सीखने के लिए मैंने हर जख्म सींचे हैं, पढ़ना है दर्द मेरा तो सब लिंक नीचे हैं

बुधवार, अक्तूबर 19, 2022

वो आएगा तू देखना

 

तू मेहनत कर, कई रिश्ते भी आयेंगे तू देखना,

जो लोग छोड़ चुके हैं, वो मुड़कर भी आयेंगे तू देखना ||

अभी कामयाबी नहीं मिली, कोई बात नहीं,

जिस दिन मिली, उस दिन फ़रिश्ते भी आयेंगे तू देखना ||

अभी मोहब्बत है तो मिल लिया करो,

अगर नाराज हुए, तो मैय्यत पे भी नहीं आयेंगे तू देखना ||

परिंदों की चिंता छोड़, पर आ गये उनके,

चार दिन की बात है, उड़ जायेंगे तू देखना ||

जनता हूँ, शायरी आती नहीं मुझको,

लेकिन आई तो वो चाँद भी सुनने आएगा तू देखना ||

सबने कहा भूल जा उसे, वो दगाबाज़ निकला

फिर भी दिल कहता है, वो आएगा तू देखना ||


(-बृजेन्द्र कुमार वर्मा)

शनिवार, सितंबर 24, 2022

ग्रामीण विकास में प्रत्यक्ष अवरोध है लंपी वायरस

बृजेन्द्र कुमार वर्मा,

(लेखक- ग्रामीण विकास संचारक हैं)

.................................................................................................................................................

लंपी वायरस ने यह स्थिति ला दी है कि समाज वैज्ञानिकों का ध्यान ग्रामण विकास और लगातार प्रभावित हो रहे दुग्ध उत्पादन की ओर जाने लगा है। ग्रामीण अपने विकास के लिए लगातार संघर्षरत रहा है, लेकिन लम्पी वायरस ने ग्रामीण विकास के विभिन्न अवरोधों में एक अवरोध को और बढ़ा दिया है, जो भारत के विभिन्न राज्यों के लिए चिंता का विषय बन चुका है, वह है मवेशियों में फैला लंपी त्वचा रोग। जल्द ही कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया, तो बहुत जल्द पशुधन उत्पादन महंगा होने लगेगा, क्योंकि हजारों दुधारू गायों की मृत्यु हो चुकी है, और अब भी लगातार मर रही हैं। मीडिया कवरेज में ड्रॉन की मदद से ऊंचाई से लिए कई फुटेज देखने के बाद ऐसा लगता है कि लंपी से मरने वाले मवेशियों की संख्या राष्ट्र स्तर पर लाख से ऊपर भी हो सकती है। समाचार पत्रों की माने तो कई राज्यों में 10-10 हजार से ज्यादा गायों की मौत हो चुकी है। राहत की बात यह है कि ये रोग पशुओं से इंसानों में नहीं फैलता है, लेकिन फिर अप्रत्यक्ष रूप से वे इंसान प्रभावित हुए हैं, जो पशुधन रखते हैं, और जिनके मवेशी लंपी वायरस की चपेट में आ गए हैं।

ग्रामीण क्षेत्रों में सर्वाधिक दुग्ध उत्पादन होता है, जिसे विभिन्न संसाधनों द्वारा शहरों में पहुँचाया जाता है। गाँव के मवेशी पालक अपने मवेशियों का दूध निकालकर नजदीकी डेयरी को बेच देते हैं अथवा स्वयं दुग्ध उत्पाद बनाते हैं, जैसे दही, मट्ठा, मक्खन, घी, पनीर और उसे नजदीकी बाजार अथवा ठेकेदारों को बेच देते हैं। बात आती है उनके लाभ की। दुग्ध उत्पादों की बिक्री से मिलने वाले पैसों से ये मवेशी पालक अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं। वर्तमान में भारत में हजारों मवेशी पालक इस समय सदमें में जी रहे हैं, उनका घर चलाने वाली गाय लंपी वायरस से ग्रसित है। गाय तो ग्रसित है ही, उनके पालक भी चिंता में समय काट रहे हैं, क्योंकि उनकी आर्थिक स्थिति भी खतरे में है। ऐसे में यदि दुधारू मवेशियों की लंपी वायरस से जाने जाएंगी अथवा बीमारी से ग्रसित होती जाएंगी तो दुग्ध उत्पादन पर सीधा प्रभाव पडे़गा। इससे पालकों को आर्थिक नुकसान तो होगा ही, साथ ही राष्ट्र का पशुधन भी प्रभावित होगा।

बीमारी की बात करें तो विशेषज्ञ बताते है कि यह गांठदार त्वचा रोग है, जिसे अंग्रेजी में लंपी स्कीन डिजीजकहते हैं, यह मवेशियों में होने वाला एक संक्रामक रोग है, जो पॉक्सविरिड परिवार के एक वायरस के कारण होता है। इसे नीथलिंग वायरस भी कहा जाता है। इस रोग के कारण पशुओं की त्वचा पर गांठें बन जाती हैं, मुंह से, नाक से स्त्राव होने लगता है। यह रोग त्वचा, श्लेष्मा झिल्ली और श्वसन मार्ग को प्रभावित करता है। साथ ही दो से तीन सेंटीमीटर बड़ी गांठें पड़ जाती हैं, बुखार आता है, शरीर में सूजन आने लगती है, कुछ समय बाद चलने में, खड़े होने में दिक्कत होने लगती है। यह रोग मच्छर, मक्खी और परजीवी से एक दूसरे में तेजी से फैलता है। यह बीमारी इतनी घातक होती है कि यदि समय पर इलाज न हो तो गायों की मृत्यु तक हो जाती है, और गाय ठीक भी हो जाए तो भविष्य में दूध कम उत्पादित करती हैं, बांझपन तक आ जाता है। साधारण शब्दों में कहें तो गाय पालने वाले (पालक) को आर्थिक नुकसान होता है।

उत्तर प्रदेश में आंकड़ों के अनुसार लगभग साढ़े पाँच लाख से अधिक मवेशियों का टीकाकरण किया जा चुका है। अभी पश्चिमी क्षेत्र में लंपी वायरस फैला हुआ है, जो पूर्व की ओर बढ़ रहा है। हाल ही में 8 सितंबर 2022 को उत्तर प्रदेश पशुधन विभाग के विशेष सचिव ने पूर्वी क्षेत्र को सुरक्षित करने व वायरस के प्रसार को रोकने के लिए एक मास्टर प्लान की बात कही है। विभाग के अनुसार मलेशिया देश की तर्ज़ पर पीलीभीत से लेकर इटावा तक लगभग 300 कि0मी0 की दूरी को 10 कि0मी0 चौड़े इम्यून बेल्ट से कवर करने का मास्टर प्लान तैयार किया है। यह बेल्ट एक तरह से बॉर्डर का काम करेगी और लंपी वायरस इसे पार कर पश्चिमी उत्तर प्रदेश से पूर्वी उत्तर प्रदेश की तरफ नहीं जा सकेगा।

पशुपालन विभाग के अनुसार वैक्सीनेशन के ज़रिये इम्यून बेल्ट बनाने की तैयारियाँ पूरी की जा चुकी हैं। विभाग की माने तो इस पूरी बेल्ट में पशुओं में शत-प्रतिशत टीकाकरण की बात कही गयी है। निगरानी के लिये विशेष टास्क फोर्स होगी, जो लंपी वायरस से संक्रमित पशुओं की ट्रैकिंग और ट्रीटमेंट का ज़िम्मा संभालेगी। 2020 में ऐसा प्रयास मलेशिया में किया गया था, वहाँ की सरकार ने इसके सकारात्मक परिणाम बताए थे। यदि उत्तर प्रदेश ऐसा करने में सफलता प्राप्त कर लेता है तो पूर्वी क्षेत्र में लाखों मवेशियों को प्रभावित होने से रोका जा सकता है, यह उत्तर प्रदेश के लिए किसी विशेष उपलब्धि से कम नहीं होगी।

मृत्यु दर के बारे में बताया जा रहा है कि लंपी स्किन डिजीज से पीड़ित पशुओं में मृत्यु दर 1 से 5 प्रतिशत तक है, हालांकि संकर नस्ल के गौवंश में मृत्यु दर अधिक देखी गयी है। यूरोप, रूस, कजाकिस्तान, बांग्लादेश, पाकिस्तान, चीन, भूटान, नेपाल और भारत में अलग-अलग समय में इसके मामले पाए गए हैं। इस समय गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, महाराष्ट्र, पंजाब, उत्तर प्रदेश, आदि कई प्रदेशों के दुधारू मवेशियों में लंपी स्किन डिजीज फैली हुई है।

लंपी स्किन बीमारी मूल रूप से अफ्रीका में शुरू हुई और अफ्रीका के कई देशों में है. बताया जाता है कि 1929 में इस बीमारी की शुरुआत जाम्बिया देश में हुई थी, जहाँ से यह दक्षिण अफ्रीका में फैल गई। 21वीं सदी के दूसरे दशक की शुरूआत से ही यह बीमारी तेजी से फैल रही है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो 2019 में बांग्लादेश और चीन में तेजी से फैली, इसके बाद 2020 में नेपाल और भूटान में देखने को मिली और 2021 के अंतिम महीनों में भारत में लक्षण देखे जाने लगे और जुलाई 2022 से अब तक हजारों की संख्या में गाय मर चुकी हैं और लाखों प्रभावित हो चुकी हैं, हालांकि इनमें से हजारों की संख्या में ठीक भी हुई हैं।

पशुधन अधिकारी मवेशी पालकों को सलाह देते हैं कि वे मवेशियों के आसपास गंदगी न फैलने दें, मच्छर, मक्खियों, कीटों से मवेशियों को दूर रखें, कोई मवेशी जब लंपी वायरस से प्रभावित हो जाए तो उसे तुरंत अन्य मवेशियों से दूर कर दें और इलाज कराएं।

भारत के लिए पवित्र और करोड़ों ग्रामीणों का भरण-पोषण करने व दूध देने वाली गाय आज अपने जीवन के लिए इंसानों पर निर्भर हो चुकी हैं। ऐसे में भारत के पशुधन स्वास्थ्य और रोग नियंत्रण कार्यक्रम को तेजी लाते हुए बहुत जल्द ऐसे कदम उठाने होंगे, जिससे विभिन्न राज्यों में लम्पी वायरस से प्रभावित गायों का आसानी से, समय रहते और मुफ्त इलाज किया जा सके। हालांकि विभिन्न राज्य सरकारों ने टीकाकरण अभियान चलाया हुआ है। इसके अलावा पशु चिकित्सा विभाग ग्रसित मवेशियों का इलाज भी कर रही है, लेकिन सीमित संसाधनों और सीमित कर्मचारियों की संख्या के कारण ग्रसित मवेशियों तक पहुंच कम है, साथ ही कुछ सामज सेवी ऐसे भी हैं, जो ग्रसित मवेशियों के इलाज में हर तरह की मदद कर रहे हैं। कोविड-19 के आने पर जिस तरह से भारत ने मुस्तेदी से काम किया, उसी तरह से मवेशियों के लिए भी टीकाकरण में भी तेजी लानी होगी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ग्रामीण क्षेत्र की मुख्य पहचानों में से एक पहचान पशुपालन भी है। कई परिवार गाय, भेंस, बकरी, ऊंट पालते हैं एवं उनसे मिलने वाले दूध को बेचकर घर चलाते हैं। कई परिवार अंडा एवं मांसाहार के लिए भेड़, बकरी, मछली, मुर्गी, बत्तख आदि का पालन करते हैं। कई जातियाँ परम्परागत रूप से इस कार्य से जुड़े हैं एवं परिवार का भरण-पोषण करते हैं। पशुधन ग्रामीण आर्थिक विकास में खासा महत्वपूर्ण स्थान रखता है। दक्षिण भारत में मछली पालन के लिए सरकार प्रोत्साहन देती है। उत्तर भारत में ऐसे ग्रामीण, जो मुर्गी अथवा मछली पालन करना चाहते हैं, उनके लिए सरकार ने कई प्रकार से प्रोत्साहन नीतियां बनाई हैं। ये सब कार्य इसलिए ही किए जा रहे हैं, क्योंकि सरकार ग्रामीण विकास के विभिन्न उद्देश्यों को प्राप्त करने का प्रयास करती है। लंपी वायरस ने ग्रामीण विकास के लिए सरकार के सामने चुनौती प्रस्तुत की है। इस लंपी वायरस ने हजारों मवेशियों को निगल लिया है। लेकिन अब और नुकसान नहीं उठाया जा सकता। राज्य सरकारों को पशुधन अथवा पशु चिकित्सा विभाग के अलावा अन्य विभागों का साथ चाहिए हो तो देरी नहीं करनी चाहिए, ताकि आने वाले समय में लंपी वायरस को रोका ही न जाए अपितु, जड़ से खत्म कर दिया जाए। सरकार चाहे तो इसके लिए निजी संसाधनों का भी उपयोग कर सकती है, बस उद्देश्य लंपी स्किन रोग को खत्म करने का होना चाहिए।

मंगलवार, सितंबर 13, 2022

भारत में अमेज़न ऑनलाइन शौपिंग साईट क्यों है नंबर वन

भारत में अमेज़न ऑनलाइन शौपिंग साईट नंबर वन यूं ही नहीं बनी, बल्कि कुछ कारण हैं. 

हाल ही में मैंने अमेज़न से 8 पेन का सेट खरीदा । उसमें पेन के साथ एक रिफिल कंपनी फ्री दे रही थी. ऐसे में 8 पेन के साथ मुझे 8 रिफिल भी मिलनी चाहिए थी. लेकिन यहाँ सेलर ने कर दिया गड़बड़. 

जब ये सामान मेरे घर आया तो मैंने इसे खोला और देखा कि पेन वही है, लेकिन ये फ्री रिफिल वाला ऑफर  वाला सेट नहीं है । मुझे 8 रिफिल नहीं मिली, जोकि मिलनी चाहिए थी. बाज़ार में उस रिफिल कि कीमत 20 से 25 रूपए है, ऐसे में मुझे लगभग 160 से  200 रूपए के बीच का सीधा नुक्सान हुआ. 

मैंने अमेज़न पर इसे रिप्लेस/रिटर्न के लिए निवेदन (रिक्वेस्ट) कर दिया. 

अब बात आती है अमेज़न की. भारत में शायद ही ऐसी सर्विस होगी कि कम्पनी खुद ग्राहक को कॉल करे. लेकिन अमेज़न ऐसा ही करती है. "टोक टू अस" पर मैंने कॉल के लिए नंबर टाइप किया और क्लिक कर दिया, क्लिक करते हैं कॉल आ गया. 

मैंने 8 पेन के साथ 8 रिफिल न मिलने की बात कही. कस्टमर केयर एग्जीक्यूटिव ने तुरंत ही रिप्लेस किया और रिटर्न का आदेश कर दिया. 

इतना ही नहीं, मैंने शिकायत भी कर दी, कि इस पेन बेचने वाले सेलर के इस उत्पाद (प्रोडक्ट) को अमेज़न पर बेचने से रोक लगा दी जाए, ताकि कोई और ग्राहक को परेशानी न हो. मेरी इस शिकायत को आगे बढ़ाया (फॉरवर्ड) गया. 

फिर क्या था, कुछ दिन बाद अर्थात आज 12 सितम्बर को उस प्रोडक्ट को अमेज़न पर बेचने से रोक दिया गया. (फोटो में आप देख सकते हैं) ताकि और ग्राहकों को परेशानी का सामना न करना पड़े. 

अमेज़न का भारत में ऑनलाइन शौपिंग में नंबर 1 पर रहने का ऐसे ही कई कारण हैं. करोड़ों की खरीद यूं ही नहीं होती इस वेबसाइट से. 

भारत में भारतीय ऑनलाइन शौपिंग साईट भी हैं, जो टक्कर देना चाहती हैं, लेकिन अमेज़न को टक्कर देने के लिए उन्हें कड़े निर्णय लेने की क्षमता को विकसित करना होगा. ग्राहक को सर आँखों पर बैठाना होगा, नहीं तो अमेज़न को टक्कर देना सपना ही रहेगा. 

मंगलवार, अगस्त 09, 2022

तेलंगाना की ’दलित बंधु योजना’ दलितों के लिए कितनी कारगर


- किसी योजना में दलित शब्द लिखने से कितना होगा लाभ

- अरबों रुपया खर्च करने के बाद दलितों की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति


बृजेन्द्र कुमार वर्मा,

(लेखक- ग्रामीण विकास संचार अध्ययनकर्ता हैं)

.........................................................................................................................................................

21वीं सदी के दो दशक बीतने के बाद भी आए दिन अनुसूचित जाति के लोगों पर अत्याचार की खबरें आती ही रहती हैं, इससे यह साफ हो जाता है कि आज भी जातिगत हालात बदले नहीं हैं। भारत में अनुसूचित जातियों के उन्नयन के लिए विभिन्न योजनाएं चलाई जा रही हैं, लेकिन तेलंगाना अनुसूचित जातियों के लिए दलितशब्द जोड़कर विशेष योजना बनाकर अनुसूचित जातियों के उन्नयन के लिए काम कर रहा है। हालांकि मीडिया भी योजना की स्थिति से अवगत कराता रहता है। जानकारों की माने तो तेलंगाना के मुख्यमंत्री चन्द्रशेखर राव एस0सी0 परिवारों के कल्याण को लेकर गंभीर हैं। यही कारण है कि वे अनुसूचित जाति के परिवारों के सामाजिक एवं आर्थिक कल्याण के लिए तेलंगाना दलित बंधुयोजना का संचालन कर रहे हैं, जिसमें अनुसूचित जाति के परिवारों को 10 लाख रुपये तक की आर्थिक सहायता का प्रावधान है, ताकि उनके आय सृजन को बढ़ाया अथवा सुधारा जा सके अथवा आय सृजन में बढ़ोतरी की जा सके।

तेलंगाना दलित बंधु निधि निगरानी प्रणाली के माध्यम से योजना का क्रियान्वयन किया जाता है। इसके लिए तेलंगाना अनुसूचित जाति सहकारी विकास निगम लिमिटेड (टी0एस0सी0सी0डी0सी0एल0) का निर्माण किया गया है। योजना तेलंगाना के अनुसूचित जाति विकास मंत्रालय के अधीनस्थ है, जिसके वर्तमान में मंत्री कोप्पुला ईश्वर हैं, जबकि टीएससीसीडीसीएल के अध्यक्ष बंदा श्रीनिवास हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार तेलंगाना राज्य की कुल जनसंख्या 3,50,03,674 में से 54,08,800 अनुसूचित जाति की आबादी है, जो कुल जनसंख्या का 15.45 प्रतिशत है। यदि तेलंगाना सरकार अपने प्रदेश के अनुसूचित जातियों के परिवारों के कल्याण में सफलता पाती है, तो अनुसूचित जातियों के परिवारों का दिल जीतने में सरकार को आगे लाभ हो सकता है, लेकिन मीडिया में योजना से संबंधित प्रकाशित खबरें अनुसूचित जातियों की स्थिति को कुछ और ही बयां करती हैं।

अनुसूचित जाति के परिवारों को बैंकों से ऋण मिल पाने में हमेशा से ही कठिनाई होती रही है। देरी से ऋण मिलना, मांग के अनुरूप ऋण न मिलना, विभिन्न दस्तावेजों की मांग आदि ऐसे कई कारण हैं, जिनसे अनुसूचित जाति के परिवार ऋण लेते समय सहन करते हैं। कभी-कभी तो ऋण एस0सी0 परिवारों को तब स्वीकृत हो पाता है, जब पैसे की आवश्यकता ही समाप्त हो जाती है, जैसे फसल बोने के समय लिया जाने वाला ऋण। तेलंगाना सरकार ने अवरोधों को ध्यान में रखते हुए एस0सी0 परिवारों को बिना बैंक हस्तक्षेप के सीधे आर्थिक सहायता प्रदान करने का निर्णय लिया। इससे एक लाभ यह हुआ कि अनुसूचित जाति के परिवारों को बिना दिक्कत आर्थिक सहायता मिली एवं बिना देरी के मिली। इससे एक लाभ की संभावना यह भी हो सकती है कि समय से आर्थिक सहायता मिलने पर परिवारों के मुखियों को अपने आय सृजन को मजबूत करने में सहायता मिलती होगी। यद्यपि मीडिया ने भी इस योजना से संबंधित भ्रष्टाचार की खबरें प्रकाशित की हैं। यदि योजना में मिलने वाले रूपयों में भ्रष्टाचार होता है तो अनुसूचित जाति के परिवारों का कल्याण नहीं हो सकता। इस योजना पर मीडिया की हमेशा नजर रहना आवश्यक है।

अनुसूचित जाति के परिवारों को हमेशा से ही उपेक्षित नजर से देखा जाता रहा है। बहुत ही कम देखा गया है कि कोई योजना प्रत्यक्ष रूप से एस0सी0 परिवारों के लिए संचालित की जाती हों। भारत में आए दिन अनुसूचित जाति के परिवारों के साथ अनुचित व्यवहार, अत्याचार की खबरें आती रहती हैं। सैकड़ों वर्षों से अछूत समझा गया। ऐसे में बहुत ही कम राज्य ऐसे हुए हैं, जिन्होंने अनुसूचित जाति को मुख्यधारा से जोड़ने एवं उनके सामाजिक एवं आर्थिक विकास को प्राथमिकता दी हो। उत्तर प्रदेश में बसपा सुप्रीमो मायावती ने अनुसूचित जाति को प्राथमिकता देते हुए उनके सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति को मजबूत करने का प्रयास किया, यही कारण है कि अनुसूचित जाति के लोगों के दिलों में मायावती के प्रति पूरे देश में विशेष सम्मान है। तेलंगाना की बात की जाए तो मुख्यमंत्री चन्द्रशेखर राव ने भी अनुसूचित जाति के लिए ‘दलित बंधुयोजना संचालित कर उनके सामाजिक एवं आर्थिक विकास को सुनिश्चित करने का प्रयास किया, यद्यपि इसमें कितनी सफलता मिलती है, यह समय ही तय करेगा।

योजना की बात की जाए तो इसके अंतर्गत सभी अनुसूचित जाति पात्र परिवारों को उनकी पसंद के अनुसार बिना बैंक ऋण लिंकेज के एक उपयुक्त आय उत्पन्न करने वाली योजनाओं को स्थापित करने के लिए अनुदान अथवा सब्सिडी के रूप में प्रति अनुसूचित जाति परिवार के लिए एकमुश्त पूंजी सहायता दस लाख तय की गयी है। अनुसूचित जाति सहकारी वित्त निगम लिमिटेड, हैदराबाद की स्थापना वर्ष 1974 में की गयी थी, तब तेलंगाना, आंध्र प्रदेश का हिस्सा हुआ करता था, लेकिन राज्य का विभाजन होने के बाद यह दो भागों में बंट गया। 2014 में तेलंगाना बनने के बाद से अनुसूचित जाति सहकारी वित्त निगम लिमिटेड तेलंगाना के लिए कार्य कर रहा है।

दलित बंधु योजना भ्रष्टाचार के दलदल से अछूता नहीं है। कई बार योजना में भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं। गत जुलाई में कांग्रेस सांसद रहे उत्तम कुमार रेड्डी ने योजना को लेकर भ्रष्टाचार के आरोप लगाएं हैं। 5 जुलाई 2022 को ‘द सियासत डेली में प्रकाशित खबर के अनुसार कोडाद में मीडियाकर्मियों से बात करते हुए, उत्तम कुमार रेड्डी ने कहा कि ‘दलित बंधु योजना’ को ‘टीआरएस’ नेताओं के लिए एक पैसा बनाने की मशीन में बदल दिया गया है, जो भारी रिश्वत और कमीशन इकट्ठा कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि कई दलित परिवारों को योजना के लाभार्थी के रूप में चयन के लिए 2 लाख रुपये से लेकर 5 लाख रुपये तक का भुगतान करने के लिए मजबूर किया जा रहा है। उन्होंने आरोप लगाया, गरीब दलितों से ज्यादा यह योजना टीआरएस नेताओं के लिए आय योजना साबित हो रही है।’ 16 मार्च 2022 को ब्रोकर बंधु हेडिंग से ‘द हंस इंडिया ने खबर प्रकाशित कर योजना में हो रहे भ्रष्टाचार पर खबर प्रकाशित की। इसी तरह 12 फरवरी 2022 को ‘द न्यू इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित खबर के मुताबिक भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बंदी संजय कुमार ने मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव को चुनौती दी है कि वे हुजूराबाद में ‘दलित बंधु योजना’ के 20,000 लाभार्थियों की सूची जारी करें, जिनके खातों में राज्य सरकार ने 10 लाख रुपये जारी करने का दावा किया है। इसके अलावा दूसरे मीडिया संस्थानों जैसे, द हिन्दूजैसे अखबारों ने भी योजना पर सवाल उठाए हैं।

आंकड़ों की बात करें तो दलित बंधु योजना के अंतर्गत हर साल औसत 100 करोड़ से अधिक सलाना खर्च किया जाता है। वर्ष 2014-15 में 241 करोड़ रुपये खर्च किए गए थे, जो एस0सी0 परिवारों के कल्याण के लिए एक वर्ष में किए गए खर्च के रूप में अच्छा प्रयास है, लेकिन यहां देखना यह भी है कि इस संबंध में भ्रष्टाचार की खबरें भी प्रकाशित हुई हैं। योजना के अंतर्गत सरकार ने 2020-21 के लिए 500 करोड़ अनुदान के रूप में प्रदान करने का लक्ष्य रखा, इसमें रिपोर्ट के बाद ही पता चल सकेगा कि कितनी राशि कहां खर्च की गयी। योजना के लक्ष्य के बारे में बताया गया है कि आवंटन में गरीब से गरीब अनुसूचित जाति के परिवारों को प्राथमिकता दी जाएगी। भूमिहीन अनुसूचित जाति की महिलाओं को तीन एकड़ कृषि भूमि प्रदान करना भी योजना में शामिल है। योजना में स्वरोजगार सृजन के लिए आर्थिक सहायता का प्रावधान है। एस0सी0 व्यक्तियों को उद्यम के प्रति आकर्षित करने के लिए योजना में अनुसूचित जाति उद्यमियों को उद्यमिता विकास कार्यक्रम प्रदान करने के बारे में भी बताया गया है। योजना में कृषि भूमिहीन मजदूर, छोटे और सीमांत किसान, शिक्षित बेरोजगार, चमड़ा कारीगर, सफाई कर्मचारी आदि एस0सी0 परिवारों पर भी ध्यान केन्द्रित किया गया है। ऐसे अनुसूचित जाति के परिवार जो स्वरोजगार शुरू करना चाहते हैं, उनमें ग्रामीण क्षेत्र के लिए 1.5 लाख, जबकि शहरी क्षेत्रों में 2 लाख प्रति वर्ष निर्धारित किया गया है। इसमें 33 प्रतिशत महिलाओं को प्राथमिकता की बात कही गयी है। यद्यपि इस योजना का लाभ लेने और आर्थिक सहायता प्राप्त करने के बाद 5 वर्ष तक वह इस योजना का दोबरा लाभ नहीं लिया जा सकता।

दलित बंधु योजना के उद्देश्य सटीक और विकासात्मक हैं, लेकिन यदि अनुसूचित जाति के परिवारों को इसका लाभ नहीं मिलता है, तो खर्च किए गए अरबों रूपयों का कोई औचित्य नहीं रह जाता। योजना में भ्रष्टाचार अनुसूचित जातियों के विकास में प्रत्यक्ष अवरोध है। मुख्यमंत्री को यह जान लेना चाहिए कि तेलंगाना की मीडिया सजग है। बेहद आवश्यक है कि योजना की धनराशि लाभार्थियों को पहुंचे और वह भी पूरी और बिना किसी भ्रष्टाचार के। यदि दलितों को योजना का लाभ पाने के लिए रिश्वत देनी पड़ती है, तो इसका खामियाजा आने वाले चुनाव में चन्द्रशेखर राव की पार्टी ‘तेलंगाना राष्ट्र समिति को भुगतना होगा। इसके विपरीत मुख्यमंत्री यदि अनुसूचित जातियों का दिल जीतने में सफल हुए, तो उनकी सरकार दोबारा बनने से कोई नहीं रोक सकता।

शनिवार, अगस्त 06, 2022

भूजल निकासी का पुनर्भरण आवश्यक, नहीं तो झेलना होगा संकट

(भूजल संकट)

जल संकट के प्रति जागरूकता में मीडिया का योगदान आवश्यक

 बृजेन्द्र कुमार वर्मा,                        

(लेखक- ग्रामीण विकास संचार अध्ययनकर्ता हैं)

...................................................................................................................................

जब आप बैंक से लोन लेते हैं, तो आपको उसका भुगतान करना ही पड़ता है। यदि आप ऋण चुकाने में आना-कानी भी करते हैं, तो बैंक एक न एक दिन आपसे पाई-पाई का हिसाब ले ही लेता है, वह भी ब्याज सहित। बस यही नियम जल निकासी कर रहे लोगों को सोचना चाहिए, उन्हें लगता है, प्रकृति कुछ कहेगी ही नहीं, लेकिन बेवजह और निरंतर जल निकासी कर रहे लोगों को यह भी सोचना चाहिए कि जिस दिन प्रकृति ने अपना रोद्र रूप दिखाया, तो कुछ नहीं बचेगा।

            बड़ी ही गंभीरता के साथ भूजल संकट चर्चाएं हो रही हैं। ऐसा नहीं है कि समाज में रह रहे पढ़े-लिखे परिवार भूजल संकट को समझते नहीं, परंतु चिंतनीय यह है कि लोग दिए गए सुझावों अथवा नियमों पर अमल नहीं करते। विभिन्न विषयों के अध्ययनकर्ताओं ने आंकड़ों के एकत्रीकरण में यह पता लगाया कि जब भी भूजल की समस्या के परिणामों से लोगों को अवगत कराया जाता है तो कई परिवार ऐसे होते हैं, जो भूजल के लिए स्वयं को जिम्मेवार नहीं समझते। उनका कहना होता है कि पृथ्वी में हो रहे भूजल संकट उनके अकेले से नहीं हो रहा। उनका उत्तर सही तो हो सकता है, लेकिन यहां एक तर्क यह भी समझना होगा कि बूंद-बूंद से घड़ा भरता है। अर्थात जो भी जल निकासी कर रहा है, उन सभी के कारण एक साथ जो परिणाम सामने आता है, वह है, गिरता भूजल, गहराता जलसंकट।

भारतीय परिप्रेक्ष्य को देखें तो जितना पानी जमीन में जाता है, उससे अधिक पानी जमीन से निकाल लिया जाता है। केंद्रीय भूजल बोर्ड द्वारा किए गए विश्लेषण से पता चलता है कि मूल्यांकन किए गए कुल क्षेत्र के 16 प्रतिशत में जल की वार्षिक पुनर्भरण मात्रा से वार्षिक निकासी अधिक है। इससे पता चलता है कि भारत में कई क्षेत्र ऐसे हैं, जहां जल संकट है भी और यह लगातार बढ़ रहा है। यद्यपि कुछ क्षेत्र ऐसे भी है, जहां बारिश के पानी से निकासी की प्रतिपूर्ति हो जाती है, लेकिन ऐसे क्षेत्र बहुत कम हैं।

वर्षा ऋतु प्रकृति की तरफ से जीव-जंतुओं के लिए वरदान है, जो पूर्णतः अतुल्नीय है, लेकिन इसका नई दुनिया में दुरुपयोग बढ़ रहा है। यदि कोई शांत है, और आप उसका नाजयज फायदा उठा रहे हैं, तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह कुछ कर नहीं सकता, जिस दिन मन बदला तो परिणाम भी घातक हो सकते हैं। प्रकृति जितनी शांत है, उसका रोद्र रूप, उससे अधिक भयानक है। देश में आजकल जो बाढ़ की स्थिति है, उससे समझा जा सकता है। यहां बात सिर्फ जो जमीन से पानी लिए जाने मात्र की नहीं है, भारत में जल संचयन के लिए कई प्रयास किए हैं, और लगातार कर भी रही है। लेकिन जब बाढ़ जैसी स्थिति देखी जाती है, तो लगता है कि प्रयास कागजों में ही रहे। बड़ी ही उत्सुकता से 22 मार्च 2021 को विश्व जल दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री ने जल शक्ति अभियान- कैच द रेन अभियान की शुरूआत की। इस अभियान का प्रयास है कि जब भी बारिश हो और बूंदे जहां गिरे उसका वहीं संचयन किया जाए। किसानों के लिए यह प्रयास लाभदायक सिद्ध हो सकता है, क्योंकि सर्वाधिक जल उपयोग सिंचाई के माध्यम से कृषि में होता है।

ऐसा नहीं कि भारत में बारिश की स्थिति ठीक नहीं, अपितु कुल मानसून में वर्षा भरपूर होती है। प्रकृति मानसून में भारत को एक बार में इतना पानी दे जाती है, जितना वे उस पानी को सालभर में भी उपयोग नहीं कर सकते। भारत में हर साल औसतन 4000 अरब क्यूबिक मीटर जल वर्षा से प्राप्त होता है, जिसमें से लगभग 1999 बीसीएम नदियों, झीलों, जलाशयों, भूजल और ग्लेशियरों में उपलब्ध जल संसाधन है। भारत की भौगोलिक स्थिति के कारण कहीं बहुत अधिक वर्षा होती है तो कहीं कम। यही कारण है कि मानसून में कहीं बाढ़ आ जाती है तो कहीं पानी की कमी हो जाती है। लेकिन जब यह भारत को पता है कि वर्षा कहां ज्यादा और कहां कम हो रही है तो जल प्रबंधन करने में गंभीरता बरतनी चाहिए।

मान लीजिए, आपके बीमार होने पर डॉक्टर ने आपको परहेज करने को कहा, आपने डॉक्टर की बात तो सुन ली, लेकिन घर आकर उस पर अमल नहीं किया, तो होगा यह कि बीमारी आपके शरीर में बनी रहेगी, और दवा का असर भी नहीं होगा। जल पुनर्भरण के मामले में यही स्थिति है। सब जानते हैं, जल संकट गहराता जा रहा है, लेकिन इसके इलाज पर किसी का विशेष ध्यान नहीं है। असल में समाज की गंभीरता न होने का एक कारण यह भी है कि जल का वितरण पूरे देश में एक समान नहीं है। मानसून में कुछ नदियों में बाढ़ आ जाती है, तो कुछ नदियां, घाटियां सूखा ग्रस्त हो जाती हैं। यहां जल प्रबंधन की संपूर्ण दक्षता एवं जल संरक्षण की सर्वोच्च व्यवस्था की आवश्यकता है। ऐसा कर दिया जाए तो बारिश के बाद अधिकतर जल जो समुद्र में चला जाता है, उसे तो रोका ही जा सकता है, साथ ही जल के असमान वितरण को भी सुधारा जा सकता है। भारत में वार्षिक जल उपलब्धता लगभग 1999 बिलियन क्यूबिक मीटर है, जिसका संरक्षण नहीं हो पाता और नदियों में और तालाबों या फिर जमीन में नहीं जा पाता, इस वजह से देश के कई भागों में पानी की किल्लत उत्पन्न होती रहती है। यद्यपि होना यह चाहिए कि पानी के असमान वितरण पर काम किया जाए, लेकिन सीमित भंडारण क्षमता और अंतर बेसिन स्थानांतरण की कठिनाइयों के कारण ऐसा नहीं हो पाता, जबकि जल परिवहन और उपयोग दक्षता में सुधार करना आवश्यक हो गया है। जल संचयन के लिए कई योजनाएं चल रही हैं, लेकिन जागरूकता न होने के कारण एवं योजनाओं के प्रति आकर्षण न पैदा कर पाने के कारण जल का पुनर्भरण नहीं हो पाता।

टीआरपी की होड़ और अखबारों के सर्कुलेशन की प्रतियोगिता ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि मीडिया उन्हीं विषयों को उठाती है, जो जनता पढ़ना या देखना चाहती है, सामाजिक सरोकार के विषयों को उठाना हर मीडिया के बस की बात नहीं रही। लेकिन भारत में आज भी कई मीडिया संस्थान ऐसे हैं, जो बिना किसी प्रतियोगिता के भारत के समुचित विकास को समर्पित हैं और सामाजिक सरोकार और गंभीर विषयों को उठाते रहते हैं और जनता के प्रहरी बने रहते हैं। सरकार भी ऐेसे अखबारों और मीडिया संस्थनों का सम्मान करती है।

जल संकट का प्रभाव सर्वाधिक कृषि पर पड़ रहा है। भारत में लगभग 91 प्रतिशत जल की खपत सिंचाई के लिए की जाती है, दूसरे देशों में यह आंकड़ा 30 से 70 प्रतिशत के बीच है। पानी की अपर्याप्त उपलब्धता के कारण कई छोटे, मझोले किसान कृषि छोड़कर आय सजृन के लिए दूसरे कार्यों में संलग्न हो रहे हैं। सिंचाई मंहगी हो रही है। ऐसे में सरकार को कृषि से किसानों का जुड़ाव बरकरार रखना है, तो जल का पुरर्भरण के प्रति गंभीर होना होगा, तालाबों का निर्माण और वर्षा जल भरण करना होगा, झीलों को पुनर्जीवित करना होगा। यदि ऐसा नहीं हो पाता है, तो अध्ययन कि यह संभावना कि 2030 तक भारत के 40 प्रतिशत परिवारों के पास पीने के पानी की उपलबधता समाप्त हो सकती है, को बल मिलेगा।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार एक व्यक्ति को सबसे बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रतिदिन कम से कम 50 लीटर जल की आवश्यकता होती है और जल का स्त्रोत घर में 1 किलोमीटर के भीतर होना चाहिए और संग्रहण लगभग 30 मिनट से अधिक नहीं होना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र की सतत विकास लक्ष्य रिपोर्ट 2021 के अनुसार विश्व स्तर पर 2.3 अरब लोग जल की कमी वाले देशों में रहते हैं और लगभग 2.0 अरब लोगों की सुरक्षित पेयजल तक पहुंच नहीं है।

वैश्वीकरण को अपनाने के बाद भारत भी जल संकट के प्रति सजग है और जल संरक्षण और जल प्रबंधन के लिए कई प्रयास किए हैं। जहां भारत में 1950 तक लगभग 380 बड़े बांध थे, वहीं 50 वर्षों में वर्ष 2000 आते आते बांधों की संख्या बढ़कर 3900 हो गई। यह सुनने में अच्छा जान पड़ता है, परंतु कृषि क्षेत्र के लिए यह न्यायोचित स्थिति नहीं कही जा सकती। कुल जल खपत का 91 फीसदी हिस्सा कृषि में खर्च होता है, शेष 7 फीसदी घरेलू कार्यां और शेष 2 फीसदी औद्योगिक क्षेत्र में। कृषि की बात करें तो 140 मिलियन हेक्टेयर के कुल बोए गए क्षेत्र में से मात्र 68 मिलियन हेक्टेयर की ही सिंचाई हो पाती है, शेष वर्षा पर निर्भर रहता है। ऐसे में किसान हमेशा भय की स्थिति में अनाज उगाता है, यदि फसल तैयार होने से पहले सूख गई तो किसान बरबाद हो जाते हैं।

विश्व के विकासशील देशों में विशेषकर पेयजल और स्वच्छता की कमी है। पीने के पानी को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने भी मनावाधिकार के तुल्य माना है। संयुक्त राष्ट्र ने ऐसे विकासशील देशों की मदद करने का आह्वान किया है, जहां पानी संकट हैं। भारत में जनसंख्या लगातार बढ़ रही है, शहरीकरण और जलवायु परिवर्तन से जल तनाव भी बढ़ रहा है। निश्चित ही जल संकट आने वाला है। जल्दी से जल्दी जल संरक्षण, जल संचयन, जल प्रबंधन के लिए कड़े कानून लाने होंगे। जल बर्बादी करने वालों पर चालान का प्रावधान करना आवश्यक है। सिंचाई पद्धतियों में परिवर्तन की आवश्यकता है, इसके लिए कृषि शिक्षकों की सहायता लेना अनिवार्य है। अब तट रक्षक, वन रक्षक, शिक्षामित्र के पदों की तरह जल रक्षक या जल मित्र जैसे पदों का सजृन करना चाहिए और इनकी भर्ती करनी चाहिए, ताकि आने वाले समय जल बर्बादी, दुरुपयोग पर कड़ी नजर रखी जाए, साथ ही जल के महत्व के प्रति जागरूकता लायी जा सके।