सीखने के लिए मैंने हर जख्म सींचे हैं, पढ़ना है दर्द मेरा तो सब लिंक नीचे हैं

शनिवार, अगस्त 13, 2016

इरोम चानू शर्मिला पर टिप्पणी क्यों?

जिसने 16 साल, देखते ही गोली मारने के कानून को हटाने के लिए अनशन किया, जिसकी दुनिया में तारीफ होती है. जिसने दूसरों की जिंदगियां बचाने के लिए अपना जीवन न्यौछावर कर दिया. जिसने दूसरों पर अपनी सारी खुशियाँ लुटा दीं, आज कुछ नासमझ लोग उनकी आलोचना कर रहे हैं.

बहुत दुखी हूँ मैं. ये देख और सुनकर. यहाँ तक कि मीडिया भी चुटकी लेने से नहीं चूक रहा. 

कहा जाता है कि 2 नवम्बर 2000 को मणिपुर के इंफाल के मालोम जगह पर असम रायफल की वजह से 10 बेगुनाह मर गये थे. इस पर "सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम 1958" को हटाने के लिए 4 नवम्बर को शर्मिला जी अनशन पर बैठ गयीं. नाक में नली के जरिये उन्हें खाना पहुँचाया जाता था. उन्हें आत्महत्या के प्रयास करने के लिए गिरफ्तार भी किया गया. एक अस्पताल में उनका कमरा जेल की तरह बन गया. पर वे जनता के लिए अनशन करती रही. 

कर साल बीतने के बाद लोगों का ध्यान वह से हटने लगा. मीडिया ने भी अनदेखा किया. एक समय ये आया की मीडिया के पास पूर्वोतर के लिए स्थान ही नहीं रहता. 


शर्मिला का दुःख- जो दिखता है वो बिकता है.

photo - from google images (link- static.independent.co.uk/
s3fs-public/thumbnails/image/2013/03/04/15/
Irom-Sharmila-ap.jpgion)
अगर बात की जाए शर्मिला जी के अनशन की तो ये बहुत बड़ा बलिदान है उनके जीवन का. ऐसा तो अन्ना हजारे भी नहीं कर पाए. फिर भी अन्ना हजारे शर्मिला जी से ज्यादा लोकप्रिय हो गये. 
यहाँ मन दुखी होने वाली बात भी है कि इस देश में जो टीवी पर दिखता है वो लोकप्रिय हो जाता है. और जिसने सच में अनशन किया. जिसने मीडिया को अपनी तरफ नहीं ललचाया. जिसने कभी खबर बनने की कोशिश नहीं की. जिसने कभी प्रसिद्धि का नहीं सोचा. आज लोगों ने भी उन पर ध्यान देना छोड़ दिया.
कितना अजीब है. लोगों की लड़ाई लड़ने वाली को ही लोगों ने भुला दिया. शर्मिला जी शायद इससे बहुत दुखी हो गयीं.
.
अब आप समझ गये होंगे कि 200-300 साल पहले देश गुलाम क्यों बना था.

अनशन ख़त्म करते ही आलोचना शुरू.

कमाल की बात ये है, कि जिस महिला ने देश की जनता के लिए सर्वस्व न्यौछावर कर दिया, जब उसने राजनीति में आकर सुधार करने का सोचा तो लोग उनकी बुराई करने लगे. अनशन ख़त्म न करने की बात कहने लगे.
अरे क्या अनशन करने का ठेका लिया है शर्मिला जी ने? क्यों अनशन पर बैठी रहे. अरे सब कुछ तो दे दिया. अब क्या रहा उनके पास? अब वो राजनीति में आकर कुछ सुधार करना चाहें तो क्या नहीं करना चाहिए? कोई आतंकवादी बनने जा रही है क्या?? और अनशन की ही बात है, तो भैया तुम करो न अनशन उन्होंने 16 साल किया तुम 16 महीने ही कर लो, तब उन पर टिप्पणी करना. अगर नहीं कर सकते तो बुराई भी मत करो.

समाज निकला धोखेबाज़ 

सच कहूं तो समाज ही धोखेबाज़ निकला. 
इस सामाज का दोगलापन देखिये..... ये समाज गुंडों को, अपराधियों को, अनपढ़ों को, लालचियों को, भ्रष्टाचारियों को, मतलबियों को तो सरकार में मंत्री बना देती है,
पर,
ध्यान से सुनना,
इरोम चानू शर्मिला जैसी देश भक्त को, जो मानवता की रक्षा के लिए अपनी सारी खुशियाँ कुर्बान करके लोगों की, इस समाज की सेवा में लग गई, उसे सरकार में मंत्री बने नहीं देखना चाहती.
हाय रे दुर्भाग्य इस देश का.

और अंत में

गलती गुंडों, मवालियों, भ्रष्टाचारियों या अनपढ़ों की नहीं है जो सरकार में बैठ गये. असल में जनता खुद गुनाहगार है. कोई गुंडा नेता है तो असल में गुंडा वो नेता नहीं.. असली गुंडा समाज है जिसने वोट देकर उस गुंडे को सरकार के लिए चुना. भ्रष्ट कभी भी नेता नहीं होता दोस्तों, भ्रष्ट होता है समाज जो 100-500 के लिए अपना वोट बेचकर भ्रष्टों को सरकार बना देता है.
गलती समाज की होती है.



सोमवार, अगस्त 08, 2016

आस्तीन के सांप (कविता)

मित्रता दिवस (7 अगस्त 2016) पर लिखी रचना

मैंने तुम को दूध पिलाया,
दूध पिलाकर खूब खिलाया,
फोटो- सौजन्य से गूगल 

तुम्हें पढ़ाया तुम्हें लिखाया,
हर गलती को माफ़ किया और

बढ़कर तुमको गले लगाया,
पर ये क्या मैं देख रहा अब,

फायदा लेकर बदल गये सब,

अब तो ऐसा लगता मुझको कर दिया कोई पाप,
क्यूंकि मैंने पाल रखे थे आस्तीन के सांप

-बृजेन्द्र कुमार वर्मा 


मंगलवार, अगस्त 02, 2016

ग्रामीण पत्रकारिता का बदलता स्वरूप

एक समय था जब समाचार सिर्फ शहरों तक सीमित रहते थे। गांव की तरफ कभी-कभार ही समचार पत्र-पत्रिकाओं की नजर जाया करती थी। वो भी अपने पत्र-पत्रिका के प्रसार को बढ़ाने या बरकरार रखने के लिए। टेलीविजन की तो ये हालत थी कि कभी गांव-देहात की खबर आ गई तो गांव का भाग्य समझा जाता था। पंूजीगत लाभ न मिलने के कारण या दर्शकों की कमी होने के कारण समाचार चैनलों ने भी कभी गांवों की ओर रुख नहीं किया। पर जैसे-जैसे विकास हुआ वैसे-वैसे टीवी चैनलों की सोच भी बदली। ये महरबानी बाजारू प्रतियोगिता से हुई या फिर बढ़ती मांग की वजह से इसे कहना मुश्किल होगा। पर जो हो रहा है, वह गांव-देहात के लिए अच्छा ही है।

देश के वैश्वीकरण ने पत्रकारिता को जो उपहार दिया वो शायद कोई भी नहीं दे सकता। क्योंकि तब तक समाचार पत्र-पत्रिकाएं और रेडियो ही लोगों तक समाचार पहुंचाया करते थे। टीवी सेट इतने थे नहीं और जो थे भी वहां बिजली की समस्या और आखिरी में सब ठीक रहे भी तो समाचार सुबह या शाम को ही नसीब होते थे। वैश्वीकरण से हर क्षेत्र में सुधार आया। कम्प्यूटर, बैंकिंग सेवाएं, बिजली पानी, सड़क, परिवहन, सेटेलाइट, उत्पादन कंपनियां और भी बहुत कुछ। ऐसे में पत्रकारिता जगत पीछे कैसे रहता। निजी समाचार चैनलों ने भी दखल दिया। हाल ये हुआ कि 24-24 घंटों का प्रसारण किया जाने लगा। विकास होने के चलते बिजली की उपलब्ध्ता भी बढ़ी और इलैक्ट्राॅनिक क्रांति से उत्पाद सस्ते हो चले। ऐसे में टेलीविजन सस्ते हो चले। जो टेलीविजन आज से 20 साल पहले 20 हजार से अधिक की कीमत का मिलता था आज वह 12 सौ में मिलने लगा। केबल नेटवर्क सैकड़ों चैनल मुहैया कराने लगे। फिर डीटीएच आ गया। समचार चैनलों की बाजार में टिके रहने की और लाभ अर्जित करने की प्रतियोगिता ने गांवों की ओर मोड़ दिया और वहां अवसर तलाश करने को मजबूर कदया दिया। हालात और बदले और तो चैनल क्षेत्रीय भाषाओं या बोलियों में प्रसारित किए जाने लगे। मलयालम, कन्नड़, तमिल, भोजपुरी, हरियाणवी, बंगाली आदि। ग्रामीण क्षेत्र को इसका बहुत लाभ हुआ। जो पढ़े लिखे नहीं थे और क्षेत्रीय भाषा अथवा बोली के अलावा अन्य नहीं जानते थे उन्हें एक दोस्त के रूप में समाचार चैनल मिल गया जो पूरी तरह उन्हीं पर केन्द्रित रहने लगा। ये विकास की बड़ी सीढ़ी साबित हुआ। लोग घर से निकल कर अपनी बात कहने के लिए बाहर बेझिझक आने लगे।

आज यह स्थिति है कि हर कोई गांवों की ओर देख रहा है। टीवी चैनलों के राष्ट्रीय चैनलों के साथ क्षेत्रीय चैनल भी खुल रहे हैं। बिजिनेसमेन गांवों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। अखबार ग्रामीण संस्करण निकाल रहे हैं। शहर के शोर से दूर लोग गांवों में जमीन लेकर शांति से रहना पसंद कर रहे हैं। सड़कें गांवों से जुड़ रही हैं। खरीद-फरोख्त में बिचैलिए कम होते जा रहे हैं। आॅनलाइन शाॅपिंग गांवों तक डिलीवरी देने की होड़ में लग गए हैं। औसतन कहें तो गांव बदल रहे हैं। गांव अब गांव नहीं रह गए।

अब बात करते हैं पत्रकारिता की। पत्रकारिता में भी पिछले 20 वर्षों में भारी परिवर्तन देखने को मिला। जहां एक ओर आज से 20 वर्ष पहले पत्रकारिता एवं जनसंचार के दो-चार संस्थान हुआ करते थे, वहां आज के समय लगभग-लगभग हर बड़े शहर में पत्रकारिता संस्थान है जैसे दिल्ली, मद्रास, मुंबई, कोलकाता, लखनऊ, भोपाल आदि। देश के तमाम विश्वविद्यालयों में भी पत्रकारिता के पाठ्यक्रम संचालित किए जा रहे हैं।

पत्रकारिता का अपना जुनून है। जोखिम भरा कॅरियर होने के बावजूद युवा इस क्षेत्र में आकर देश की सेवा करते हैं। देश के बड़े-बड़े भ्रष्टाचार को पत्रकारों ने ही उजागर किया है। हम कह सकते हैं कि पत्रकारिता संस्थान और पत्रकारों की बढ़ती मांग और पूर्ति से पत्रकारिता जगत में तमाम आयाम खुले। जैसे, राजनीतिक पत्रकारिता, खेल, अपराध, सामाजिक, विज्ञान, सांस्कृतिक, ग्रामीण, कारोबार, पर्यावरण, फोटो आदि। इन सभी कॅरियर क्षेत्रों में एक ग्रामीण पत्रकारिता। हालांकि यह कारोबार या राजनीतिक पत्रकारिता जितना आकर्षक न हो लेकिन सम्मान जनक जरूर है। क्योंकि यह ग्रामीणों पर पूरी तरह केन्द्रित होता है। उन्हें मिलने वाली सुविधा, सरकारी योजनाएं, वहां घट रही घटनाएं, अपराध, मिलने वाला राशन, किसी योजना का प्रचार-प्रसार, भ्रष्टाचार, चोरी-डकैती आदि बहुत सार मुद्दों को उठाया जाने लगा। 

आज ग्रामीण पत्रकारिता का महत्व ये है कि देश की राजनीति में ग्रामीण मुद्दों पर चुनाव लड़ा जाने लगा है। इसमें शौचालय, जल हैंडपंप, मनरेगा, किसान कर्ज आदि शामिल हैं। यही कारण है कि अब पत्रकारों का रुझान ग्रामीण पत्रकारिता की ओर बढ़ रहा है। यहां सम्मान ज्यादा है। जितना शहर में पत्रकारों को सम्मान की नजरों से देखा जाता है, उससे कहीं ज्यादा ग्रामीण क्षेत्र में पत्रकारों का सम्मान है। ग्रामीण पत्रकारिता का भविष्य अन्य पत्रकारिता के क्षेत्रों से ज्यादा हैं। ग्रामीण विकास के लिए यह अच्छी बात है और इसे यूं ही बढ़ते रहना चाहिए।