश्किल हो गया था कि आखिर वो यहां क्या करने आया था और किस झमेले में फंस गया। 
13
शोध प्रस्तुतीकरण या मौखिक प्रश्नोत्तरी (वाएवा) के लिए कमेटी बन चुकी थी। इधर शोधार्थियों का शोध प्रबंध भी लगभग पूरा हो चुका था। सभी अपना अपना पीपीटी बना रहे थे। काम में तेजी आ चुकी थी। विक्रम भी अपने काम को जल्द पूरा करने में जुटा था।
समय बीतता चला गया और शोध प्रस्तुतीकरण या मौखिक प्रश्नोत्तरी यानि कि वाएवा का समय आ गया। आज कुनाल का शोध प्रबंध का प्रस्तुतीकरण था। कमेटी बैठ चुकी थी। पीछ की ओर छात्र बैठ गए। कुनाल ने कमेटी के लिए शोध प्रबंध के साथ खाने-पीने का भी प्रबंध किया था। प्रस्तुतीकरण शुरू हुआ। इस दौरान कमेटी आपस में वार्तालाप कर रही थी। इतने में प्रस्तुतीकरण के बीच में ही खाने-पीने की वस्तुएं परोसे जाने लगी। गरम-गरम समोसे, नमकीन, चिप्स और काजू कतली ने शिक्षकों का ध्यान भटका दिया। कुनाल ने मौके का फायदा उठाया और शोध पर बने पीपीटी की कई स्लाइड तेजी से आगे कर दिए। जब तक खाने से ध्यान वापस आता तब तक कुनाल मैथ्डोलॉजी की स्लाइड पार कर चुका था। कुनाल काफी चालाक और व्यवस्था को समझने वाला था। ऐसे में लाभ लेना आसानी से जानता था। इतना ही नहीं बे मतलब सुबह-शाम पैर छूना, कुछ न कुछ गिफ्ट लाना आदि लगा ही रहता था। शिक्षकों की झूठी तारिफ, झूठी खुशी जाहिर करने में माहिर था। ऐसे में शिक्षक उससे काफी खुश रहते थे। आज शोध प्रबंध प्रस्तुतीकरण में इसका प्रत्यक्ष लाभ उसे दिख रहा था। क्योंकि ज्यादातर का ध्यान खाने पर था और कुछ अगर पीपीटी की तरफ देखकर कमियां पता भी लगा रहे थे तो वे माफ कर रहे थे क्योंकि इस वजह से कि वह मित्र शिक्षक का शिष्य है। ऐसे में पिछले 3 साल की मेहनत रंग लाई। पर ये मेहनत शोध प्रबंध को बनाने वाली नहीं थी। यह मेहनत चापलूसी की थी। विक्रम को ये देखकर काफी बुरा लगा कि आखिर हो क्या रहा है। शोध की अगर कमियों को दूर नहीं किया गया तो ये शोध, एक शोध न रहकर शिक्षक बनने की योग्यता या जरिया मात्र रह जाएगा। कुनाल के शिक्षक बन जाने के बाद ये शोध कबाड़ मात्र के अलावा कुछ नहीं रहेगा क्योंकि खामियों से भरे इस पुलिंदे से समाज का कभी लाभ नहीं किया जा सकता। कुनाल का प्रस्तुतीकरण खत्म हो चुका था। हालांकि इस दौरान डॉ0 कुमार ने भरकस कोशिश की कि कुनाल को शोध में तब तक पास नहीं किया जाए जब तक उसकी शोध की कमियों को दूर नहीं कर लिया जाता। परंतु सहायक शिक्षक की विभागाध्यक्ष के आगे एक न चली। क्योंकि बाहर के मेहमान विभागाध्यक्ष के जान-पहचान के थे। ऐसे में अतिथि परीक्षकों ने विभागाध्यक्ष का ही पक्ष लिया और विभागाध्यक्ष के प्रिय शिष्य को पास कर दिया अर्थात उसके शोध प्रबंध को पीएच0डी0 उपाधि हेतु संतुति दे दी। सभी वहां से कुनाल को बधाई देते हुए चले गए। टेबल पर कुछ बर्फी के टुकड़े और चिप्स शेष रह गए, जिसे बाद में चपरासियों ने निपटा दिया। हालांकि समोसे सब खत्म हो चुके थे। 
14
विक्रम ये सब प्रकरण देख रहा था। अब उसे घुटन महसूस होने लगी थी। जिन सपनों को लेकर अपने घर से आया था, वो अब टूट रहे थे। विक्रम को अब समझ आने लगा था, ‘हमारे देश में हजारों शोध हुए हैं फिर भी हम देश को गरीबी से नहीं निकाल पाए। समुचित विकास नहीं कर सके। गरीबी-अमीरी के बीच की खाई को कम करने के बजाए बढ़ा दिया। शायद शोध उपाधि बांटने का यही सिलसिला रहा होगा, जिस वजह से यूजीसी को उपाधि हेतु नई गाइड लाइन बनानी पड़ी। लेकिन कोई बात नहीं सरकार को आज भी विश्वास है कि मेरे जैसे मेहनतकश छात्र भी हैं जो मेहनत से शोध करते हैं और इस देश के लिए कुछ करना चाहते हैं। जैसे मैं करना चाहता हूं। कोई बात नहीं अगर एक-आध ऐसे हो भी जाते हैं तो क्या हुआ मैं इस देश के लिए करूंगा।’
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एक के बाद एक का वाइवा हुआ। चेतना को नारीसशक्तिकरण का फायदा मिला क्योंकि किसी प्रश्न का जवाब नहीं दे पाती थी तो प्रश्न पूछने वाला परीक्षक ही स्वयं उत्तर दे देता था। बहरहाल उसे भी शोध उपाधि हेतु संतुति मिल गई। विक्रम में अब चिढ़न भावना आने लगी। उसे शोध में प्रवेश लेना एक भूल लगने लगा। इससे तो अच्छा जब शिक्षक ही बनना था तो प्राथमिक विद्यालय का ही शिक्षक बन जाता। कम से कम वहां न इतनी राजनीति होती है और न ही चुगलखोरी। विक्रम का ध्यान अब पढ़ाई से हटने लगा था। किसी राजनीतिक संगठन से जुड़ गया था, जो विकास और समानता की बात करते थे। इतना सब होते हुए भी वो अपने मूल उद्देश्य से नहीं भटका। और पीपीटी तैयार कर लिया। अब बस प्रस्तुत करना रह गया था।
16
आखिरकार वो दिन आ ही गया, जिस दिन का विक्रम को बेसब्री से इंतजार था। समाज को कई महीने से समझ रहा था। रिसर्च करके किसी समस्या के समाधान को प्रस्तुत करना था। आज उसे फक्र महसूस हो रहा था कि वो किसी समस्या का समाधान सामने रखेगा। उसकी तारीफ होगी। लोग तालियां बजाएगे। पसीना बहाके आंकड़ों का संकलन जो किया था। रात-दिन लगा रहा उनका विश्लेषण करने में। बहरहाल आज वह इस देश को कुछ देना चाह रहा था। बस तैयारी पूरी है। अब उसे अपने शोध प्रबंध का प्रस्तुतीकरण देना है। विक्रम तैयार था। घर से तैयार होकर निकला। विभाग पहुंचा और प्रस्तुतीकरण के लिए कमेटी के आने का इंतेजार करने लगा। विक्रम ने परीक्षकों के लिए खाने-पीने का इंतेजाम नहीं किया था। उसे लगा मैं यहां शोध प्रस्तुत करने आया हूं। शिक्षकों को नमकीन बिस्कुट क्यों खिलाना। शायद वे बुरा भी तो मान सकते हैं। हजारों रुपये महिना लेने वाले शिक्षकों को ये सब अच्छा थोड़े ही लगेगा। विक्रम ने कुछ नहीं खाने-पीने की वस्तुएं नहीं खरीदी। विभाग में गाइड के पहुंचते ही विक्रम ने अभिवादन किया।
‘अरे विक्रम उनके स्वागत का प्रबंध किया कुछ किया या नहीं?’, गाइड ने जल्दी-जल्दी कामों को करते हुए पूछा।
विक्रम हकपकाया और बोला, ‘सर किस प्रकार का स्वागत। मैं तो खड़ा ही हूं उनके स्वागत में।’
‘मतलब?’, गाइड ने अचरज महसूस करते हुए पूछा। 
‘मतलब ये कि मैं तैयार दरवाजे पर खड़ा हूं उनके स्वागत में। जैसे ही वे आएंगे मैं उनको प्रणाम करके बैठने के स्थान पर ले जाऊंगा।’, विक्रम ने उत्तर दिया।
गाइड ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा, ‘अरे उनके लिए कुछ नाश्ता पानी या होटल में ले जाकर लंच या डिनर का इंतेजाम तो कर लेते। और कहीं घुमाने के लिए कार बुक कर लेते ताकि उन्हें घुमाया जा सके। इससे वे खुश रहेंगे। और इसका असर ये होगा कि शोध में वो ज्यादा न नुकुर नहीं करेंगे। ’
विक्रम हंस पड़ा और स्वाभिमान से कहा, ‘सर आप परेशान मत होइए, मैंने शोध कार्य इतन शिद्दत से बनाया है कि उन्हें इस शोध को समझकर ही मजा आ जाएगा। गाइड ने नाखुशी का सर हिलाया और अन्य कामों के लिए चले गए। 
विक्रम उन बातों पर ध्यान नहीं दे पा रहा था। जिसे गाइड अप्रत्यक्ष रूप से इशारा करके समझाना चाह रहे थे। जिस व्यवस्था को विक्रम अपने सपनों में देखा करता था, शायद सच्चाई उससे परे थी। लेकिन विक्रम इन्हें शायद स्वीकार नहीं कर पा रहा था। उसे हर बात पता थी। पिछले 3 साल से यही देख रहा था। समझने भी लगा था। पर बस स्वीकार करने को तैयार नहीं हो पा रहा था। 
कमेटी भी आ गई। विक्रम ने बड़ी आदर भाव से कमेटी का स्वागत किया। सभी के चेहरों पर अनजानी सी मुस्कान थी। लग रहा था मानो मजबूरन हंसना पड़ रहा हो। पर विक्रम के चेहरे पर भी तेज था। सिर्फ श्री शर्मा ही थे जिनकी मुस्कान कुटिल थी। कुछ तो अजीब लगा रहा था। लेकिन क्योंकि आज गाइड श्री कुमार भी दबाव महसूस कर रहे थे। काम कुछ कर रहे थे और दिमाग कहीं ओर था। विक्रम का इस पर ध्यान गया था। फिर भी विक्रम ने टालते हुए आगे की प्रक्रिया शुरू कर दी। 
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कार्यक्रम शुरू हो गया। शोध परीक्षकों ने अपनी जगह ग्रहण कर ली। श्री कुमार भी कमेटी में थे और श्री शर्मा भी। चूंकि श्री शर्मा विभागाध्यक्ष थे। ऐसे में शोध परीक्षक उनकी जानकारी के ही आए या ये कहा जाए कि उन्होंने अपनी मर्जी के ही जानकार बुलाए। शायद सबओर ऐसा ही होता होगा तो यहां कोई नई बात नहीं होगी। इसी वजह से श्री कुमार अपने शिष्य को लेकर परेशान थे। पर विक्रम भी किसी एकलव्य से कम नहीं था। जिसे ठान लिया उसे करके दिखाने की क्षमता रखता था फिर चाहे गुरू साथ दे अथवा न दे। बेवजह की बातों को भूलकर विक्रम मंच पर आया। स्वाभिमानी आवाज में सभी का अभिवादन किया। बाहर से आए कमेटी के अध्यक्ष ने शोध प्रबंध प्रस्तुत करने की आज्ञा दी और कार्यक्रम शुरू हो गया। 
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विक्रम ने विश्वविद्यालय में प्रवेश से बात शुरू की ओर शोध विषय की जानकारी दी। शोध की प्रस्तावना बताना शुरू किया। प्रस्तावना के बारे में चंद बाते ही बताई होंगी। इतने में एक परीक्षक का ध्यान खाली टेबल पर गया जहां विक्रम को नंबर देने के लिए मूल्यांकन पत्र के अलावा कुछ नहीं था। परीक्षक ने विक्रम द्वारा दी जाने वाली जानकारियों और प्रोजेक्टर पर चल रहे पृष्ठों से ध्यान हटा विभागाध्यक्ष श्री शर्मा से इशारे में नाश्ते-पानी के लिए पूछा। श्री शर्मा ने इस बार फिर कुटिल मुस्कान दी। इस बीच अन्य परीक्षकों का भी ध्यान इस ओर गया। श्री कुमार ये सब समझ चुके थे कि क्या पूछा जा रहा है। विक्रम ने शोध की परिकल्पना बताना शुरू किया। श्री शर्मा इसी बीच किसी बात पर हंस पड़े। लगा जैसे परिकल्पना में विक्रम ने बहुत बड़ी गलती कर दी हो। परीक्षकों ने विक्रम की बेवजह खिंचाई कर दी। 
‘अरे ये कैसी परिकल्पना है.....?’, अचानक दाएं बैठे एक परीक्षक ने पूछा। विक्रम समझ नहीं पाया कि क्या पूछा जा रहा है।
परीक्षक ने झल्ला के पूछा, ‘समझ नहीं आया क्या? अरे परिकल्पना जानते भी हो तुम? विक्रम ने बड़ी विनम्रता से कहा, ‘हां सर। बड़े अच्छे से जानता हूं। परिकल्पना किसी शोध समस्या के हल का कल्पित उत्तर होता है।’
इससे पहले कि विक्रम अपनी बात पूरी करता, बाएं बैठे एक अन्य परीक्षक ने पूछ लिया, ‘ओह, ऐसा क्या, तो जरा बताओ कितने प्रकार की परिकल्पना होती है? 
विक्रम ने बताना शुरू किया, ‘जी सर परिकल्पना कथन आधार पर तीन प्रकार की होती है। पहला सकारात्मक कथन, दूसरा, नकारात्मक कथन और तीसरा शून्य.....’ 
इससे पहले कि विक्रम अपनी बात पूरी करता। बात को काटते हुए श्री शर्मा ने राजनीतिक तरीके से कहा, ‘अरे बेटा वो ये पूछ रहे हैं कि तुमने कौन से प्रकार की परिकल्पना को लिया है? 
विक्रम ने बोलना चाहा, ‘सर मैंने इसमें....’ विक्रम की फिर बात काट दी गई। 
बीच में बैठकर अध्यक्षता कर रहे प्रोफेसर ने कहा, ‘चलो हटाओ.... तुम ये क्लीयर नहीं कर पाए। आगे बताओ’। 
विक्रम ने कहा, ‘सर मैं बिल्कुल क्लियर कर दूंगा। सर मैं ये कहना चाह रहा था कि.....’
‘अच्छा! तुम मेरी बात काट रहे हो?’, अध्यक्ष महोदय ने आश्चर्य प्रकट किया। 
विक्रम के चेहरे की चमक उड़ने लगी थी। बेवजह उसे परेशान किया जाने लगा था। डॉ0 कुमार समझ चुके थे कि अकसर डॉ0 शर्मा के साथ हुई झड़प का बदला उससे न लेकर उसके शिष्य से लिया जा रहा है। उन्हें बहुत पहले से ऐसा आभासा था। क्योंकि विक्रम से विभागाध्यक्ष डॉ0 शर्मा कई महिनों से दूरियां बनाने लगे थे। क्योंकि विक्रम डॉ0 कुमार का बहुत सम्मान करता था अन्य शिक्षकों जैसा। उसके अंदर किसी प्रकार का मेल या द्वैष नहीं था। उसका दिल साफ था। वह एक अच्छा छात्र है। देश को ऐसे कर्मयोगी छात्रों की आवश्यकता है। डॉ0 कुमार ने सोच लिया कि अब उन्हें हस्तक्षेप करना पड़ेगा। अगर नहीं किया तो विक्रम का भविष्य बर्बाद भी हो सकता है। नहीं तो कम से कम तीन साल तो बर्बाद हो ही जाएंगे। 
विक्रम ने अपना शोध प्रबंध आगे पढ़ना शुरू किया। इस बार उसे न्यादर्श पर घेरने की कोशिश की गई। ऐसा लग रहा था कि विक्रम को परेशान करने की रणनीति पहले ही तय हो चुकी थी। बार-बार टोकने की वजह से विक्रम परेशान होने लगा था। 
‘अच्छा बेटा ये बताओ ये टेप्पेट कौन थे?, दाएं बैठे परीक्षक ने सवाल किया।
विक्रम ने हल्की आवाज में जवाब दिया, ‘सर में टिप्पेट जी के बारे में ज्यादा तो नहीं जानता पर हां इतना जरूर जानता हॅंू कि इन्होंने रेनडम सेम्पलिंग का एक नया तरीका बताया था’
दाएं बैठे परीक्षक ने मुंह बनाकर कहा, ‘अरे तुम्हें ये ही नहीं पता, उफ्फ अब क्या कहा जाए।
अध्यक्ष महोदय ने नाटकीय ढंग से विक्रम का पक्ष रखते हुए कहा, ‘चलो कोई बात नहीं, अगर नहीं पता तो कुछ और पूछ लो... अच्छा बेटा ये बताओ स्तरीकृत निदर्शन और गुच्छ निदर्शन में क्या अंतर है? 
विक्रम को ये गुच्छ निदर्शन के बारे में अच्छी जानकारी थी। लेकिन स्तरीकृत के बारे में वो थोड़ा भूल चुका था। उसे ये भी नहीं पता था कि स्तरीकृत निदर्शन दो प्रकार का होता है। फिर भी विक्रम ने बताना शुरू किया कि गुच्छ क्या होता है।
‘अरे बेटा तुम समझे नहीं मैंने अंतर पूछा है, न कि इनकी परिभाषा’। अध्यक्ष महोदय ने बड़ी चतुराई से विक्रम को फंसा दिया था। 
विक्रम का गला सूखने लगा था। इसी बीच डॉ0 कुमार ने बचाव करते हुए कहा, ‘असल में सर विक्रम ने कोटा निदर्शन विधि का प्रयोग किया है। तो आप उस बारे में पूछेंगे तो ये जरूर बता देगा।’
‘तो हमें क्यों बुलाया, आप स्वयं ही पूछ लेते कुछ भी’, बाएं बैठे परीक्षक ने काफी नाराजगी के साथ प्रतिक्रया दी। इधर डॉ0 शर्मा मुस्करा रहे थे। जैसे उनका कोई उद्देश्य पूरा हो गया हो। 
‘अरे कुमार साहब ये तो सबसे सरल सवाल हैं, छात्रों को पता रहना चाहिए।’, बड़ी चतुराई से डॉ0 शर्मा ने अपनी चाल चली और दया भावना के साथ विक्रम से कहा अच्छा बेटा तुम्हें जो पता हो निदर्शन के बारे में वही बता दो।’
विभागाध्यक्ष की इस तरह की टिप्पणी से विक्रम हताश हो गया। उसे जो याद था वो भी भूलने लगा। वो निराश होने लगा। डॉ0 कुमार भी आज असहाय से लगने लगे। उनकी बेचैनी उनके चेहरे पर झलकने लगी। 
‘यार तुम्हें निदर्शन के बारे में भी सही से पता नहीं है और परिकल्पना भी सही से नहीं बता पाए। तुम तीन साल से कर क्या रहे थे?’ 
अब विक्रम का बात करने का लहजा बदल गया, ‘सर निदर्शन के दो प्रकार होते हैं, एक संभाव्यता और दूसरा असंभाव्यता। संभाव्यता के कई प्रकार हैं। दैव निदर्शन, स्तरीकृत निदर्शन, बहुस्तरीय निदर्शन, व्यवस्थित निदर्शन, गुच्छ निदर्शन और इतना ही नहीं। दैव निदर्शन भी कई प्रकार के हैं। जैसे - लॉटरी विधि, कार्ड विधि, नियमित अंकन, अनियमित अंकन, रेण्डम नम्बर या टेप्पेट, जिसे आप थोड़ी देर पहले मुझसे पूछ रहे थे, और ग्रिड विधि। सर और भी होते हैं। इसी प्रकार असंभाव्यता के भी प्रकार हैं सर, इसमें उद्देश्यपूर्ण निदर्शन, आकस्मिक निदर्शन और अभ्यंश निदर्शन।’ 
‘सर पता तो काफी है, बस स्तरीकृत को भूल रहा हूं। मैं यही भी जानता हूं सर कि स्तरीकृत भी दो प्रकार के होते हैं। एक होता है समानुपातिक स्तरीकृत निदर्शन और दूसरा असमानुपातिक स्तरीकृत निदर्शन, पर सर मैं स्तरीकृत से न्यादर्श चुनने की प्रक्रिया भूल रहा हूं बस और कुछ नहीं।’, अपनी बात कहते कहते विक्रम की आवाज रूंधने लगी। 
अब विक्रम भी समझ चुका था कि उसे जबरन परेशान किया जा रहा है। क्योंकि पहले हो चुके वाएवा में ऐसा किसी शोधार्थी के साथ नहीं किया गया था। कुनाल के समय तो ये सभी हंस रहे थे। नाश्ते पर टूट रहे थे और प्रोजेक्टर पर चल रहे पृष्ठों पर तो ध्यान था ही नहीं। पीपीटी के 250 पृष्ठ मात्र 15 से 20 मिनट में ही खत्म हो गए और सभी मुंह में नमकीन भरे या मिठाई भरे उसे बधाई भी देने लगे थे। और इधर विक्रम के पीपीटी के 180 पृष्ठों में से 35 पृष्ठ भी पूरे नहीं हुए और 40 मिनट बीत गए। 
‘चलो सारी बातें छोड़ों ओर आगे बताओ, देर भी हो रही है’, अध्यक्ष महोदय ने कहा।
विक्रम ने सर्वे के माध्यम से संकलित किए आंकड़ों के विश्लेषण को बताना शुरू किया। कुछ ही देर हुई होगी की। विभागाध्यक्ष हंस दिए। इस बार अध्यक्ष्य महोदय और दाएं बाएं बैठे परीक्षक भी मजाक में हंसने लगे। पीछे बैठे अन्य बच्चे अपने भविष्य पर आंच न आ जाए इस वजह से चुप ही रहे। किसी ने हस्तक्षेप करने की कोशिश नहीं की। डॉ0 कुमार चुपचाप थे। वे हंसे नहीं। उनकी नजर में कोई हंसी की बात हुई ही नहीं, वरना पीछे बैठे छात्र भी हंस देते, पर ऐसा हुआ नहीं था। विक्रम भी ठिठक गया कि अब क्या कर दिया। 
अध्यक्ष महोदय ने थके भाव में कहा, ‘विक्रम जी आप तो अपने शोध का निष्कर्ष ही बता दो, बाकी हटाओ’। इतना ही नहीं अन्य परीक्षकों का भी यही रवैया रहा। विभागाध्यक्ष डॉ0 शर्मा अब भी मुस्करा रहे थे।
अब विक्रम कर भी क्या सकता था। अपनी बात रखना भी चाहे तो कमेटी की तरफ से धनात्मक प्रतिक्रिया आ ही नहीं रही थी कि वो अपनी बात कह पाता। आखिर उसे अपना सपना पूरा करना था। इस देश के विकास में भागीदार बनना था। उसे देश की विभिन्न समस्याओं में से एक का समाधान देना था। ऐसे में उसने वही करना सही समझा जो कमेटी ने कहा। 
इधर बाएं बैठे परीक्षक ने कहा, ‘एक घंटा हो गया। यार कोई पानी ही पिला दो’
 बस इतने में विभागाध्यक्ष को बोलने और कंमेट करने का मौका मिल गया। ’पता नहीं सब क्या करते रहते हैं। नाक कटाने पर तुले रहते हैं सब विभाग की। पानी रखना चाहिए था। सब मुझे ही देखना पड़ता है।’ डॉ0 शर्मा मंद मंद मुस्करा भी रहे थे। और ये दिखाने की कोशिश कर रहे थे कि विभाग इनके बिना तो चल ही नहीं सकता। 
डॉ0 कुमार को बहुत गुस्सा आ रहा था। उनके चेहरे पर खून उभर आया था। 
विक्रम ने अपनी बात कही ओर शोध का निष्कर्ष कमेटी को बताया। एक घंटा चालीस मिनट वाएवा चला। इस केन्द्रीय विश्वविद्यालय का यह पहला मामला था जिसमें शोध प्रस्तुतीकरण 1ः40 घंटा चला हो। कमेटी ने आपस में खुसर-फुसर की कुछ इशारे विभागाध्यक्ष की तरफ भी हुए, लेकिन इस दौरान डॉ0 कुमार की तरफ किसी ने नहीं देखा। कमेटी ने मूल्यांकन पत्र में अंक भर दिए और उसी दौरान सभी परीक्षकों के द्वारा दिए अंकों को उसी समय सुना दिया। 
कमेटी ने जो तय किया उसे कमेटी के अध्यक्ष ने सबसे सामने बोला, ‘विक्रम के शोध में काफी तकनीकी पूर्ण कमियां हैं, जिन्हें दूर करना जरूरी है। इतना ही नहीं इसे व्यस्थित भी सही ढंग से नहीं किया गया। निष्कर्ष भी नगण्य है। ऐसे में इनके कार्य को शोध उपाधि हेतु संतुति नहीं दी जा सकती। सुधार के लिए 6 माह का समय दिया जाता है।’
विक्रम सहम गया। उसके होश उड़ गए। आंखों के आगे अंधेरा छा गया। सपने टूट गए। भविष्य बिखर गया। पर बात क्या हुई। सभी शोधार्थियों में से सबसे अधिक मेहनत करने वाला सत्य और विश्वसनीय न्यादर्श भरने वाला जिसने कभी झूठे सेंपल नहीं लिए। अध्ययन में धोखा नहीं किया। उसके शोध प्रबंध को रोक दिया गया और सुधार के लिए वापस कर दिया। और जिन्होंने घर बैठे सर्वे किया और 60 प्रतिशत प्रश्नावली फर्जी भर के निष्कर्ष निकाल दिया उन्हें सहर्ष शोध उपाधि प्रदान करने की संतुति कर दी गई। 
कमेटी जाने लगी। विक्रम सहम कर अपनी पेन ड्राइव निकाल कर वहीं का वहीं खड़ा रह गया। पीछे बैठे छात्र भी अचरज महसूस कर रहे थे कि मेहनती और सभ्य छात्र को क्यों परेशान किया गया। इधर डॉ0 कुमार जो सोच रहे थे, वैसा ही हुआ। आज उन्हें अपने पर भी गुस्सा आ रहा था। डॉ0 कुमार ने विक्रम को सांत्वना दी और घर जाकर आराम करने को कहा। विक्रम वहां से चलने लगा। रास्ते भर वो यही सोचता रहा कि आखिर हुआ क्या? क्या गलती कर दी? क्या पढ़ाई में सचमुच कमजोर था। अगर किसी की कमी निकालनी है तो कुछ न कुछ तो आसानी से निकाली जा सकती है। दूध का धुला तो इस दुनिया में कोई है ही नहीं। 
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विक्रम अपने हॉस्टल पहुंचा। न कपड़े बदले। न हाथ-मुंह धोया टांगे लटकाए बेड पर लेट गया। शाम हो चुकी थी। सुबह पांच बजे उठ गया था तो थकान होना स्वाभाविक था। ऊपर से एक ऐसा प्रहार दिमाग पर हुआ था जिसकी कल्पना विक्रम ने सपने में भी नहीं की थी। 
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विक्रम सोचने लगा, आखिर हमारा देश विकास क्यों नहीं कर पा रहा है। श्रम के मामले में विश्व में दूसरे स्थान पर हम हैं। पूरा विश्व हमारे श्रम का लोहा मानते हैं। आर्थिक वृद्धि भी ठीक है। बड़े-बड़े उद्यमी हैं। विभिन्न उत्पादों के लिए बड़ा बाजार है। बड़े-बड़े संत हुए। महान लोगों ने यहां जन्म लिया। समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री, इतिहासविद्, आई0ए0एस0, पी0सी0एस0 अधिकारियों की लंबी कतार है। राजनीतिक पार्टियां है। फिर आखिर है क्या जो हम विकास नहीं कर पा रहे हैं। हमारा देश विभिन्नता का देश है। चाहे विभिन्नता धर्म की हो या जाति की या धन की हो या संस्कृति की या भाषा की या भौगोलिक क्षेत्र की। इसी विभिन्नता की वहज से हर राज्य की अपनी एक अलग पहचान है। 
क्या ये विभिन्नता ही इस देश की सबसे बड़ी समस्या है। विक्रम को अब समझ आने लगा था। लोग एक दूसरे से जलते हैं। एक धर्म के लोग अपने धर्म को अच्छा बताते हैं और दूसरे धर्म की परंपराओं पर उंगली उठाते हैं। आपस में लड़ते हैं। हमारे देश में आज भी मनुष्यों के एक वर्ग को अछूत समझा जाता है। घर में गाय, भैंस, कुत्ता, बिल्ली, सुअर, घोड़ा, गधा और न जाने कौन-कौन से जानवर पाल लिए जाएंगे और उन्हें छूने में परहेज नहीं होगा लेकिन मनुष्यों के एक वर्ग को हमारे देश में छूने से कतराते हैं। उन्हें आस-पास बैठने नहीं दिया जाता। सांप्रदायिक दंगे होते हैं। एकता का अभाव है। भड़काने वाले लोगों की देश में कमी नहीं। विक्रम को लगा कि शायद मेरे खिलाफ भी किसी ने विभागाध्यक्ष को भड़का दिया। कमाल की बात तो यह है कि इतना पढ़ा-लिखा आदमी किसी के बहकावे में आ भी गया। ऐसी पढ़ाई का फायदा क्या। इससे अच्छा तो अनपढ़ है, कम से कम समझदार तो होता है। शिक्षा हमें ज्ञान देती है। परंतु अपनी समझ को हमें स्वयं विकसित करना होता है। अगर हम अपनी समझ को विकसित कर लें तो हम सशक्त भारत का निर्माण कर सकते हैं। पर लगता है कि लोग जितना उच्च शिक्षा में जाते हैं उतना ही ज्यादा गर्त में चले जाते हैं। क्योंकि यहां पढ़ाई के अलावा भी कई गतिविधियों में लिप्त रहना पड़ता है। राजनीति आम हो गई। और वो भी ऐसी राजनीति जिससे किसी का लाभ नहीं होता, सिवाय नुकसान होने के। इस देश में जो मेहनत करता है, वो यहां ज्यादा दुखी है। जिस पेड़ में फल लगते हैं, पत्थर भी उसी पर ज्यादा पड़ते हैं। यहां आपस में लोग मिलकर नहीं रहना चाहते। फूट डालो शासन करो की नीति पुरानी रही है और आज यह सिद्धांत कामयाब हथियार के तौर पर उपयोग किया जाता है। उच्च शिक्षा में भी शायद यही हाल है। एक शिक्षक दूसरे की टांग खींचता और दूसरा तीसरे की। ऊपर बैठा हुआ शिक्षक अपनी कुर्सी संभालने के चक्कर में न शिक्षकों को सुधार पाता है और न ही व्यवस्था। कभी-कभी तो शिक्षक ही ऊपर बैठे हुए को ऐसा सुधार देते हैं कि दोबारा वह व्यवस्था ठीक करने के लिए प्रयोग करने का नहीं सोचता। और व्यवस्था बगड़ती चली जातीे। बदलाव लाने वालों की संख्या बहुत कम है।
देश में शोध करने कराने की भी यही स्थिति है। अगर शोध फर्जी और झूठे आंकड़़ों पर ही निर्भर रहकर करना है तो सरकार ये शोध कार्य कराती क्यों है। और अगर सरकार अच्छे शोध कराती भी है तो उनके संरक्षण के लिए व्यवस्था क्यों नहीं करती। शिक्षकों के द्वेष का कोपभाजन छात्रों को होना पड़ता है। कई बार तो छात्रों से सीधे लड़ाई हो जाती है। छात्रों को सताया जाने लगता है। शोध छात्रों को इतना ज्यादा यातना देते हैं कि वे आत्महत्या करने लगते है। कई उदाहरण है, इसके हमारे पास। 
विक्रम को जिंदा रहना था। उसे व्यवस्था बदलनी थी। इसलिए उसने मरने का नहीं सोचा। अपने बिस्तर से उठा और ठान लिया क्या करना है।
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छः महीने विक्रम ने चापलूसी शुरू कर दी। अब सब खुश थे। विभागाध्यक्ष की कुटिल मुस्कान नहीं रही। क्योंकि अब विक्रम रोज विभागाध्यक्ष जी के चरण वंदन करने लगा, कभी-कभी अपने गाइड की बुराई भी कर देता। विभागाध्यक्ष निंदा रस के बड़े प्यासे रहते थे। डॉ0 शर्मा के शोध पत्र लिखता था और नाम विभागाध्यक्ष का छपता था। इसके अलावा अखबारों के लिए लेख भी विक्रम ने लिखे और विभागाध्यक्ष जी के नाम छप गए। कई घरेलू काम भी विक्रम करने लगा। इससे डॉ0 शर्मा काफी खुश रहने लगे। कई बार विक्रम विभागाध्यक्ष की पुरानी शर्ट और पैंट की तारिफ भी कर देता। जूतों पर पॉलिश कर देता। विक्रम ने शोध में कोई परिवर्तन नहीं किया था। बस शोध परिकल्पना में पहली कल्पना को तीसरी कल्पना बना दिया और तीसरी को पहली। बाकी सब कुछ वैसे का वैसा ही रहा। 
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छ महीने चरण वंदन के बाद जब वाएवा का समय आया तो उससे पहले ही टेबल पर तीन प्रकार की मिठाई, दो प्रकार के बिस्कुट, जिसमें एक नमकीन और एक मीठा था, कुछ कोलड्रिंक की बोतल और खाली गिलास। कुछ स्नेक्स भी रखे गए। टेबल व्यंजनों से भरी पड़ी थी। इस वजह से मूल्यांकन पत्र वहां नहीं रख पा रहे थे। इस वजह से मूल्यांकन पत्रों को समेट कर ये सोच कर अलग रख दिया कि इनका काम तो नाममात्र का होगा। बस नम्बर ही तो देने हैं। 
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वाएवा का समय आ गया। कमेटी का दिखावटी पैर छूकर अभिवादन किया। अध्यक्ष की घड़ी की तारिफ की, एक अन्य परीक्षक की शर्ट की तारीफ की और एक अन्य परीक्षक के हेयर स्टाइल की तारीफ की। सभी का दिल खुश हो गया। जैसे ही अध्यक्ष जी कुर्सी पर बैठने को हुए, विक्रम ने अपने रूमाल से कुर्सी को पोछा। अध्यक्ष जी का दिल गदगद हो गया। इसके साथ ही नीचे झुकते ही मन में कहा हरामखोर फिर घुटने छू लिए। अध्यक्ष जी ने फिर जोरदार आशीर्वाद दे दिया। 
इससे पहले कि वह अपना शोध पढ़ना शुरू करता और पीपीटी के पृष्ठों को पलटना शुरू करता उसने एक निजी सहायक रखा जिसने अथितियों को व्यंजन परोसने शुरू कर दिए। जो खाना बंद कर देता उसे विक्रम स्वयं कह देता, ‘सर प्लीज आप लीजिए न।’ ये सुनकर अतिथि खुश हो जाते। उनके मन में सहानुभूमि पैदा हो जाती। 
अब कमेटी का ध्यान पूरी तरह प्रोजेक्टर पर चलने वाले पीपीटी पृष्ठों से हट कर टेबल तक ही सीमित रह गया। व्यंजनों की बाढ़ से उनकी नज़रें प्रोजेक्टर स्क्रीन तक जा ही नहीं पा रही थी। विक्रम सिर्फ इस बात का इंतेजार कर रहा था कि कब व्यंजर खत्म हो, तभी वह अपना प्रस्तुतीकरण बंद कर देगा। 15 मिनट में सभी व्यंजन खत्म हो गए। और इसी के साथ प्रस्तुतीकरण भी पूरा हो गया। 
‘सर मेरा शोध कैसा लगा’?, विक्रम ने दाएं बैठे एक परीक्षक से पूछा।
परीक्षक ने तपाक से उत्तर दिया, ‘बहुत बढि़या..... मिठाई थी।.... वो काजू कतली तो गजब की लगी..... और ये....’ इससे पहले की परीक्षक अपनी बात पूरी करता, विक्रम ने बात काटी ओर मन में सोचा, ‘अबे भुक्कड़, भिखारी, देश पर बोझ, मैंने कुछ ओर पूछा था कमीने।’ बाद में मुस्कराते हुए कहा, ‘सर में शोध प्रबंध के बारे में पूछ रहा हूं।’
परीक्षक ने उत्तर दिया, ‘अरे अच्छा है। मैंने देखा जो पिछली बार कमियां थी, वो तुमने सुधार ली हैं। मुझे अच्छा लगा।’
‘अबे अंधे, दिमागी अनपढ़, मैंने परिकल्पना को ऊपर-नीचे करने के अलावा कुछ किया ही नही ंतो तूने क्या देख लिया जो मैंने सही किया।’, मन में सोचते हुए विक्रम ने परीक्षक के पैर घुटने छू लिए। 
अंत में मूल्यांकर पत्र में ढूंढा गया जो एक किनारे रख दिया गया। अंक दिए गए। और वहीं घोषणा करते हुए कहा गया कि कमेटी विक्रम की मेहनत की सराहना करती है। उनके उन्हें पीएच0डी0 उपाधि हेतु संतुति देती है।
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विक्रम ज्यादा खुश नहीं था। क्योंकि उसे पता चल चुका था कि इस देश में मेहनत से ज्यादा किसी और चीज पर ध्यान दिया जाता है। विक्रम ने उसी पर ध्यान केन्द्रित कर अपना काम निकाला और विश्वविद्यालय से चलता बना। हां ये अलग बात है कि उसने कसम खाई जैसा उसके साथ हुआ, शिक्षक बनने पर वो किसी ओर के साथ ऐसा नहीं करेगा। 
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अब विक्रम उच्च शिक्षा संस्थान में एक शिक्षक बन गया है। और व्यवस्था बदलने के लिए फिर संघर्ष कर रहा है।