सीखने के लिए मैंने हर जख्म सींचे हैं, पढ़ना है दर्द मेरा तो सब लिंक नीचे हैं

गुरुवार, जुलाई 21, 2016

सूखी का स्कूल

बृजेन्द्र कुमार वर्मा 
घोषणा- ये कहानी पूर्णरूप से काल्पनिक है। इसका किसी भी व्यक्ति विशेष या स्थान या किसी संस्थान से कोई भी/किसी भी प्रकार का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष संबंध नहीं है।
अगर कहीं भी किसी पाठक को ऐसा लगता है तो वह उसकी निजी सोच मात्र होगी और कुछ नहीं।

हर बार की तरह ये दिन भी कुछ नया नहीं था। बस, वही सुबह, वही उगता सूरज और स्कूल जाते बच्चे। सूखी के लिए ये कोई नई बात नहीं थी। उसका काम सूरज उगने से पहले ही शुरू हो जाता था और सूरज के ढलने तक चलता रहता था। गांव का हर किसान यही कहता, ‘सूखी पांच साल की है जरूर पर किसी तीस साल की महिला से कम काम नहीं करती’। कई बार तो सूखी के मां-बाप से भी गांव वालों की बहस हो जाती। 
जो कोई उसका मुस्कराता चेहरा देखता तो थोड़ी देर के लिए अपनी सारी समस्याएं भूल जाता। एक दिन पड़ोस की बड़ी अम्मा ने सूखी को सरसों का बड़ा गट्ठा सर पे ले आते देखा तो सूखी की मां पर तिलमिला उठी।
‘कय, सूखी की अम्मा, तोय शरम नहीं आत, के मोड़ी इत्ती सयानी तो नाएं भई अबे के तुम बाते सुबह-शाम कामई करबात राओ’। सूखी की मां चुप रही। बड़ी अम्मा सख्त नाराज दिखीं। अपनी आवाज में ओर जोर देकर सूखी के पिता से कहा। ‘का, गुचुरिया (गर्दन) टोड्रयो का, तोय दिखात नहीं, बा इत्तो बड़ो गठा उठाए लिये?’ 
पड़ोस के चाचा भी आ गए, सूखी इनको बहुत प्यार करती थी। इसका भी एक कारण था। शाम होते ही चाचा किताबों की कहानियां सुनाया करते थे। क्योंकि चाचा शहर में तेहरवीं में पढ़ते थे और वहां से कहानियों की किताब लाते और सूखी के साथ और बच्चों को सुनाते। सूखी इन्हें गौर से सुनती और कहती मैं भी किताबे खरीदूंगी और पूरे गांव को कहानियां सुनाया करूंगी। चाचा सुन कर हंस देते। 
बड़ी अम्मा की नाराजगी देख पिता ने उनकी ओर देखा और सर पर पड़ी गठरी की धूल को झाड़ते हुए छप्पर के बाहर चले गए। बोले कुछ नहीं। बोलते भी कैसे, कर्ज लेकर जैसे-तैसे बटाई पर खेती की, इटावा में नहर न होने के कारण ट्यूबवेल से पैसे देकर सिंचाई की और जब फसल पकने को आई, तो एक रात में ही बादलों ने अपना डेरा डाल लिया। आनन-फानन में फसल काटी और भींगने से बच जाए, इसलिए जल्दी जल्दी बीवी बच्चों के साथ उसे छप्पर में रख लिया। इसमें सूखी पर भी काम का भार पड़ा। पर पिता करता भी तो क्या। 
बड़ी अम्मा इस बात को जानती थी, पर उनका तर्क था कि पांच साल की लड़की से व्यस्क व्यक्ति जितना काम कैसे कराया जा सकता है। छोटे-मोटे काम हर कोई करता है, गांव में और भी बच्चे हैं, सब खेलते हैं, सिवाए सूखी के। 
आज तो हद हो गई थी, आज सूखी का चेहरा मुस्कराता हुआ नहीं था। बड़ी अम्मा ने वापस अपने घर जाते हुए ऐसे कहा, जैसे कोई फैसला सुना रही हों।
‘सूखी, तू कल से स्कूल जाओ कर। पंचे में परीयई। बा दिना माहट्टर आओ तो, पूछत तो काउको दखिला होन है के नाईं, तू जा हम देखत तोए को मना करये’
इतना कहना था कि सूखी की गर्दन का दर्द भी बंद हो गया, बिना हांथ-पांव धोये थकान भी चली गई। ऐसे मुस्कराई जैसे आज चांद को अपनी चांदनी बिखेरने की जरूरत ही नहीं। भागती हुई चाचा के पास गई और बोली।
‘चाचा, अब हमऊं पढ़न जयहैं। बड़ी अम्मा कात ती, कै तू स्कूल जाओ कर, तेरी उमर हुईयई  पढ़वे लाए’। 
इससे पहले चाचा शुभकामना देते, भागती हुई सहेलियों को बताने चली गई। शाम को भैंस को पानी भी सूखी की जगहर पिता ने ही पिलाया। सूखी देर से घर लौटी। रात का भोजन बनाते हुए मां चिंतित थी। पिता ने चिंता का कारण भी पूछा। मां चुप ही रही। पर, मन की उधेड़ बुन को सुलझा नहीं पा रही थी। अगर सुबह मां ने सूखी को पढ़ने के लिए भेज भी दिया तो भैंस को सानी कौन लगाएगा? घर पर भी तो किसी को रहना होगा। क्योंकि स्वयं तो ठेकेदार के साथ मजदूरी पर चली जाती है और पिता बटाई के खेत पर काम करते हैं। अगर मां घर में रहे तो सिर्फ पिता की कमाई से घर नहीं चल सकता। मां ने तय कर लिया सूखी पढ़ने नहीं जाएगी। 
सुबह हुई, मां काम में लग गई, पिता गुमटी पर बीड़ी पीने चले गए। सूखी सड़क पर जा खड़ी हुई, बच्चे साफ-सुधरे खाकी कपड़े पहने हुए, आंखों में काजल, बाल संवरे हुए, काले जूते पहने स्कूल जा रहे थे। कंधे पर बस्ता। सूखी बड़े ध्यान से सबको देख रही थी। क्योंकि अब उसे भी ऐसे ही अनुशासित होकर स्कूल जाना होगा, वरना मास्टर साब स्कूल में बैठने नहीं देंगे। सूखी घर में तैयार होने के लिए अंदर आई ही थी, कि मां ने कहा, ‘हम जाए रए बिटिया..... हमने गोबर एक तार कद्दओ, तुम बस कंडा पाथ दियो’
ये क्या? सूखी को कुछ समझ नहीं आया। मां ने काम क्यों दिया? उसे तो स्कूल जाने को कहा गया, स्कूल के बाद कुछ भी काम दिया जा सकता था।
सूखी ने कभी काम से मना नहीं किया पर आज उसका काम करने का मन नहीं था, आज उसे स्कूल जाना था। पिता भी बिना कुछ बोले हार (खेत) चले गए। अब क्या सूखी काम में लग गई ओर सड़क के किनारे गोबर ले जाकर कंडा पाथने लगी। एक तरफ स्कूल की घंटी कानों में हल्की हवा के झोंके के साथ सुनाई दे रही थी तो दूसरी तरफ कंडा पाथते हुए हाथों की थाप की आवाज। आते-जाते सहेलियां पूछती रहीं कि उसे तो स्कूल जाना था तो गई क्यों नहीं? सूखी अब भी मुस्कुरा रही थी। 
दिन बीता, मां घर आई, पिता भैंस को घास डाल रहे थे। सूखी के पास सवाल थे, जिसका उत्तर उसे आज लेना था। रात को पिता को भोजन परोसा, और अपनी मुस्कान के साथ पिता को कहा, ‘पापा कल ते लता जिजी संगे हमऊं स्कूल जएंयें’ पिता ने उसकी मुस्कान की तरफ नहीं देखा, देख लेते तो सूखी को मना नहीं कर पाते, इसीलिए नजरें झुका के बोले, ‘नईं, अबे नईं, अबे घर में पैसा है नाईं’
‘पर चाचा कात ते के स्कूल में तो फ्री में दाखिला हुइयात’, सूखी ने तपाक से तर्क किया।
‘अरे तो कपड़ा तो खरिदबाओं परये के नाईं’, पिता ने वितर्क किया।
‘नहीं कपड़ऊ मिलत हैं’, सूखी अब भी मुस्कुरा रही थी।
‘अरे तो किताबन काजे हमपे पैसा नाईं हैं, और न ही हम पढ़ाए सकत’, पिता ने आखिरी दांव फेंका, सोचा सूखी को इतना तो पता नहीं होगा। पर चाचा के पास वो सिर्फ कहानियां ही सुनने नहीं जाती थी, अच्छी-अच्छी जानकारियां भी लेती थी। 
‘चाचा ने कई हमते, किताबें ही नाईं वजीफाउ मिलो करये हमें, जानत ओ’, सूखी का चेहरा अब उतरने लगा। पिता राजी नहीं हो रहे थे। भोजन कर लिया, लौटा उठाया और हाथ धोने चले गए। आखिरकार उनके मुंह से भी वो बात निकल गई जिसका सूखी के सवाल पिता के दिमाग में मंथन कर रहे थे। 
‘हम दोनों तो घर ते चले ही जात, अब तुमहुं चली जइयो तो, घर में को रहये? और जा भैंस को दिखये?’ भैंस ग्यावन थी, कुछ हफ्तों में ही उसको बच्चा होना था। ऐसे में अगर उसकी देखभाल सही नहीं हुई तो दूध कम देगी और उसकी कीमत भी कम हो जाएगी। ऐसे में उससे हो सकने वाली आय प्रभावित होगी, जो पिता कभी नहीं चाहता। इसलिए घर में सूखी रहेगी तो भैंस की देखभाल भी रहेगी और घर के काम भी होंगे। मां अगर घर में रही तो पैसे की कमी पड़ जाएगी।
‘बस, अब नाईं, तुमाई बात सुन लई हमने, कोई स्कूल नाईं जएये’
‘हम स्कूल जएंये’, पहली बार पिता के खिलाफ सूखी ने जवाब दिया। जिसकी पूरा गांव तारिफ करता था, जिसकी मुस्कान देख किसान अपनी दिन भर की थकान मिटाते थे, आज वो अपने पिता के खिलाफ जा रही थी। मां भी सोच रही होगी, कौन है जो इसे ऊंची आवाज में बोलना सिखा रहा है, कौन है जो पिता के खिलाफ बोलने को प्रेरित कर रहा है। कहीं लड़़की हाथ से निकल तो नहीं रही?
अगले दिन बादल मंडराने से कम रोशनी थी या सूखी की मुस्कान उसके चेहरे पर नहीं थी, इसका कारण तो पता नहीं लगा पर हां, बड़ी अम्मा को पता चला कि सूखी की मां ने उसे पीटा है। बड़ी अम्मा के ताक-झांक करने पर पता कि शायद सूखी को मार इसलिए पड़ी कि मां बार-बार गोबर-कूड़ा एक तार करने के लिए कह रही होगी और सूखी सड़क पर स्कूल जाते बच्चों को देख रही होगी। बात अनसुनी की तो सूखी की मार पड़ी।
बच्चे मिट्टी में खेलते हैं, काम बिगाड़ते हैं, घर के काम से जी चुराते हैं, पर गांव में कोई बच्चों को नहीं मारता और एक सूखी है, जिसने शिक्षा के सपने देखे तो उसकी पिटाई हुई। रात को खूब बारिश हुई। ऐसा लग रहा था मानो गांव में पानी नहीं बरसा बल्कि सूखी के साथ बादल भी रात भर रोए हों। 
क्या गलत किया, बच्चों को स्कूल जाते हुए ही तो देखा, किसी को धक्का तो नहीं मारा न, कोई चोरी तो नहीं की न, घर का काम तो नहीं बिगाड़ा न। दो किताबें पढ़ना क्या गलता हैं? अगर वो पढ़-लिख जाएगी तो क्या मां-बाप की नाक कट जाएगी। सूखी तो घर का पूरा काम करती है। किसी को शिकायत का मौका नहीं देती। सबका कहना मानती है, तो उसका एक कहना क्यों नहीं माना जा रहा। उसने दाखिला के लिए पैसे तो नहीं मांगे, स्कूल के लिए रोटी तो नहीं मांगी, उसने नए कपड़े भी नहीं मांगे, किताबें भी नहीं मांगी, ये सब तो उसे मुफ्त में मिलना ही है। उसने तो सिर्फ अपने मम्मी-पापा की सहमती ही मांगी थी। वो भी नहीं मिली। इतना ही नहीं मां तो सोचने लगी कि लड़की बिगड़ने लगी है। बचपन में ठीक थी, बीमार हो जाती थी, एक जगह पड़ी रहती थी, उस समय इतनी कमजोर ही हुआ करती थी कि उससे चला ही नहीं जाता था, तभी तो उसे सब ‘‘सूखी’’ ‘‘सूखी’’ कहने लगे थे, घर से बाहर भी नहीं जाती थी, अब तो जब देखो तब दरवाजे पर आते जाते लोगों को निहारती रहती है, मां का कहना भी नहीं मानती। उफ्फो.... अब तो इसके हाथ-पांव तोड़ने ही पड़ेंगे। 
आज सूरज देवता भी तनतनाए निकले, जैसे सूखी की पिटाई से नाराज हों, धूप इतनी की पल-पल में प्यास लगे। पिता सुबह सुबह ही खेत मजदूरी पर निकल गए। अपने सपनों को आंखों में मलते हुए सूखी उठी और बढ़नी (झाड़ू) उठा गोबर कूड़ो करने लगी। मां ने भोजन तैयार किया और मजदूरी पर जाने लगी। हर बार की तरह पिता को खेत पर रोटी समय से देने की बात भी दोहरा दी। पर इस बार मां ने रोज की तरह नहीं कहा। आज ऐसे कहा जैसे सुधरने का आखिरी मौका दिया जा रहा हो कि उल्टे सपने मत पाल। सूखी ने सुना और काम में लगी रही। 
सूखी स्कूल को लेकर मन में आ रहे विचार के झंझावतों में फंसी रही। मां ऐसा क्यों सोच रही है। क्या मेरा जीवन ऐसे ही व्यतीत होगा... मां क्यों मेरे सपने नहीं पूरे होने देना चाहती। क्या मां ऐसी होती है या मां के सामन कोई ऐसी मजबूरी है जो मां मुझसे छुपा रही है और मुझे स्कूल जाने से रोक रही है। गरीब पैदा हुए हैं तो क्या गरीब रहकर मर जाएं। क्यों मुझे अपना नसीब बनाने का हक नहीं। क्यों सिर्फ बड़े वर्ग के पास किताबें हैं? क्या मुझे किताब पढ़ने का हक नहीं? मैं क्या सिर्फ जीवन भर मजदूरी करने के लिए पैदा हुईं हूं, मेरा हाड़ मांस दूसरों के हाड़ मांस से अलग है। क्या मुझे प्रकृति ने बड़े वर्ग के बच्चों से अलग बनाया है? क्या प्रकृति ने मुझे कम दिमाग दिया है? गांव के उस ओर जब छोटे ठाकुर जी का लड़का पढ़ सकता है तो मैं क्यों नहीं? एक दिन चाचा कह रहे थे पंडित जी की बिटिया बड़े स्कूल में पढ़ने के लिए शहर चली गई। जब ये सब पढ़ सकते हैं तो मुझे किताबों से दूर क्यों रखा जा रहा? सबके माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ा रहे हैं तो मेरे माता-पिता मुझे क्यों रोक रहे हैं? क्या मेरे माता-पिता मुझसे प्यार नहीं करते? या कोई ओर बात है? कौन सा डर उन्हें सता रहा है, जो मुझे स्कूल भेजने से मना कर रहा है? क्या मैं इतनी बुद्धिमान हूं कि लोग मुझसे डर रहे हैं और मेरे हाथों में किताब नहीं दे रहे? क्या मैं पढ़ लिख कर इतनी बड़ी हस्ती बन जाऊंगी कि लोग मुझे बड़े पद पर देख कर सहन नहीं कर पाएंगे? मेरी क्या गलती है, जो ऐसी पैदा हुई।
सूखी ने गोबर-कूड़ो कर खाना खाया और चौका बासन कर पिता को खेत रोटी देने चल दी। खेत को जाते हुए एक ओर स्कूल दिखता था। स्कूल की छुट्टी होने वाली थी। सूखी कभी रास्ते पर ध्यान देती तो कभी स्कूल की ओर देखती। स्कूल में बच्चों की हलचल उसकी जिज्ञासा बढ़ा देती। सूखी ने स्कूल की ओर मुख किया और अनायास रुककर सोचन लगी। अगर घर का सारा काम जल्दी खत्म कर लिया जाए और पिता को रोटी स्कूल की छुट्टी होने के बाद पहुंचा दी जाए तो पिता को भी दिक्कत नहीं होगी और मुझे भी। रही बात भैंस और घर की तो भैंस को सुबह भुस की सानी मिल ही जाती है और घर में ऐसा है क्या जो चोरी हो सके। और वैसे भी पड़ोस में बड़ी अम्मा है तो। बस, अब क्या था सूखी की मुस्कान फिल लौट आई। पिता को रोटी दी। कुछ समय वहीं रुकी और घर लौटने लगी। उसकी मुस्कान से अब सूरज भी पसीज गए, ठंडी हवा भी चलने लगी। अब तो सूखी को रात का इंतजार था। रात को सूखी माता-पिता को पूरी बात समझा देगी और विश्वास दिलाएगी कि घर का कोई काम नहीं रुकेगा। पिता ने भैंस को सानी लगाई। मां ने भोजन बनाया। सूखी ने पिता को भोजन परोस कर दिया और स्कूल जाने के लिए दोपहर में बनाई योजना पिता को सुनाई।
‘‘पापा... जा बताएरै... हम रोजई जल्दी उठो करयैं और सबरो काम खतम करलेओ करयैं, फिर स्कूल चले जाओ करयैं, जैसे ही घंटी बजयै तुम्हें रोटी देन आ जाओ करयैं.... हओ?’’
बेटी की बातों को सुन के पिता का दिल पिघल गया। कैसे कहे पिता कि वो तो चाहता है कि तू तो लाटसाब बने, कलेक्टर बने पर हाय रे हमारी तकदीर जो हम ऐसे पैदा हो गए। तुझे क्या पता बेटी तूने आज किताबें हाथ में थामी उधर कुछ लोगों की आंखों में तू खटकने लगेगी। तुझे परेशान करना शुरू कर देंगे। हमें भी मारा-पीटा करेंगे। और अगर तू होशियार निकली तो तुझे रास्ते से हटाने की कोशिश करेंगे, उठा लेंगे। और चंूकि तू लड़की है तो न जाने क्या-क्या करेंगे तेरे साथ। इस देश में बलात्कार सिर्फ आकर्षक शरीर देखकर ही नहीं होते, बल्कि कई बार रंजिश के कारण, बदला लेने कारण, किसी को नीचा दिखाने के कारण, जातिगत और कभी-कभी अपनी सत्ता और शक्ति प्रदर्शन करने के कारण भी होते हैं। मेरी प्यारी बेटी तू इन बड़े लोगों से जीत नहीं पाएगी। तेरे पास सिर्फ दिमाग है। पर उनके पास दिमाग, पैसा और ताकत सब हैं। 
सूखी, पिता के मन को पढ़ नहीं पा रही थी। पिता खाना खा चुके थे। रात में करोसिन की डिब्बी जल रही थी, पिता का चेहरा साफ नहीं दिख रहा था तो सूखी ने उत्तर जानने को कुछ बोला, ‘‘का कात पापा....’’
‘‘का बताएं बिटिया.... तुमहंू एकई बात पे अड़ी ओ...’’, पिता ने धीरे-धीरे लंबी संास छोड़ते हुए अधूरा उत्तर दिया। 
सूखी समझ चुकी थी कि पिता उसकी बातों से सहमत नहीं हैं। शायद पिता को योजना पसंद नहीं आई। मां भी भ्रकुटी टेढ़ी करके देख रहीं हैं। सूखी चुपचाप छत पे बिछोनिया करके लेट गई, आसमान में देखने लगी। देखो तो सितारे कैसे चमक रहे हैं। कितने आजाद हैं ये सितारे। क्या किसी एक सितारे ने दूसरे सितारे को चमकने से रोका? रात को अपनी मर्जी से आते हैं और सुबह होते ही अपनी मर्जी से चले जाते हैं। इन्हें तो कोई चमकने से नहीं रोकता? और अगर कभी-कभार बादलों ने सितारों को एक-दो रात रोकने को प्रयास भी किया तो क्या, वे बादल भी बरसते हुए जमीन पर बिखर ही जाते हैं न। इन सितारों पर कोई पाबंदी नहीं तो फिर मुझ पर पाबंदी क्यों? 
‘हम तो स्कूल जएयैं’, सूखी ने इतना बोला और सो गई।
आज सूखी बिना आंखें मले, पौं फटने से पहले ही उठ गई। गौरेया भी सूखी की आवाज से ही जागी, जिसका घोंसला आंगन में लगे नीम के पेड़ पर था। मां सोच में पड़ गई कि मुझसे भी पहले उठ गई, इतनी जल्दी? जब तक पिता जागे तब तक सूखी गोबर-कूड़ो कर चुकी थी, पिता हैरान थे, मां परेशान थी। नीम का दतोन तोड़ कर पिता बड़ी अम्मा के नल पर कुल्ला करने चले गए। बड़ी अम्मा जान चुकी थी कि सूखी आज भौर में ही उठ गई है। आज उसका कहा होने वाला सा लग रहा था। पर, मां ने आज खाना नहीं बनाया, ये काम सूखी को दे दिया गया, मां समझ गई थी कि इसे स्कूल जाना है और रोकने का यही तरीका है। सूखी मुस्कराई और खाना बनाने में लग गई। आज मां बिना खाए पिए ही काम पे जाने लगी और सूखी को कह दिया कि पहले मुझे रोटी देने आ जाए और फिर दोपहर में पिता को खेत में रोटी दे आए। पिता भी ये सुनकर चल दिए। मां ने पिता का चेहरा देखा और नजरें चुराते हुए चली गई। पिता भी बिना बगैर खाए चले गए। सूखी थोड़ा बहुत भोजन बनाना जानती थी सो बना दिया। पर सोचने लगी कि अब स्कूल जाना संभव नहीं होगा, क्योंकि भोजन बनाने में देर हो गई, इसके अलावा दो जगह रोटी पहुंचाना है। पहले मां को और फिर दोपहर में पिता को। फिर भी सूखी ने नहाया, स्वयं रोटी खाई फिर कागज में रोटी बांधी और मां को देने चल दी। रास्ते में स्कूल दिखाई दिया, स्कूल की आधी छुट्टी हो चुकी थी। बच्चे इधन-उधर घूम रहे थे। स्कूल देख सूखी सोचने लगी, कहीं ऐसा तो नहीं कि मुझे स्कूल जाने से रोकने के लिए मां ने मुझसे भोजन तैयार कराने का नया पैंतरा अपनाया हो। अगर ऐसा है तो मैं तो कभी स्कूल जा ही नहीं पाऊंगी। 
बस फिर क्या था सूखी ने पहले रोटी देखी और स्कूल की तरफ मुड़ी.... रोटी देखते हुए बोली, ‘‘मम्मी तुम और पापा तुमहूं.... आज दोऊ भूखे बने रओ और बेसे भी हमने अच्छी सब्जी नहीं राहंदी...’
सूखी मुस्कराई और तेजी से स्कूल की तरफ दौड़ते हुए चिल्लाई... ‘हम तो जाएरयै स्कूल’।

मंगलवार, जुलाई 19, 2016

संचार की भाषा

अन्य देशों की तुलना में भारत में संचार प्रक्रिया पर ध्यानाकर्षण अन्य देशों की तुलना में देर से जरूर गया, लेकिन आज स्थिति देश में बहुत अलग है. हमारा देश विविधताओं का देश हैं. बीस से अधिक भाषायें और न जाने कितनी बोलियाँ प्रचलित हैं. ऐसे में देश में संचार प्रक्रिया को समझना बहुत जटिल हो जाता है. आधारित तौर पर तो संचार प्रक्रिया सामान्य है. अन्य देशों की तरह भारत में भी सामान्य संचार प्रक्रिया के तहत हम संचार कर सकते हैं. लेकिन जब बात भारत देश की हो तो थोड़ा सोचना पड़ता है. 
प्रेषक - सन्देश - माध्यम - प्राप्त कर्ता ..... यह तो सामान्य प्रक्रिया है. लेकिन भारत में बहुत अधिक बोलिया हैं.. कई भाषाएँ हैं. ऐसे में हम चाहे कि एक ही बार में एक ही भाषा में सभी भारतियों को सन्देश भेज दिया जाए तो शायद ये मेरे अनुसार संभव नहीं है. 
एक कहावत तो सुनी होगी आपने, "कोस-कोस पर पानी बदले तीन कोस पर बानी" ये यूं ही प्रसिद्ध युक्ति नहीं है. असल में यह बहुत गंभीर कथन है संचार शास्त्रियों के लिए.
चाहे सरकार चाहे या कोई विज्ञापन जारी करने वाली कंपनी या कोई भी बड़ा आदमी, एक सन्देश को भारत में एक ही भाषा में जारी नहीं कर पाते. इसे चाहे समस्या कहा जाए या मजबूरी, होता तो ऐसा ही है. ऐसा इसलिए होता है क्यूंकि एक क्षेत्र का व्यक्ति दुसरे क्षेत्र के व्यक्ति की भाषा नहीं समझ पाता.
21वीं शताब्दी के 15 वर्ष बीत जाने के बाद भी, जबकि लाखों लोग एक प्रदेश से दुसरे प्रदेश में रहते हैं, फिर भी एक क्षेत्र का रहवासी दुसरे क्षेत्र के रहवासी की भाषा नहीं समझ पाता. 
अब बात आती है कि संचार कैसे किया जाए कि भारत में एक प्रेषक एक ही बार में अधिक से अधिक संख्या में भारतियों से जुड़ सके???
ये सवाल ज्यादातर बहु-राष्ट्रीय उद्योगों के होते हैं, जैसे वाहन निर्माता, बिल्डर्स, मार्केटिंग कंपनी, सॉफ्टवेयर कंपनी, मोबाइल फ़ोन, कंप्यूटर या इसके अलावा और भी. 

दोष- भारत में वर्चस्व की भी लड़ाई है, चाहे वह धर्म की हो या भाषा या धन की. हर कोई अपनी चीज से लोगों को जोड़कर अपने को मजबूत साबित करना चाहता है. पूरे देश में हिंदी बोले जाने को लेकर बहस चल रही है कि देश में एक भाषा हिंदी को संचार की प्रमुख भाषा के तौर पर होना चाहिए. वही दूसरी और राजनीति करते हुए हिंदी को दक्षिण क्षेत्र में फैलने नहीं दिया जाता है. दक्षिण भारत में तो यह स्थिति है कि हिंदी भाषा को न फैलने देने पर राजनीति होती है, दक्षिण अपनी भाषा को पूरे देश में फैलाना चाहते हैं, और हिंदी भाषी हिंदी को देश में प्रमुख भाषा बनाना चाहते हैं. भाषाओँ के प्रसार के लिए फिल्म, गानों के एल्बम, नाटक, अखबार, समाचार चैनल जैसे माध्यमों का सहारा लिया जाता है. इस तरह के प्रयासों में हिंदी, उर्दू, तमिल, पंजाबी, बंगाली, मराठी, कन्नड़, मलयालम, आसामी, गुजराती आदि भाषाएँ शामिल हैं. 

यही कारण है कि देश में एक भाषा में संचार करना मुश्किल हो जाता है. हर कोई उद्यमी या सरकार किसी योजना या उत्पात को लोगों तक पहुचाने के लिए एक भाषा का उपयोग न करके क्षेत्र विशेष कि भाषा को अपनाता है. कई विद्यामानो ने तो प्रभावी संचार के लिए क्षेत्रीय भाषा को मत्वपूर्ण माना है. यही कारण है कि विभिन्न टीवी चैनलों ने अपने अपने क्षेत्रीय चैनल शुरू किये. इससे उन्हें न केवल ज्यादा मुनाफा हुआ, बल्कि क्षेत्रीय भाषा होने के कारण लोग जुड़ने भी लगे. 
हमारे देश में प्रभावी संचार में भाषा बहुत बड़ा अवरोधक रही है. तमाम संचार शास्त्री इस बात से सहमत हैं. 

नुकसान - भारत में सभी भारतियों के लिए एक संचार भाषा न हो पाने के कारण. विदेशी भाषा अंग्रेजी नें देश में आपने पैर जमा लिए. ऐसा नहीं कि भारत में अँगरेज़ आये तभी अंग्रेजी ने जोर पकड़ा. एक तर्क से आप समझ सकते हैं. जब 1947 में भारत आज़ादी के बाद अँगरेज़ भारत छोड़ कर गये तो तब अंग्रेजी भाषा से ज्यादा हिंदी और अन्य भाषा बोलने वाले लोग मौजूद थे, अर्थात उस समय अंग्रेजी से ज्यादा हिंदी, तमिल, मराठी, उर्दू, कन्नड़, बंगाली और अन्य भाषाएँ बोलने वालों की संख्या थी. 
फिर भी पिछले 50 सालों में अपनी अपनी भाषा को प्रमुख बनाने कि लड़ाई ने विदेशी भाषा अंग्रेजी को आसानी से प्रमुख बना दिया. अंग्रेजी को प्रमुखता देने वालों में बहु राष्ट्रीय कम्पनियाँ, सेवा क्षेत्र, विदेश से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े संस्थान हैं. 
आज देश में संचार की प्रमुख भाषा अंग्रेजी हो चली है. हिंदी दुसरे स्थान पर है. अंग्रेजी का प्रसार इस पर से किया जा रहा है कि अगर आप अंग्रेजी बोलते हैं तो आप आधुनिक हैं और हिंदी बोलते हैं तो आप आधुनिक नहीं है. दिखावे कि दुनिया ने न चाहकर भी अंग्रेजी बोलने पर विवश कर दिया लोगों को. ऐसे में हिंदी और दबती चली गई. हिंदी को सींचने वाले ही अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाने लगे. आज ये आलम है कि व्हाट्स एप, फेसबुक, हाइक, ट्विटर, स्कूल, कॉलेज, होटल, केफे, पार्क आदि हर जगह हिंदी कम अंग्रेजी बोलने वाले ज्यादा मिलेंगे.

अंत में - सवाल फिर वही पैदा होता है, कि संचार किस भाषा में किया जाए कि एक ही भाषा में सभी भारतियों से बात की जाए?  अंग्रेजी का बोल बाला हर जगह है पर फिर भी इस देश में आधी आबादी को भी अंग्रेजी बोलनी नहीं आती. अंततः आप अंग्रेजी बोलकर भी आधी आबादी से नहीं जुड़ सकते. 

अगर देश एक भाषा को प्रमुख बनाने में सहयोग कर दे, और हर भारतीय किसी एक भाषा को स्वीकार कर ले तो समझ लीजिये अंग्रेजी को देश छोड़ने में देर नहीं लगेगी. चीन इसका एक बहुत बड़ा और गंभीर उदहारण है.