सीखने के लिए मैंने हर जख्म सींचे हैं, पढ़ना है दर्द मेरा तो सब लिंक नीचे हैं

मंगलवार, मई 12, 2020

बदनसीब घड़ा

बदनसीब घड़ा

(कहानी प्रेम कथा की एक घटना से प्रेरित है)

-  बृजेन्द्र कुमार वर्मा


ये दिन हर बार की तरह सामान्य नहीं था. हर बार तो धूप भी निकलती थी और शाम होते-होते गर्मी भी कम हो जाती थी. बारिश होती भी थी, तो मौसम को रंगीन बना देती थी, लेकिन इस बार मौसम के बारे में कुछ भी कहना अनोखा सा लग रहा था. लेकिन प्रेमिका को ये मौसम नहीं, नदी पार अपना प्रेमी दिखाई दे रहा था. प्रेमियों की खासियत समझने के लिए उनके जैसा बनना पड़ेगा. उनके जैसा मतलब संत. किसी से पूछोगे, तुम्हारे लिए सबसे महत्वपूर्ण क्या है, तो कोई बोलेगा धन, कोई बोलेगा तन तो कोई बोलेगा मन. लेकिन प्रेमी जोड़ा बोलेगा समपर्ण. लेकिन क्या करें साहित्य में समपर्ण की परिभाषाएं भी अलग-अलग हैं. बहरहाल प्रेमी जोड़े का समर्पण समझना भी मुश्किल है, या ये कहें हालातों के अनुसार समपर्ण भी बदलता रहता है.

 

इतना भरोसा तो माँ को अपने बेटे पर भी नहीं होगा , जितना भरोसा प्रेमिका को अपने हाथों से बनाए घड़े पर था. लेकिन बेचारी प्रेमिका को क्या मालूम था कि उसके बनाये घड़े को हटाकर उसके जैसे कच्चे घड़े को रख दिया गया है, वो भी उसी के संबंधी ने, लेकिन अच्छी आत्मा को सब अच्छे ही दिखाई देते हैं, सो प्रेमिका को भी उसके अपने सच में अपने ही नजर आए। हर बार की तहर नदी पार प्रेमी से मिलने चल दी। उसका घड़ा जो उसका माझी बनता, उसे ध्यान से भी नहीं देखा, परखा भी नहीं। 

 

हाय! ये दुनिया भी अजीब है, परखने का काम भी वो करते हैं, जिसे अपनों पर भी भरोसा नहीं होता और जिसे भरोसा होता है, वो कभी परखता ही नहीं। 

 

लोग नदी के उफान से अपने घर की ओर जा रहे थे, तो प्रमिका मुस्कान लिए नदी ओर जा रही थी। शाम जल्दी ढलने लगी, आज तो सूरज भी इस तुफान के आगे हल्का नजर आ रहा था, बारिश तो हो ही रही थी, लेकिन ये तेज हवाएं मौसम को सुहाना बनाने की जगह भयावह बना रही थी। लोग डर रहे थे, प्रमिका खुश हो रही थी। भगवान भी किसी का नसीब सोने से लिख देता है, तो किसी का मिट्टी से, लेकिन नसीब ही सब कुछ नहीं होता, समय से आगे तो भगवान भी ठहर जाता है, इसीलिए सोने के नसीब वाले मिट्टी में मिल जाते हैं और मिट्टी में खेलने वाले सोने का ताज पहन लेते हैं।

 

प्रेमिका मिट्टी के बर्तन जरूर बनाती थी, लेकिन प्रेम ने उसकी आँखों को प्रकृति की गोद सा बना दिया था। उसे मिट्टी में भी अस्तित्व नजर आते और वो भी दिवानी ठहरती नहीं, जो दिखता, चाक पर रखकर बना देती। देश-विदेश से उसकी कलाकृति को देखने मुसाफिर आते थे। उसका आशिक़ भी कभी मुसाफिर ही था। 

 

प्रेमिका नदी पर पहुँच गयी। नदी उफान दिखा रही थी, लेकिन प्रेमिका उस पार तट को देख रही थी, सिर्फ घड़ा ही था, जो उस उफान को देखकर घबरा रहा था। जुबां होती तो बोल देता, ‘प्रेमिका उस पार न जा सकेगी’

 

प्रेमिका उतर पड़ी नदी में, उस नूर को, उस प्रकृति के बनाए नायाब तोहफे को देखने, जिसे आँख वाले भी नहीं देख सकते, दिलवाले भी समझ नहीं सकते। उस खुशबू को लेने जिसे प्रकृति ने नसीब वालों के लिए बनाया है, जिसे महसूस करना किसी के बस में नहीं। उन धड़कनों को सुनने, जिसके लिए तमाम पवित्र आत्माएं इंतजार करती हैं, उसमें कुछ पहर रहने के लिए। 

 

नदी का उफान, तेज होती बारिश, बढ़ता बहाव और प्रेमिका को दिखता किनारा। बेदर्द और खौफनाक होते मौसम को देखकर प्रेमिका घड़े से कुछ पूछती कि घड़ा बोल पड़ा।

 

क्या तुम्हें कुछ दिखाई नहीं दे रहा कि मैं कैसा हूँ और तुम मुझे किन परिस्थितियों में ले जा रही हो ?’, घड़ा घबराता हुआ बोला।

 

पानी में तैरती प्रेमिका बोली, ‘कैसे हो का क्या मतलब है ?, क्या तुम जानते नहीं, हमेशा की तरह मुझे कहाँ  जाना है, और तुम मेरे लिए क्या करते हो ?’

 

नहीं मैं नहीं जानता’, डरता हुआ घड़ा बोला।

 

प्रेमिका दुखी मन से बोली, ‘देखो मेरे प्यारे घड़े इन विपरीत परिस्थितियों में मुझसे ऐसी हँसी न करो। मुझ बदनसीब की बिन इच्छा शादी हुई। माता-पिता ने भी हमेशा के लिए विदाई दे दी। ससुराल में भी मुझे प्यार नहीं मिला और जब तुझे बनाया तो सिर्फ इसलिए कि मैं उस पार जाकर अपने प्रेमी को देख सकूं, उससे मिल सकूं। हर बार तूने मेरा साथ दिया, आज तुझे क्या हो गया। मेरा नसीब इतना तो खराब नहीं कि मैं अपने प्रेमी को दुखी करूं। अब मेरा नसीब भी तेरे हवाले है, तू ही किनारे पहुँचाता  है, तो आज तुझे क्या हो गया है ?

 

पानी के तेज बहाव से घड़ा कमजोर हो रहा था, लेकिन बातों को समझ नहीं पा रहा था कि आखिर उसने कब प्रेमिका को हमेशा किनारे पर पहुँचाया. वो इस भयानक मौसम में क्यों झूठ बोलेगा -

 

मैंने तो आज तक नदी को देखा भी नहीं, मुझे तो तुम्हारी भाभी ने कल ही बनाया, लगता है तुम्हें धोखा हुआ है’

सन्न रह गयी प्रेमिका... अब रोने लगी, ‘हाय। तो क्या अब भाभी भी मुझे...। मुझे धोखा हुआ नहीं है, धोखा दिया है। जिसे मैंने अपनी बहन माना उसने ही...। नफरतों की फहरिस्त में एक और नाम जुड़ जाने से नफरतों का तौल नहीं बढ़ जाता, हाँ  इतना जरूर है, खतरे बढ़ जाते हैं।

 

प्रेमिका को अब बस घड़े का ही सहारा था, सो घड़े से ही विनती करने लगी। ‘

ऐ घड़े- मेरा बस एक काम कर दे,

पिघलते जिस्म को जाम कर दे,

थाम ले कुछ साँस अपनी,

हाथ मेरे अपनी लगाम कर दे,

देख नदी ने जान लिया है,

लहरों ने भी पहचान लिया है,

बस यही एक एहसान कर दे,

इस नदी के पार कर दे।’

 

घड़ा क्या करता, कसमसाता हुआ बोला, ‘प्रेमिका तुम समझती क्यों नहीं मैं कच्चा घड़ा हूँ। मुझे पकाया नहीं गया।’

 

प्रेमिका ने भी उत्तर दिया, ‘तुम कच्चे हो तो क्या हुआ, आखिर मेरा प्यार तो पक्का है। जीवन भी इंसान को कच्चे से पक्के होने का समय देती है। दुख और सुख साथ-साथ चलते हैं। दुख ही ऐसे हैं, जो इंसान को समय के साथ-साथ पक्का बना देती हैं। माना तुम्हें पकाया नहीं गया, इसका मतलब ये तो नहीं कि तुम स्वयं भी पकना नहीं चाहो। जब दुख का समय आता है, उस समय पकने का सही मौका होता है। जिन बच्चों को शिक्षा नहीं मिलती तो क्या वे समझदार नहीं माने जा सकते। जरा समाज में बात तो करके देखो, कभी-कभी  ऊँचे पदों पर बैठे लोगों से ज्यादा अच्छी बातें वे कर जाते हैं, जिन्होंने स्कूल तक का मुँह नहीं देखा होता।’

 

देखो प्रिय घड़े मेरा वक्त हमेशा से बुरा ही रहा है, इस नदी को ही देखो। आज तक जिसने मेरे शरीर की प्यास बुझाई और उस किनारे पहुँचाकर मेरी आत्मा की प्यास बुझाई, जिसने हजारों इंसानों की, वृक्षों की प्यास बुझाई, निर्मलता दी, आज वह भी इस मौसम की मार झेल रही है। याद रखना जिसका दिल भी इस पवित्र नदी जैसा होगा, उसे किसी न किसी बात को लेकर कुछ न कुछ झेलना जरूर पड़ेगा|’

 

घड़ा पिघलने लगा, ‘अब मेरा समय आ गया है। मैं इस काबिल न बन पाया कि तुम्हें उस पार ले जा सकूं। मैंने बहुत कोशिश की, लेकिन अब तो लगता है, यदि कोई अच्छा भी हो तो हालात आपको उसकी मदद नहीं करने देते।’

 

मैं डूब रही हूँ। अब क्या करूं, क्या उनसे मुलाकात नहीं होगी, ऐसा ही है तो मुझे कुछ कहना है उनसे। इस जीवन में उनकी नहीं बन सकी, लेकिन अगले जन्म में उनकी बनूँगी। लेकिन पक्षी बनकर, इंसान नहीं। इंसानों ने तो गाँव, शहर, सरहदों, समाज, वर्ग यहाँ  तक कि जिस्म तक पर पाबंदियाँ लगा दी हैं। पंछी आजाद होते हैं।’

 

घड़ा पिघल रहा था, उस पर चढ़ा रंग फीका पड़ने लगा। प्रेमिका की कोशिशें जारी थीं, लेकिन विफलता का दामन बढ़ता जा रहा था, मानो उसे हराने में सारी कायनात एक हो गयी हो। 

साँस फूलने लगी तो हड़बड़ाते हुए घड़े से बोली, ‘

अब तो नदी को भी तरस आने लगा, मौसम को धिक्कारने लगी, क्या अभी ही खराब होना था, थोड़ा रुक नहीं सकते थे। उन्हें क्यों नहीं सताते, जो दूसरों को सताते हैं, क्यों उन पर बिजलियाँ नहीं गिराते जो सिर्फ अपने लाभ के लिए दूसरों के घरों में आग लगा देते हैं। नदी कर भी क्या सकती है, नियती से बंधी जो है। 

 

घड़ा अंतिम समय में आ गया, ‘अब मुझे माफ कर दो, जितना कर सकता था, कर दिया अब सहा नहीं जाता, पानी में खो जाने का समय आ गया। सोचा था, मेरा निर्माण हुआ है तो एक काम तो अच्छा जरूर करूँगा। हर किसी को अपने जीवन में एक अच्छा काम जरूर करना चाहिए, जो बाकी जीवन को आसान बना दे, लेकिन मैं एक भी काम अच्छा नहीं कर पाया, मुझे दुख है। तुम्हें उस पार पहुँचाने की कोशिश भी अब नाकाम हो गई। मेरा आधा शरीर डूब गया, तुम भी हाँफने लगी।

हे ईश्वर! कुछ ऐसा कर दे,

मेरे कर्मों में नेक लिख दे,

इस लड़की को उस पार कर दे।’

 

सिसक कर रोने लगी प्रेमिका, ‘तुम तो कमजोर निकले घड़े। तन से भी और मन से भी। देखो, मैं तो स्त्री हूँ, न जाने मुझे कहाँ-कहाँ  से धोखा मिला, नफरतें मिली। लेकिन, एक प्रेम ने मुझे इतना मजबूत बना दिया कि सारे धोखों और नफरतों को मैंने माफ कर दिया। और सच ये भी है कि मैं तुम्हें भी माफ करती हूँ। तुम्हें तो एक बुरा काम करने के लिए बनाया गया था, लेकिन फिर भी तुमने एक अच्छा काम किया, मेरी जितनी मदद हो सकी, उतनी कर दी। अब इन लहरों ने तुम्हारे चीथड़े करना शुरू कर दिया, ये उनका कर्म है, वे भी नियती से जो बंधे हैं।’

 

काश मैं उन्हें देख पाती, सुनो... मुझे माफ कर दो आपको बेवजह इंतजार करवा दिया...’, प्रेमिका अब थकने लगी थी। 

 

उस ओर खड़े प्रेमी की धड़कन अचानक बढ़ गई। जैसे प्रेमिका कुछ कह रही है। इतना मौसम खराब था तो आना ही नहीं चाहिए था, लेकिन दिल इतना बेचैन क्यों हो रहा है। इतनी तेज बारिश आँधी में कुछ दिखाई भी नहीं दे रहा, शाम तो थी ही साथ ही बादलों ने और अंधेरा कर दिया। नदी में आँधी से टूटे पेड़ तैर रहे हैं, डूब चुके जानवर भी उतराने लगे। लेकिन अभी तक प्रेमिका आती दिखाई नहीं दे रही।

 

प्रेमी का दिल इतना बेचैन हुआ कि लगा नदी किनारे लहरें उसके पैरों को पकड़कर गिड़गिड़ा रही हों, चलो जल्दी चलो, कहीं देर न हो जाए। प्रेमी को जब कुछ समझ नहीं आया तो आखिरकार लहरों ने ही प्रेमिका की चोली उसके पैरों में ला रख दी। प्रेमी चिला उठा और नदी में छलांग लगा दी। लहरें नियति से बंधी थी, तो क्या मदद नहीं कर सकती ?

 

एक अधिकारी नियमों के तले काम करता है, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि वह नियमों का गुलाम हो गया, वह अधिकार प्राप्त व्यक्ति होता है, जो नियम के लिए काम जरूर करता है लेकिन समयानुसार वह निर्णय ले सकता है, जो किसी के भले के लिए हों। यदि नियमों से भलाई होती नहीं दिखती, तो यह अधिकारी ही होती है जो विरोध कर सकता है, क्योंकि वह नियम और नियम मानने वालों के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी होता है। ऐसा ही कुछ लहरों ने नियति का पालन करते हुए प्रेमी के साथ प्रेमिका के लिए किया। 

 

आखिरकार लहरों ने प्रेमी को प्रेमिका के पास पहुँचा दिया, प्रेमिका अपनी थकान भूल गई, भयानक मौसम को भूल गई, अपने साथ बहाकर ले जाती लहरें उसे मखमल लगने लगी, घड़ा तो मानो उसका हथियार बन गया, मुस्कराते हुए प्रेमी से कहने लगी, ‘माफ कर दो मुझे, मैं आ नहीं पायी’

 

प्रेमी की आँखों में आँसू थे, दोनों एक दूजे से लिपट गए। जोर-जोर से अपनी किस्मत पर रोने लगे। वे समझ गए आखिर प्रकृति चाहती क्या थी। घड़ा पिघल चुका था, बस मुँह ही रह गया था पिघलने को, क्योंकि प्रेमिका ने उसे भी अपने सीने से लगा रखा था, सो बचा रहा। हाय रे प्रेमिका तुझे अपनी जान की परवाह न रही, उस कमजोर घड़े को बचाए रही, जिससे खुद मदद माँग रही थी। नारी दिखती कमजोर है, पर होती सबसे मजबूत है। उसकी आवाज में कितनी विवशता क्यों न हो, लेकिन उसके कर्म प्रकृति को जिन्दा रखते हैं। 

 

जैसे ही प्रेमी जोड़ा मिला, वैसे ही गाँव में बाढ़ आ गयी। लग रहा था, मानो प्रेमियों के आँसूओं से बाढ़ आ गयी। नदी का गुस्सा फूट पड़ा। ऐसा लग रहा था, जैसे नदी अपने लहरों को गाँवों में संदेश भेज कर कह दिया हो, बेरहमों! लो मैं उन्हें अपने साथ ले जा रही हूँ, जिन्हें तुमने प्यार से रहने नहीं दिया। ये बेचारे तो जीना चाहते थे, लेकिन इनको मरता देख तुम खुश हो रहे होगे। देख लो, अब तुम्हें नफरत करने की जरूरत नहीं, ले जा रही हूँ इन्हें हमेशा के लिए। लेकिन इतना याद रखना जब तक मेरा अस्तित्व है, इनके प्रेम की सुगंध मुझसे आती रहेगी। 

घड़ा प्रेमी जोड़े के प्यार को देख रोने लगा। अंतिम साँसों में पूछ बैठा, ‘प्रेमिका क्या तुमसे कुछ पूछ सकता हूँ ? मैं जानता हूँ, तुम्हारी मदद नहीं कर पाया, जानता हूँ, तुमसे पहले मैंने हिम्मत छोड़ दी, तुम आखिरकार अपने प्रेमी से मिल ही ली। इस अंत समय में मेरा योगदान क्या है ?’

 

प्रेमी जोड़ा डूब रहा था, अंत समय में भी प्रेमिका के चेहरे पर मुस्कान थी, कहने लगी, ‘तुम्हारा ही योगदान है कि मैं अपने प्रेम से आखिरी समय में मिल पायी और अभी तक नहीं डूबी। तुमने जो सहारा इस संकट में दिया, वो हमेशा याद रहेगा। तुम कच्ची मिट्टी के जरूर बने हो, लेकिन तुम्हारे इरादे किसी फौलाद से कम न थे। मुझे तुम्हारे इरादों ने बचाकर रखा। जाओ तुम्हें वरदान भी देती हूँ, जो लोग हम दोनों के प्रेम को याद रखेगा, वो तुम्हें भी याद रखेगा। इस नदी ने हम प्रेमियों को जगह दी। तो इन नदियों से ही पता चलेगा कि दुनिया में प्रेम कितना शेष है। नदियाँ सूखने लगे तो समझना प्रेम खत्म हो रहा है।’

 

प्रेमिका ठहरी नहीं, अंत में यह भी कह गई, ‘घड़े तुम्हें ये किसने का कि तुम पूरी तरह डूब जाओगे, माना कि तुम्हारा पूरा बदन पानी में मिल गया, लेकिन तुम्हारा मौखला मेरे हृदय से लगने के बाद मेरे जैसा मजबूत हो गया है, तुम्हें किनारा जरूर मिलेगा। जब नई कोपलें खिलें, तो तुम उन्हें इस अंत समय की घटना को जरूर सुनाना। इंसान पूरी जानकारी ले न ले, अंत सबको जरूर समझना चाहिए। 

 

इसके बाद नदी प्रेमी जोड़े को अपने आगोश में ले गई। जो घड़ा अपनी अंतिम साँसे ले रहा था, अब उसे पता चला कि उसकी अंतिम साँसे नहीं है, जो घबराहट थी, वह अब न रही। बारिश तेज हो रही थी, नदी उफान पर थी, गाँव डूब चुके थे। शाम ढल चुकी थी। अंधेरा हो चुका था। सूरज तो जैसे डूबा, नहीं अचानक बदहवाश गिर गया हो। ऐसा लग रहा था, कोई मनवंतर शुरू हो गया हो।

 

घड़ा अब किनारा ढूंढ रहा था।

 

 

शुक्रवार, मई 08, 2020

4 रोटियों का विश्लेषण

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समझ नहीं आ रहा, फोटोग्राफर हमें 4 रोटियां क्यों दिखा रहा है?? चलो विचार करके देखते हैं.

अब रेल की पटरी पर रोटियों के पड़े रहने की दशा देखिये.

पहली रोटी सबसे ऊपर है और पूर्ण रूप से दिखाई दे रही है. चमकती हुयी.

इसके नीचे दूसरी रोटी है, जो लगभग पहली रोटी के नीचे 20 प्रतिशत दबी हुयी है.

तीसरी रोटी पहली और दूसरी के नीचे दबी हुयी है. तीसरी रोटी की स्थिति ये है कि वह ठीक से पड़ी नहीं है, मतलब मुड़ी है और दबी है. अर्थात पूरी तरह गोल दिखाई नहीं दे रही.... गोल बनी तो थी लेकिन अभी पटरी पर है और मुड़ी है और अन्य दो रोटी के नीचे दबी है.

अब बात करते हैं चौथी रोटी की. ये चौथी रोटी दूसरी और तीसरी रोटी के नीचे दबी है. 
हालांकि ये जो चौथी रोटी है ये फ़िलहाल सिर्फ दूसरी और तीसरी रोटी के ही नीचे दबी है.... पहली रोटी के दवाब में बिल्कुल नहीं है... और पहली रोटी के नीचे होने से पूर्ण रूप से स्वतंत्र है.



आखिर कैसे


खेतों में हम रहे, तेरा भरा पेट कैसे ?
मेहनत करी हमने, तू धन्ना सेठ कैसे ?
एक गेहूँ मेरा, एक गेहूँ तेरा
अनाज सबका एक तो फिर दोहरा रेट कैसे ?
खेत जोते, बीज बोया, पानी दिया मैंने
सल मेरी कह रही, तेरी जमीन कैसे ?

 एक जोड़ी कपड़ा पहना, विचार ऊँचा रखा हमने
गर सोच तेरी काली, तो सफ़ेद लिबाज़ कैसे ?
रोका तूने, टोका तूने, दिया नहीं कोई मौका तूने
लेकिन अब जो चल गया, रुकेगा ये आगाज कैसे ?

काम करूं दिन रात, बनती नहीं कोई बात
मेरे पास फटी धोती, तेरे पास कोट कैसे ?
धोखा खाया हर बार, भरोसा किया हर बार
वादा पूरा किया नहीं, तुझे दे दूं वोट कैसे ?

तूने बोला काम कर, आराम को हराम कर
अब चलने की बीमारी है, तो करूं पैर जाम कैसे ?
पढ़ने हमको दिया नहीं, किताब हाथ लिया नहीं
ज्ञान का सूरज तो अब निकला है, फिर अभी शाम कैसे ?

माना ये जमीन तेरी, लेकिन सारी मेहनत मेरी
बाँटने की बारी आई, तेरा पलड़ा नीचा कैसे ?
दया भावना कुछ भी नहीं, दुआ कामना कुछ भी नहीं
दिल इतना छोटा है तो, फिर तू अमीर कैसे ?

 सब कुछ तेरे हाथ में था, हर कोई तेरे साथ में था
जमीर आखिर बेच दिया, होगी नैया पार कैसे ?
उसने बोला आंखे खोल, कब समझेगा सच का मोल
फिर हमने आवाज उठाई, अब गद्दार कैसे ?
  
दिल ने कहा सवाल कर, वापस मेरा माल कर
अभी तो सिर्फ नजरें मिलायीं, तुझमें ये उबाल कैसे ?
मिट्टी से आकार दिया, सपना तेरा साकार किया
अब जब अंदर जा नहीं सकते, तो खुला दरबार कैसे ?


वो बोली अम्मा भात, वो बोली घर पहुंचा दो लगा आघात
अब भी नहीं आये तो, ऐसे भगवान् कैसे ?

-(बृजेन्द्र कुमार वर्मा )





मंगलवार, मई 05, 2020

बंटवारे के दिन

कविता 
उसके विचार ऊँचे थे
उसके सिद्धांत ऊँचे थे
उसकी सोच ऊँची थी
उसकी सीख ऊँची थी
उसका ज्ञान ऊँचा था
शायद इसीलिए
बंटवारे के दिन
पलड़ा उसका ऊँचा था

-बृजेन्द्र कुमार वर्मा 

सोशल मीडिया.... कृपया जागरूक हों

गलत लोगों से जुड़े कुछ लोग गलत लोगों के द्वारा भेजे फेक वीडियो सन्देश को लेते हैं फिर बाद में कहते हैं, सोशल मीडिया फेक न्यूज़ दे रहा है.
ये वैसा ही है... जैसे पत्नी खाना बनाते समय नामक सब्जी में भर दे और दोष दे दिया जाए गेस चूल्हे को जिसके कारण वो सब्जी पकी है.
अजीब है, जब आप गलत लोगों से जुड़कर गलत वीडियो प्राप्त कर रहे हो तो ऐसे लोगों से तत्काल दूर हट जाना चाहिए. या फिर भेजने वाले व्यक्ति से उसी समय भेजे गये वीडियो या सन्देश का रिफरेन्स पूछा जाना चाहिए.
यदि ये सब आप नहीं कर सकते तो बेवजह सोशल मीडिया पर सवाल उठाना ठीक नहीं.
बन्दूक का इस्तेमाल सरहद पर रक्षा करने के लिए कर लो या फिर समाज में ही चला चला के अपने लोगों को मारों... इसमें बन्दूक की गलती नहीं... चलाने वाले की है.
मेरा पुरजोर सुझाव है... जो भी गलत वीडियो भेज रहे हैं... उन्हें उस माध्यम से तुरंत ब्लोक कर दें... या फिर गलत जानकारी भेजने वाले की जानकारी प्रसाशन को दें. अपनी जिम्मेदारी निभाए.. सोशल मीडिया को बदनाम न करें.
कृपया जागरूक हों 

बदलती परिभाषा की परिकल्पना

वैसे तो अर्थशास्त्र में विकसित और विकासशील की अलग परिभाषा है, लेकिन कोरोना वायरस 19 ने यानि के एक बीमारी ने परिभाषा को पलट के रख दिया.
अर्थशास्त्र में विकसित मतलब हर तरह की बेहतर सुविधायें. पैसा ही पैसा
और विकासशील का मतलब बेहतर सुविधाओं के लिए संघर्ष.
लेकिन #covid19 ने परिभाषा को बदल दिया.
covid19 के अनुसार विकासशील मतलब जहाँ कम मौतें हो रही हैं और
covid19 के अनुसार विकसित मतलब लाशों का अम्बार, लाशें ही लाशें. रखने को जगह नहीं.

बंटाई

कविता 

  बंटाई  


फसल काट ली 
बोरों में भर ली 
बंटवारे की बात आई 
जिसकी जितनी क्षमता थी
उतनी बोरे रखने की आज़ादी 
मेहनत करने वाले ने अपना झोपड़ा खोला 
जमीन वाले ने अपना महल 
-बृजेन्द्र कुमार वर्मा 

शुक्रवार, मई 01, 2020

फेसबुक पर ऑनलाइन जुड़ाव नया आईडिया नहीं है

कुछ लोग दावा कर रहे हैं कि ऑनलाइन जुड़ाव नया आईडिया है.
नहीं भाई, फेसबुक पर "उस तरह" के लोग "उस तरह" के लोगों के लिए कई बार और कई साल से ऑनलाइन मीटिंग कर रहे हैं, जिसमें कुछ "उस तरह" के कर्मचारियों को बैठा दिया जाता है और घंटों बात चीत होती रहती है... सवाल जवाब चलते रहते हैं.
हालाँकि ये लोग, राजनीती, विकास, अर्थव्यवस्था आदि पर बात नहीं करते. लेकिन हां ज्ञान जरूर देते हैं.
क्राइम ब्रांच अधिकतर ऐसे लोगों पर नजर रखता है. देश में कई सालों से ह्यूमन ट्रेफिकिंग का सिलसिला जारी है. इन सब को आपस में जोड़ने की कोशिश कीजिये तो पता चल जायेगा. ऑनलाइन कब से और किस बारे में होती आ रही है.

और अंत में
फेसबुक पर ऑनलाइन गेदरिंग नई नहीं है. इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा, की देश में नई से नई तकनिकी का, शुरूआती दौर में गलत वर्ग के लोग ही उपयोग करने लगते हैं, सही उपयोग तो दैर में शुरू होता है .
तभी तो कहावत बनी है, देर आये दुरुस्त आये.