सीखने के लिए मैंने हर जख्म सींचे हैं, पढ़ना है दर्द मेरा तो सब लिंक नीचे हैं

सोमवार, मार्च 30, 2020

पत्रकारिता को 10वीं 12वीं में क्यों पढ़ाया जाय

संविधान के चार स्तम्भ हैं और माध्यमिक और उच्च माध्यमिक में सिर्फ 3 स्तंभों (न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका) बारे में कुछ न कुछ पढ़ाया ही जाता है, लेकिन जब बात आती है चौथे स्तम्भ  पत्रकारिता की तो इसकी तरफ कोई ध्यान नहीं जाता, जबकि चौथा स्तम्भ असीम संभावनाओं का भण्डार है.

जबकि होना ये चाहिए कि देश में सबसे अधिक पढाई और सजगता इस स्तम्भ के प्रति होनी चाहिए. प्रेस को फ्री कर देने से इसका नाजायज फायदा भी उठाया जाता है जो आजादी के बाद से होता आ रहा है. सर्वाधिक विविधता प्रेस के पाठ्यक्रम को लेकर होनी चाहिए. प्रेस की पढाई माध्यमिक से जरूर शुरू कर देनी चाहिए. उच्च माध्यमिक में और विविधता के साथ पढ़ाया जाना चाहिए, विषय के रूप में पढ़ाये तो और अच्छे निष्कर्ष आयेंगे.
चूँकि, प्रेस की पढ़ाई स्नातक से होती है तो ऐसे में प्रेस के पाठ्यक्रम से जुड़ाव जल्दी नहीं होता, प्रेस का पाठ्यक्रम भी बहुत छोटा और दूसरे विषयों से लिए उधार पर टिका होता है, ऐसे में प्रेस की जो गंभीरता आनी चाहिए वह आ नहीं पाती.
करोड़ों की जनसँख्या वाले भारत देश में प्रेस/मीडिया में अन्धविश्वास या आध्यात्म ज्यादा दिखाई देता है और विज्ञानं की कमी देखी जाती है. आज भी भारत में तमाम न्यूज़ चैनल ऐसे हैं जो भविष्य फल, धार्मिक स्थलों का रहस्य, धार्मिक प्रवचन आदि दिखाते हैं, जबकि उतनी मात्रा में संविधान या क़ानून की जानकारी या विज्ञान या तकनीकी की जानकारी वाली सामग्री नहीं होती. 

असल में इस तरह की कमी उनकी सोच और नजरिये की वजह से है, उनकी पत्रकारिता की पढाई या फिर प्रेस के प्रति जिम्मेदारी का अहसास उनके पाठ्यक्रम में कराया ही नहीं गया. प्रेस को बहुत ही छोटा मान लिया गया. देश के किसी पाठ्यक्रम को इस तरह नहीं बनाया गया जिससे प्रेस और संचार क्षमता की गंभीरता और उसके प्रतिफल को समझा सके. 

लगभग सभी संस्थानों को सिर्फ और सिर्फ अपना पाठ्यक्रम पूरा करके नौकरी दिलवानी है ताकि "कैम्पस प्लेसमेंट" दिखाकर और बच्चों को प्रवेश के लिए ललचा सकें. 

पत्रकारिता किसी भी देश की रीढ़ होती है. यदि संचार गलत किया गया, तो देश की विचारधारा भी वैसी ही बनेगी. किसी राष्ट्र का विकास वहां मौजूद पत्रकारिता (प्रेस/मीडिया) की कार्पयप्ररणाली पर निर्भर करता है.  

गंभीरता से लिया जाए तो प्रेस की पढ़ाई माध्यमिक स्तर से ही शुरू कर देनी चाहिए. छात्र जितना जागरूक होंगे, उतना ही प्रेस को निखारा जा सकेगा. जुझारू छात्र इस ओर आएंगे और प्रेस की भी यही मांग होती है. 



शनिवार, मार्च 21, 2020

कोरोना वायरस और फ्रंट पेज के विज्ञापन


जिस देश में कोरोना वायरस की वजह से प्रतियोगी परीक्षाएं रद्द कर दीं हों, चहरे के मास्क और सेनाटाजर आउट ऑफ़ स्टॉक चल रहे हों, मंदिर बंद, मस्जिद बंद, चर्च बंद, गुरूद्वारे बंद, रेल यात्री कम, हवाई यात्राएं बंद होने को, 8वीं तक के बच्चों को बिना परीक्षा पास की घोषणा कर दी हो, घर बैठे दफ्तर का काम शुरू हो गया हो, 60 प्रतिशत देश का हिस्सा प्रभावित हो चूका हो, खाने और रहने की जरूरतों का सामान स्टॉक होने लगा हो, जिस देश के  प्रधानमन्त्री लोगों को घरों में रहने की अपील कर दें, जहाँ कोरोना वायरस जांच किट की सन्दिग्ध के मुकाबले कमी हो, जहाँ आये दिन कोरोना पॉजिटिव निकल रहे हों,....
वहां -
अखबारों के फ्रंट पेज पर भारी ऑफर वाले विज्ञापन आ रहे हैं. प्रेस का आज़ादी की लड़ाई में विशेष योगदान है. एक वक़्त था जब अंग्रेजी सरकार की विशेष नजर अख़बारों पर हुआ करती थी. क्योंकि सबको पता था अख़बार एक धधकते अंगारे की तरह है जो एक कोयले से दूसरे  कोयले में पहुँच कर उसे भी सुलगा देती है. पर आज अखबार पैसा कमाने की मशीन बन गये है. आजकल लगभग हर बड़ा बिसिनेस मैन अख़बार चला रहा है या अखबारों में निवेश कर रहा है. पहले संपादक के निर्णय स्वीकार किये जाते थे. आज़ादी के बाद से इसमें तेजी से परिवर्तन आया और सम्पादक की जगह प्रकाशक महत्वपूर्ण हो गया, अख़बार से अधिक विज्ञापनों पर ध्यान जाने लगा. लाभ के लिए ख़बरों से छेड़छाड़ होने लगी. पैसा कमाने का एक नया नाम सामने आया "पेड न्यूज़". और अब कई तरह से अख़बारों में पैसा कमाया जा रहा है जिसे आप सिद्ध भी नहीं कर पाएंगे.
मैंने टेलीविजन की बात नहीं की, क्योंकि टीवी पर आने वाली खबरों ने कभी भी लोगों का भरोसा नहीं जीत पाया. विभिन्न अध्ययनों में पाया गया है कि टीवी पर आने वाली खबरों से अधिक अखबारों की ख़बरों पर भरोसा किया जाता है. इसीलिए मैं भी सबसे भरोसेमंद जनमाध्यम की बात करूंगा. हालाँकि टीवी न्यूज़ चैनल की बात करें तो विज्ञापनों के मामले में वे भी समान टिप्पणी के लायक हैं. बात कितनी भी गंभीर हो विज्ञापन से कोई समझौता नहीं होता. निर्भया के दोषियों को मिली फांसी की खबर के बीच में भी ब्रेक लिया जा रहा है. कोरोना से लोग किन किन राज्यों में प्रभावित हो रहे हैं ये भी ब्रेक के बाद बताया जायेगा. जब देश में वायरस को लेकर विषम परिस्थितियां बनती दिख रही हो तो न्यूज़ चैनलों का ऐसा व्यवहार विकासशील देश के लिए शोभा नहीं देता. 
भारत में आजादी के बाद से आज तक किसी सम्पादक को फांसी नहीं दी गयी. हजारों छोटे-बड़े अख़बार-पत्रिकाएँ निकलती हैं. उन्हें नियंत्रित और उन पर निगाह रखने के लिए प्रेस काउंसिल भी है, लेकिन आज तक किसी सम्पादक को फांसी या उम्र कैद जैसी सजा नहीं मिली, इसका मतलब ये माना जा सकता है कि किसी भी सम्पादक ने कोई बड़ा अपराध नहीं किया है.
अब वापस आते है कोरोना वायरस पर. देश में इस बीमारी को लेकर लोगों में बेचैनी बढ़ रही है, आये दिन लोग इस वायरस से प्रभावित हो रहे हैं, और अब तो मरने वालों की संख्या भी बढ़ रही है. इसी बीच अफवाह फैला कर विक्रेता वस्तुओं की कीमत बढ़ाकर बेंच रहे हैं. हालाँकि भारत में अफवाह फैलाकर पैसा कमाने की पुरानी रीति रही है, लेकिन अब हफ्ते दो हफ्ते में कुछ न कुछ अफवाह फ़ैल ही रही है.
इन सब के बीच अखबार या न्यूज़ चैनल अफवाहों पर उचित खबर नहीं बना रहे. कोरोना वायरस के प्रभाव या जांच पर खबरें मिल रही है. जागरूकता को लेकर ख़बरों की भरी कमी है. कोरोना वायरस को लेकर यदि कोई जागरूकता विज्ञापन प्रकाशित या प्रसारित हो भी रहा है तो वह पैसे के बिना नहीं है, जबकि अब फ्री भी जागरूकता विज्ञापन दिए जाए तो भी कोई बड़ी बात नहीं होनी चाहिए. 
आज केंद्रीय और राज्य सरकारों को एक होकर काम करना होगा, जोकि फिलहाल नहीं हो रहा है. अभी भी पूर्वोतर राज्य सरकारों के जागरूकता सम्बन्धी विज्ञापन या खबरें देखने को नहीं मिली हैं. केरल में कोरोना के भारी प्रभाव के बावजूद तमिलनाडु, कर्नाटक में जागरूकता अभियान धीमा ही है. 
वक़्त आ गया है संविधान के चारों स्तंभों को एक हो जाने का, बिना किसी लाभ हानि की चिंता किये बगैर देश को समर्पित हो जाने का.
जन नेता, अखबार अक्सर शब्द इस्तेमाल करते हैं, "जनता तो बहुत भोली है". ऐसे में इस भोली भाली जनता को सँभालने का महत्वपूर्ण समय यही है. क्योंकि ये जनता, "जनता कर्फ्यू" पर भी बाहर निकलेगी, मना करने पर भी वही करेगी जो नहीं करना चाहिए, क्यूंकि "जनता तो भोली भाली है".

(20 मार्च की कुछ फोटो)




बुधवार, मार्च 04, 2020

वरिष्ठ पत्रकार विश्वेश्वर शर्मा सर को श्रद्धांजलि

बात उस समय की है, जब मैंने पत्रकारिता की डिग्री हांसिल कर प्रेस में गया था. दुनिया नयी थी और काम भी. राज एक्सप्रेस में पहली नौकरी मिली और उप सम्पादक का पद भी मिला. काम सीखने की रफ़्तार तेज थी, जूनून और डिग्री सर चढ़कर बोल रही थी. उसी दौरान वरिष्ठ पत्रकार विश्वेश्वर शर्मा सर राज एक्सप्रेस में एक स्टेड हेड के पद पर आये और मेरे कैरियर में बदलाव आने शुरू हो गये. शर्मा सर की एक बहुत ख़ास बात ये थी की शीले सर की तरह ये भी उन पत्रकारों पर ध्यान देते थे, जिनमें पत्रकारिता के प्रति समर्पण और विश्वास के साथ लग्न हो. मुझे याद है, जब मैं राज एक्सप्रेस में था, तो "विशु" सर (प्यार से सब उन्हें विशु सर कहते थे) ऑफिस में हर प्रांतीय डेस्क पर जाते थे और ये देखते थे कौन कितनी लग्न से काम कर रहा है. यही वो समय होता था जब वे और शीले सर जांचते थे कि कौन आगे बढ़ाने लायक है. मैं अपने काम को लेकर बहुत सजग था. मेरे रिश्तेदारों में आज भी कोई पत्रकार या पत्रकारिता जगत से नहीं है. मुझे अपने रिश्तेदारों में अपने पर गर्व होता था कि मैंने पत्रकारिता में आकर अपने दादा जी और नाना जी का सपना पूरा किया है. ऐसे में पहली नौकरी राज एक्सप्रेस में मन लगाकर काम करता था.

विशु सर की एक और ख़ास बात थी कि वे पत्रकार को समय समय पर परखते थे. जैसे जब भी कोई इंचार्ज छुट्टी पर चला जाता था तो उसका कार्यभार वे पुराने खिलाड़ी को न देकर नये पत्रकारों को देते थे. ऐसे में यदि वो नया उस जिम्मेदारी में खरा उतरता तो समझो उसका प्रमोशन पक्का. मुझे आज भी याद है, जब एक इंचार्ज छुट्टी पर गये तो मेरे डेस्क इंचार्ज को फ़ोन आया और इंचार्ज ने कहा, "बृजेन्द्र तुम्हें विशु सर ने बुलाया है." मेरा तो दिल ही बैठ गया. क्योंकि स्टेड हेड का फ़ोन आने का मतलब उस समय ये होता था कि अख़बार में गलती छप गयी है, और उप सम्पादक की खटिया खड़ी होने वाली है.

मैं उस समय समझा कि मुझसे कोई गलती हो गयी है और डांट पड़ेगी. कलेजा संभालते हुए उनके केबिन में गया, चेहरे के तोते तो उड़ रखे थे, लेकिन विशु सर की उस प्रतिभा से मैं उस समय परिचित नहीं था, सो जैसे ही मैं उनके कैबिन में गया, विशु सर मुस्कुराए और बोले, "बिजेन (सर मुझे बृजेन्द्र की जगह प्यार से बिजेन कहते थे) आज तू अपकंट्री का चार्ज संभालेगा." मेरा दिल तो जोर से धड़कने लगा. चेहरे पर हलकी मुस्कान और दिल में उमंग जागी. ऐसा लगा जैसे किसी ने छत्रपति साहू जी महाराज की तलवार हाथ में दे दी हो. जीवन में कभी सोचा भी नहीं था, मात्र 1 साल में मुझे किसी डेस्क का इंचार्ज भी बनाया जा सकता है. विशु सर ने एक दो बार और ऐसा किया और मेरी सफलता पर मुझे प्रोमट कर दिया गया और मुझे बनाया दिया डेस्क इंचार्ज. इस पर कई लोगों की भृकुटी तन गयी. उस समय राज एक्सप्रेस का सबसे कम उम्र का डेस्क इंचार्ज बना. ये सिर्फ विशु सर और शीले सर का आशीर्वाद और उनकी परख का नतीजा ही था. ऐसा ही कुछ और "नये चावलों" के साथ किया गया. राज एक्सप्रेस अख़बार को लेकर भी बड़े बदलाव हो रहे थे. अखबार का रंग, फॉण्ट, साइज़ सम्बन्धी भी उसी दौरान बड़े निर्णय लिए जा रहे थे. सर्कुलेशन में बदलाव देखा जाने लगा. अखबार ने प्रसार में जोर पकड़ा तो प्रबंधन ने नये पदों का सृजन किया, जिसे भरने की जिम्मेदारी एडिटोरियल बोर्ड को दी गयी. राज एक्सप्रेस में निकली भर्ती के लिए मुझे भी भर्ती बोर्ड का सदस्य बनाया गया. ये मेरी एक और उपलब्धि थी.

भर्ती प्रक्रिया पूरी होने के कुछ महीने बाद विशु सर ने एक और मास्टर स्ट्रोक खेला जिसे मैं जिन्दगी में नहीं भूलूंगा. ये मास्टर स्ट्रोक था स्टेड हेड और पूरे डेस्क के बीच की कड़ी का पद.अभी तक सभी इंचार्ज का हेड स्टेड हेड हुआ करता था, लेकिन काम को और आसान बनाने और अच्छे समन्वय (co-ordination) के लिए एक स्टेड कोर्डिनेटर पद सृजित किया गया. उस समय शीले सर राज एक्सप्रेस के ग्रुप हेड थे और विशु सर स्टेट हेड. बड़े पदों के निर्णय, प्रबंधन, विभिन्न हेड, महत्वपूर्ण अधिकारी आदि लेते थे.

ऐसे में स्टेड कोर्डिनेटर के पद को भरने के लिए अख़बार के सभी इंचार्ज की मीटिंग बुलाई गयी, गरमा गर्मी देख पद भरने की तिथि को टाल दिया गया. और कुछ दिन बीतने के बाद विशु सर ने सीधा मास्टर स्ट्रोक खेला और मेरा नाम स्टेड कोर्डिनेटर के पद के लिए प्रस्तावित कर गया.

ऑफिस में खलबली मच गयी. बृजेन्द्र कॉर्डिनेट करेगा. मैं ऑफिस पहुंचा तो कुछ लोग चुपचाप बधाई देने लगे. जैसे जैसे शाम होती गयी माहौल गर्म हो गया. बड़े पदाधिकारी और कई पुराने मझे हुए पत्रकारों ने अपना मत रखा. बहरहाल अंत में इस पद को वापस हटाना पड़ा और ऑफिस के माहौल को ठीक किया गया. वैसे भी मुझे लगता है इतनी बड़ी जिम्मेदारी में संभल नहीं सकता था, क्यूंकि अनुभव की कमी थी. लेकिन जब भी वे दिन याद करता हूँ तो विशु सर और शीले सर की याद आ जाती है.

देश में पत्रकारिता की बात की जाती है तो हमेशा उदहारण उन्हीं पत्रकारों के दिए जाते हैं जिन्होंने अपने समय में संघर्ष किया और कभी अपने उसूलों से समझौता नहीं किया. तमाम पत्रकार ऐसे भी रहे जिन्होंने पत्रकारिता को अपना जीवन समर्पित कर दिया और उसका हौवा भी नहीं बनाया और उन्हीं में एक स्वर्गीय विश्वेश्वर शर्मा सर हैं.

विशु सर उन पत्रकारों में रहे जिन्होंने हमेशा जुनूनी लोग ढूँढने में समय बिताया क्योंकि उनका मानना था कि पत्रकारिता कभी भी पैसा कमाने का जरिया नहीं हो सकती. ये शिक्षा की तरह शुद्ध सेवा का क्षेत्र है. लेकिन फिर भी लोग इसमें कमाई का जरिया ढूँढ़ते है जिसकी वजह से सच्ची पत्रकारिता को जिन्दा रहने के लिए अधिक संघर्ष करना पड़ता है.

कल विशु सर की वाल पर उन्हीं की खबर पढ़ी तो कतई यकीन नहीं हुआ, भोपाल होता तो तुरंत उनके घर जाता, लेकिन लखनऊ में होने के कारण फ़ोन करने के अलावा कोई और तरीका नहीं था. जब खबर सच्ची निकली तो दिल कुछ समय के लिए आहें भरने लगा. अपने विश्वविद्यालय भी नहीं गया. पता नहीं क्यों ये सब लिखने का मन कर रहा था तो लिख दिया.

विशु सर ने मुझे पत्रकारिता को जीना सिखाया उनके इस जज्बे को नहीं भूलूंगा. सर आप पंचतत्व में विलीन हो गये तो क्या मेरे दिल में हमेशा जिन्दा रहंगे.

बृजेन्द्र कुमार वर्मा