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गुरुवार, जुलाई 16, 2015

विचारों का द्वंद्व: दो चहरों वाला समाज

आज एक ऐसे विषय पर लिखने को विवश हुआ हूँ, जिसने कई बार मेरे मन में विभिन्न तर्कों को जन्म दिया है. तर्कों ने मुझे समाज के दो चेहरे देखने का मौका दिया. असल में हम कई बार एक ही विचार पर किसी समय कुछ होते हैं और किसी और समय पहले से हटकर अर्थात कुछ और. हमारा मन, हमारे समक्ष, हमारे लाभ और व्यक्तिगत उचित-अनुचित के अनुसार विचार प्रस्तुत करता है. मान लीजिये बरसात में छाता की जरूरत है और वह आम दिनों के मुकाबले किसी दूकान पर मंहगा बिकने लगा तो मन में विचार उठेगा कि भाई कितना मंहगा बेचा जा रहा है, इसे तो सस्ता होना चाहिए और जब बरसात का मौसम न हो और उसी दूकान में बहुत सारे छाते बिक रहे हों तो मन में विचार आएगा, "भई इन छातों का क्या काम?" ऐसे में हम इस बात से सहमत हो सकते हैं कि एक विषय पर एक ही व्यक्ति की समय-समय पर विचारधारा अलग-अलग हो सकती है.
खैर, मैं यहाँ कुछ प्रश्नों के उत्तर ढूँढना चाहता हूँ.

1. पहला सवाल - वंश किसका कहलाता है- पुरुष का या महिला का ?
वर्तमान में महिला सशक्तिकरण के लिए हर जगह प्रयास किये जा रहे हैं. जागरूकता लाने के लिए आये दिन विभिन्न घटनाओं और विषयों पर बहस होती रहती है. ऐसा होना भी चाहिए. मैं इसका समर्थन करता हूँ.
महिला को पुरुष के बराबर माना जाता है, मानसिक तौर पर भी और कानूनन भी. मैं इसे भलीभाति समझता और सहर्ष स्वीकारता हूँ. 
आज कल एक बहस जोरों पर है कि शादी के बाद जब बच्चों का जन्म होता है तो वंश पुरुष का क्यों माना जाए, महिला का क्यों नहीं? समाज में चली आ रही परम्परा के अनुसार वंश को पुरुष आगे बढ़ाता है, अर्थात स्त्री पुरुष के वंश को आगे बढ़ाती है. घूमफिर कर वंश पुरुष का होता है. स्त्री का कोई वंश नहीं होता. इस पर भी जबरदस्त बहस चलती है, मीडिया, सेमिनार, कॉलेज, सामाजिक जनमाध्यमों (social media) जैसे फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्स एप आदि पर आये दिन लोग इस सम्बन्ध में जागरूकता लाने सम्बन्धी विचार प्रस्तुत एवं प्रसारित करते ही रहते हैं.
मैं इस बात से पूर्णरूपेण सहमत हूँ कि वंश सिर्फ पुरुष का ही नहीं हो सकता, इस पर नारी का भी उतना ही अधिकार है. और जो सिर्फ वंश पर अधिकार पुरुष का मानते हैं मैं उनका विरोध करता हूँ. 
पर यहाँ सवाल कुछ और है.....

क्या है सवाल? 
जब कोई पुरुष किसी नारी को बहला फुसलाकर उसे गर्भवती बना देता है तो लोग स्त्री से प्रश्न करते हैं- "किसका पाप है?" (ये वाक्य आप भारतीय फिल्मों, मनोरंजक धारावाहिकों, नाटकों, लेखों में सुन और पढ़ सकते हैं.)

अब जरा समझें- "किसका पाप है?" का अर्थ ये हुआ कि पीड़ित स्त्री से पूछा जा रहा है कि- जो बच्चा गर्भ में पल रहा है उसका जिम्मेदार पुरुष कौन है? इस वाक्य से यह बात निकल कर आती है कि जब कोई पुरुष, नारी को बहला-फुसलाकर दुष्कर्म जैसा घटिया, नीच और घिनौना काम करता है तब उसका जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ पुरुष को माना जाता है, नारी को नहीं, क्यूंकि नारी को तो बहलाया और फुसलाया गया... (क़ानून भी ऐसी पीड़ित महिला का पक्ष रखता है. महिलाओं का संरक्षण होना भी चाहिए.) ऐसे में जिम्मेदारी पुरुष की हुई... अर्थात पीड़ित नारी के गर्भ में पल रहे बच्चे का जिम्मेदार पुरुष हुआ.

तर्क- 
जब कोई पुरुष दुष्कर्म जैसा घटिया, नीच कर्म कर नारी को बहला फुसलाकर उसे गर्भवती बना देता है तो उस कृत्य से गर्भ में आये बच्चे का पूरा जिम्मेदार वो पुरुष होता है, तो शादी के बाद पति द्वारा पत्नी के गर्भ में आये बच्चे का पूरा जिम्मेदार पति अर्थात पुरुष क्यों न हो? क्यों न वंश पुरुष का माना जाए?
या फिर, अगर शादी के बाद जन्मे बच्चे पर महिला का बराबर अधिकार हो और वंश पुरुष का होने के साथ महिला का भी वंश माना जाए तो पुरुष द्वारा स्त्री के साथ किये कृत्य में महिला को भी बराबर का दोषी क्यों न माना जाए? शादी से पहले अवेध सम्बन्ध बनाने के बाद गर्भ में आये बच्चे का जिम्मेवार पुरुष के साथ स्त्री को भी क्यों न माना जाए? तब समाज का पीड़ित स्त्री से सवाल, "किसका है ये पाप?" न होकर "किसके साथ किया ये पाप?" क्यों न हो? परन्तु ऐसा नहीं होता.
अगर पुरुष बहला फुसला कर स्त्री को गर्भवती करे तो गर्भ का जिम्मेदार पुरुष और जब शादी के बाद यही कार्य पुरुष करे तो लोग स्त्री के अधिकार और सम्मान की बात कर गर्भ के बच्चे को महिला का भी वंश माने जाने की वकालत करते हैं. ऐसे में हमें समाज के दो अलग अलग चेहरे देखने को मिलते हैं. 

इसमें भी एक सवाल
अगर मान लीजिये शादी के बिना कोई स्त्री सोचसमझ कर और जानकार-बूझकर पुरुष के साथ मिलकर गर्भवती होती है, तब भी क्या गर्भ का जिम्मेदार सिर्फ पुरुष को माना जायेगा? क्या तब भी कहा जाएगा के वंश सिर्फ पुरुष का है या यहाँ भी स्त्री के वंश होने की वकालत की जाएगी. आखिर बात ये समझ नहीं आ रही कि स्त्री को बहलाने-फुसलाने पर पुरुष द्वारा किये किसी कृत्य के कारण ही सारी विचारधारा क्यों बदल जाती है? 

शादी से पहले किये किसी कृत्य पर समाज की विचारधारा कुछ और, और फिर शादी के बाद किये उसी कृत्य पर समाज की विचार धारा कुछ और?
खैर...

2. दूसरा सवाल- क्या पुरुष और स्त्री बराबर हैं?

इस प्रश्न का मैंने हर जगह यही उत्तर पाया कि हाँ, स्त्री और पुरुष मानसिक, बौद्धिक, सामाजिक, वैज्ञानिक, व्यावहारिक (शारीरिक शक्ति छोड़ कर) हर पहलु में बराबर है. इसमें कोई संदेह नहीं. कानून भी इसका समर्थन करता है. यही कारण है कि किसी सरकारी पद पर जो आय पुरुष को दी जाती है उतने बराबर की आय महिला को भी दी जाती है. महिलाओं और पुरुषों का किसी एक पद पर एक जैसा ही पे-ग्रेड और तनख्वा का प्रावधान है. इस व्यवहार की सराहना करनी चाहिए. ये विचारधारा सिद्ध करती है कि पुरुष और महिला एक बराबर हैं.

तर्क- 
कमाल की बात है कि स्त्री-पुरुष मानसिक और दिमागी तौर पर दोनों एक सामान हैं तो फिर एक उम्र + एक बौद्धिक स्तर के पुरुष (मान लीजिये बी.ए. III का छात्र) द्वारा उसी उम्र की + उसी बौद्धिक स्तर की स्त्री (मान लीजिये बी.ए. III का छात्रा) को बहला-फुसला कैसे लेता है? अर्थात किसी उम्र+ एक बौद्धिक स्तर का पुरुष जब उसी उम्र + उसी बौद्धिक स्तर की स्त्री को बहलाने और फुसलाने की कोशिश करता है तो वो स्त्री कैसे बहल और फुसल जाती है?? तब स्त्री की बौद्धिक स्थिति और मानसिक स्तरता कैसे कम हो जाती है? अगर विज्ञान और कानून को माने तो स्त्री और पुरुष सामान हैं, सीधी सी बात है कि पुरुष के बहलाने-फुसलाने पर स्त्री को बहलना-फुसलना नहीं चाहिए क्योंकि दोनों एक सामान दिमागी स्तर के हैं.
यह एक सोचनीय प्रश्न है, जिसपर आत्मचिंतन करने की जरूरत है.

मैं अपनी बात कहूँ तो-
इसका उत्तर पहला ये हो सकता है कि- पुरुष द्वारा स्त्री को बहलाने-फुसलाने की सम्भावना तब ज्यादा हो सकती है जब पुरुष विकसित क्षेत्र का हो सकता है और स्त्री पिछड़े इलाके और अविकसित क्षेत्र की. हम जानते हैं कि क्षेत्र और समुदाय का निश्चित ही जीवन और विचार-व्यवहार पर प्रभाव पड़ता है. यही कारण है कि छात्र अपने पिछड़े इलाको से बहार निकल कर शहर पढ़ने या नौकरी करने आते हैं. 

दूसरा उत्तर ये भी हो सकता है, कि भारत में हज़ारों वर्षों से स्त्री को दबाकर रखा गया. स्त्री को एक उपभोग की वस्तु समझा गया, धीरे-धीरे स्त्रियाँ अपने को स्वयं में कमजोर समझने लगी (और आज भी समझती हैं), इन हज़ारों वर्षों में निर्णय लेने की क्षमता कम हो गई... आज स्थिति ये है कि कोई भी निर्णय लेने के लिए पिता, भाई अथवा पति (जो सभी पुरुष हैं) पर आश्रित रहती हैं, ऐसे में उन्हें अगर कोई पुरुष बहलाने की कोशिश कर रहा होता है तो उन्हें लगता है कि शायद उक्त पुरुष सही ही बोल रहा होगा. ऐसे में महिला स्वयं का विवेक का उपयोग न कर दूसरों की बात पर विश्वाश कर लेती  और पुरुष के बहलाने-फुसलाने पर बहल और फुसल जाती हैं. 
जो स्थिति महिलाओं की हज़ारों वर्षों से है, बिलकुल वैसी ही स्थिति दलितों की भी रही. इन्हें भी दबाया-कुचला गया. धीरे धीरे ये वर्ग भी उस जख्म से उबर रहे हैं, जो ऊँची जातियों ने इन्हें दिए हैं. आरक्षण इसमें एक सहायक के तौर पर सामने आया. आरक्षण ने न केवल दलितों को आगे बढ़ने के लिए सुरक्षित माहौल दिया अपितु महिलाओं को भी आरक्षण देकर उन्हें शान से जीने का हक दिया. उनका स्वाभिमान जगाया है. 

निष्कर्ष 
अजीबो गरीब प्रश्नों और उनके तर्कों का विश्लेषण करने पर हम छोटे मोटे निष्कर्ष पर तो पहुँच गये, फिर भी इसका असर जब तक समाज में देखने को न मिले तब तक इन निष्कर्षों का कोई मूल्य नहीं.
1. निष्कर्ष यह निकल कर आता है कि अगर पिछड़े क्षेत्र की महिलाओं को जो कि आगे बढ़ना चाहती हैं परन्तु संसाधनों के अभाव में नहीं बढ़ पा रही हैं, अगर उन्हें उसी पिछड़े क्षेत्र में आगे बढ़ने अथवा पढने और सुरक्षित माहौल प्रदान किया जाए तो वे जागरूक होंगी और तब किसी पुरुष की हिम्मत न होगी जो स्त्री को बहला अथवा फुसला सके.

2. दूसरा निष्कर्ष यह निकल कर आता है कि जिस प्रकार से, मान लीजिये बस में कोई भरा सिलेन्डर ले जाए और बस में फट जाए तो इसमें दोष सिर्फ उस व्यक्ति का नहीं जिसने सिलेंडर बस में रखा बल्कि परिचालक का भी है जिसने उसे बस में रखने दिया, ठीक उसी प्रकार से जब कोई पुरुष, किसी स्त्री को बहलाने की कोशिश करता है, तो दोष सिर्फ उस पुरुष का ही नहीं, बल्कि दोष उस कानून पालकों का भी है जिनकी नाक के नीचे ये सब निडर होकर किया जा रहा है, उस व्यवस्था का भी है जिसने पुरुष को मौका दिया ऐसा कृत्य करने का. इस का भी सुधार होना चाहिए. 

3. भ्रष्टाचार में सरकारी कर्मचारियों के लिप्त होने के कारण अपराधी सरेआम कुकृत्य करते रहते हैं, और बेख़ौफ़ घुमते हैं, क्यूंकि वो जानते हैं कि सरकारी कर्मचारियों के पास इतना टाइम ही नहीं कि वे अपराधियों को पकड़ सकें. सारा समय अच्छी जगह स्थानान्तरण कराने में और बाकी समय स्थानान्तरण में किये "खर्चे" को पूरा करने और "कमाने" में लगा देते हैं.

अंत में इतना ही कहना चाहता हूँ, मैंने यहाँ कोई बहस का मुद्दा नहीं दिया. मैंने अपने प्रश्नों के उत्तर तलाशने की कोशिश की. जीवन में हर राह में प्रश्न होते हैं. उन्ही के हल मनुष्य आजीवन करता है, और जिसके हल मिलते जाते हैं, उनको मनुष्य संचार के माध्यम से प्रेषित करता रहता है. यही संसार है, यही संचार है.