सीखने के लिए मैंने हर जख्म सींचे हैं, पढ़ना है दर्द मेरा तो सब लिंक नीचे हैं

सोमवार, जून 19, 2017

समाज में कोई भी पुत्री की चाह नहीं रखेगा

4 फ़रवरी 2016
बृजेन्द्र कुमार वर्मा।


देश बडे़ उतार चढ़ाव से गुजर रहा है। हर विषय पर राजनीतिक पहलु उस विषय को और अधिक संवेदनशील बना देते हैं। एक वक्त था जहां आप किसी धर्म की कमी पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी कर जागरूकता ला सकते थे, आज धर्म पर बोलने मात्र से या फिर नकल करने मात्र से केस दर्ज हो जाता है। हाल ही में एक और संवेदनशील चर्चा हो रही है। भ्रूण लिंग की जांच की जाए या न की जाए। सोचने वाली बात है कि जो देश विकसित सिर्फ जनसंख्या वृद्धि और लिंगानुपात की बढ़ती दर की वजह से नहीं हो पा रहा हो, वहां भ्रूण लिंग की जांच कराने का पक्ष रखना विद्रोह पूर्ण है। 

आज देश में लड़कियों से छेड़छाड़, बालात्कार जैसी घटनाएं तेजी से जन्म ले रही हैं। इसे समझने की कोशिश करें तो आसानी से पता चल जाएगा कि आखिर इसका कारण लिंगानुपात है। 1000 पुरूष पर 933 महिलाएं। ऐसे में बाकी पुरुष जिन्हें महिलाएं उपलब्ध नहीं हैं, वे असामाजिक कार्यों में लिप्त हो जाते हैं और इस तरह की घटनाएं होने लगती है। अगर भ्रूण लिंग जांच को इजाजत मिल जाए तो निडर हो लोग जांच करा अपने अनुसार बच्चों की चाहत पूरी की जा सकेगी, जो प्रकृति के साथ बड़ा खिलवाड़ होगा। 

सरकार हर हालत में प्रति हजार पुरुष पर महिलाओं को बराबर लाना चाहती है ताकि हर पुरुष की शादी एक महिला से हो सके ओर छेड़छाड़ या बालात्कार जैसी घटनाओं पर लगाम लगा सके। लेकिन जांच को इजाजत मिल जाने से लिंगानुपात बराबर लाना और अधिक कठिन हो जाएगा। इतना ही नहीं भ्रूण लिंग जांच का धंधा खुलेआम चलना शुरू हो जाएगा।

सोचने वाली बात है जब इस भ्रूण जांच करने के लिखाफ कठोर दण्ड देने का प्रावधान है, उसके बावजूद यह कार्य धड़ल्ले से फल फूल रहा है तो जांच को लागू कर देने के बाद क्या स्थिति होगी। 

पुत्र की चाह रखने वाले इस समाज में कोई भी पुत्री की चाह नहीं रखेगा। पुत्री सीधे तौर पर दहेज से जुड़ी होती है। और पुत्र सीधे तौर पर वंश से। ऐसे में, एक तरफ लोगों की मानसिकता को बदलना कठिन हो रहा है और दूसरी ओर भ्रूण जांच को इजाजत मिलने से इस मानसिकता को बदल पाना असंभव हो जाएगा। 

देश में जरूरी ये नहीं कि लोगों छूट दी जाए, जरूरी ये है कि लिंगानुपात दूर किया जा सके। अंत में यही कहना सही होगा कि भ्रूण की जांच तभी ठीक है जब तक देश में लिंगानुपात बराबर हो। 

मीडिया आखिर करे तो करे क्या ?

22 sep 2015
बृजेंद्र कुमार वर्मा.


डेंगू का कहर इन दिनों जोरों पर है. हर जगह लोगों में एक दर पैदा हो गया है. स्थिति ये है, कि सरकार को स्वयं कहना पड़ रहा है कि डरने की जरूरत नहीं, डेंगू का इलाज है. अगर डेंगू कि खबरों कि बात करें तो मीडिया इन दिनों भारी दवाब से गुजर रहा है. बात ये नहीं कि मीडिया डेंगू के मरीजों की बढ़ती संख्या को दिखा रहा है या अस्पतालों की खस्ता हालत को बयाँ कर रहा है और डेंगू के डर को फैला रहा है या उसकी रोकथाम में अपने भूमिका दर्ज करा रहा है. बात ये भी है, कि आखिर जो भी खबरें मीडिया में प्रकाशित या प्रसारित की जा रही हैं, उनका असर लोगों पर क्या पड़ रहा है?

एक ओर, एक पाठक, एक ही अख़बार पढ़कर डेंगू की भयावय स्थिति को जानता है और वहीं दूसरी ओर, उसी अखबार में सरकारी विज्ञापन, ये सन्देश देता दिखाई देता है कि डेंगू से डरने की जरूरत नहीं, दहशत में आने की जरूरत नहीं है. अब ऐसे में पाठक समझ ही नहीं पाता कि आखिर अखबार कहना या बताना क्या चाहता है? कई बार पाठक द्वारा ये तय करना मुश्किल हो जाता है कि आखिर भारत में प्रकशित हो रहे अखबारों का मूल उद्देश्य क्या है? क्या उनका मूल उद्देश्य सूचनाओं को प्रेषित करना है या विज्ञापन प्रकाशन के चलते धन कमाना?

पिछले कुछ दिनों से अखबारों में डेंगू की स्थिति पर अच्छा कवरेज हुआ है. हर दिन डेंगू के बढ़ते मरीजों के अलावा, अस्पतालों के हाल तक बयाँ किये जा रहे हैं. आलम ये है कि लोग डेंगू से जुडी ख़बरों को पढ़कर डरने लगे हैं. क्यूंकि आये दिन डेंगू के बुखार से लोग मर रहे हैं. सरकारी चिकित्सालयों में मरीजों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ने से सबको सही तरह से इलाज़ नहीं मिल पा रहा है. खबरें ये भी आयीं हैं कि छोटे-छोटे बच्चे डेंगू कि चपेट में आये, बुखार हुआ और डेंगू का पता लगते ही 48 घंटों में ही उनकी मौत हो गयी. इस तरह की खबरों को पढ़कर शायद ही कोई पाठक होगा जो सहमा नहीं होगा या कहें, दहशत में नहीं आया होगा. एक तो सरकार डेंगू के मरीजों को सही समय पर वांछित उपचार और आराम नहीं दे पा रही है, क्यूंकि डेंगू के मरीजों की संख्या इतनी ज्यादा है कि डेंगू के सकारात्मक या नकारात्मक होने की रिपोर्ट सही समय पर नहीं मिल पा रही है, और जब तक रिपोर्ट आती है तब तक मरीज की हालत और बिगड़ जाती है. हाल ही में खबर मिली कि डेंगू के टेस्ट की फीस भी बारह सौ से पंद्रह सौ तक पहुँच गई है. निजी अस्पतालों की तो बल्ले बल्ले हो रही है आजकल.

स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है, मरीजों को सरकारी अस्पतालों में बिस्तर तक नसीब नहीं हो पा रहा है, किसी का उपचार फर्श पर लिटाकर किया जा रहा है तो किसी को जमीन पर लेटने के लिए जगह तक नसीब नहीं. हर पाठक इन परिस्थितियों से वाकिफ हो रहा है. अब बात आती है, कि इस तरह की ख़बरों का पाठकों या कहें जनता पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, तो बड़े आसानी से इसका जवाब मिल जाएगा कि लोग अब दहशत में आने लगे हैं. डेंगू जिस कदर लोगों को उनके परिजनों से हमेशा हमेशा के लिए दूर कर रहा है, इस तरह की खबरों से हर कोई हैरान-परेशान हो चुका है. अब पाठक अखबार में डेंगू की स्थिति जानने के लिए अख़बार नहीं पढ़ रहा, अब पाठक सिर्फ रोकथाम और सार्थक उपचार को खोज रहा है.


अभी तो हमने सिर्फ एक पक्ष की बात की है. दूसरा पक्ष भी हमें देखना होगा. मीडिया में चाहे खबरों का कुछ भी असर हुआ हो लेकिन, विज्ञापनों के जरिये लोगों तक ऐसी जानकारी पहुंचाई जा रही है, जिससे वे सहमे नहीं और विवेक से काम लें. सरकार द्वारा जारी किये जा रहे विज्ञापनों में डेंगू सम्बन्धी रोकथाम और उपचार के बारे में बताया गया है. अगर एक और खबरों से पाठक भय में भी आया है तो विज्ञापन से मन थोडा बहुत तो हल्का हुआ है.. इसका एक लाभ ये हुआ कि लोगों तक पहुंचकर विज्ञापन ने उन्हें सांत्वना दी है और दूसरी तरफ अखबार को भी विज्ञापन प्रकाशित करने से आर्थिक लाभ पहुंचा. सरकार भी पुरजोर प्रयास कर रही है, पर ये प्रयास डेंगू के कहर के आगे कमजोर नजर आ रहे हैं. सरकार के नुमाइंदों को अब सड़क पर आना ही पड़ेगा. यहाँ आला अधिकारियों को उपचार करने के लिए नहीं कहा जा रहा. यहाँ उनके द्वारा डेंगू को और अधिक न बढ़ने देने और उसकी रोकथाम में अहम् भूमिका निभाने से हैं. 

जबरन गन्दगी फैलाने वालों पर सख्त कार्यवाही को शुरू करना होगा. जागरूक अभियानों को नये कलेवर के साथ प्रस्तुत करना होगा. "पानी जमा न होने दें" जैसे संदेशों के विज्ञापनों का दौर अब लगभग खत्म हो चुका है. अब वक़्त है ये बताने का कि जब आप आस्तीन में सांप नहीं पालते, ये जानते हुए कि इसके काटने से आदमी की मौत अड़तालीस घंटों में हो सकती है, उसी प्रकार आप अपने घर में रुके हुए पानी में मच्छर कैसे पाल सकते हो, जिसके काटने से भी आदमी की मौत अड़तालीस घंटों में हो सकती है?