सीखने के लिए मैंने हर जख्म सींचे हैं, पढ़ना है दर्द मेरा तो सब लिंक नीचे हैं

बुधवार, जनवरी 28, 2009

बस यूँ ही.......

मैं सोच भी नही सकता था कि एक इतना बड़ा पत्रकार ये बात कहेगा.......
उसने कहा था कि जो भी लिखो , उसे सोच समझ के लिखना। क्योंकि जहाँ तुम रह रहे हो (मध्य प्रदेश), वहां बीजेपी कि सरकार है और केन्द्र में कांग्रेस की।
वो पत्रकारिता को छोड़कर महज एक अध्यापक बनकर क्यों रह गया, ये तो मैं नहीं बताया लेकिन इतना पता लगा की किसी अखबार में थे। १९ जनवरी को वो व्यक्ति मुझे दिल्ली के सफर में मिला। "तुम अपनी कितनी भी कोशिश कर लो कोई फायदा नहीं। प्रदेश में कुपोषण बना रहेगा, महिलाओं की स्थिति बदतर ही रहेगी और आदिवासियों की स्थिति सुधर गई तो सरकार को उनके विकास के लिए मिलने वाला अनुदान कम हो जाएगा........गरीब अगर गरीब न रहा तो किसके विकास के नाम पर वोट मागें जायेंगे....... "।
पत्रकार तो वही लिखता है जो समाज में साफ़ दिखाई दे रहा है, जो सच है। मैंने नाराजगी जतायी, " 'हम' भी चुप रहे तो उन तक रोटी कैसे पहुँचेगी जो भूख से आवाज निकालने में भी डरते हैं?"
"बच्चू जिस दिन उन्हें रोटी मिल गई, तो तुम्हारे हाथ से रोटी जायेगी, देश में रोटी तो सीमत है न। "
ये तो कोई तुक नही हुई, की अगर एक पत्रकार किन्हीं गरीब मजदूरों की आवाज उठाकर सरकार के सामने लाये, तो उसकी नौकरी का ही पत्ता इसलिए साफ़ कर दिया जाए की उसने सरकारी महकमे की पोल खोल दी।
"जमाने तमाने की बातें भूल जा और एज ऐ प्रोफेशनल काम कर , नहीं तो कोई संपादक तुझे नही रखेगा, क्योंकि अगर संपादक ने तुझे छूट दी तो मालिक सम्पादक की छुट्टी कर देगा। "
मैं सुनता रहा, थोडी शान्ति होने पर वे फिर बोले ,"आज पत्रकारिता का उद्देश्य , स्वरुप , प्रतिक्रिया सब में परिवर्तन आया है। एक वक्त था की मालिक सम्पादक के कार्य में दखल नही देते थे लेकिन आज....."
मुझे लगा शायद उस व्यक्ति के मन में कुछ वेदना है इसलिए शांत रहा।
"....जब आरूषि हत्याकाण्ड हुआ तो रोज उसका कवरेज़ छपा क्योंकि उसकी निर्शंश हत्या हो गई थी..... लेकिन जब मैंने अपनी चचेरी बहन की हत्या की ख़बर दुबारा प्रकाशित करने की कोशिश की तो वे (मालिक) नाराज हो गए..... उसकी तो बलात्कार के बाद हत्या की गई थी। मेरी चचेरी बहन थी तो वे दूसरी बार ख़बर देने में नाराज हो गए और आरूषि ? आरूषि तो उनकी चचेरी, ममेरी केसी भी बहन नही थी तो उसका क्यों इतना कवरेज़ किया ? क्या मेरी बहन की हत्या हत्या नही थी ? मैं समाचार संपादक होकर भी अपनी बहन को न्याय नही दिला पाया तो तू उन गरीबों की क्या आवाज उठा पायेगा..... हा हा" रुंधी हुए आवाज के साथ गहरी साँस ली ।
उसने मुझसे ज्यादा पत्रकारिता जीवन देखा है, फिर भी मैं केसे मान लूँ की पत्रकारिता में सिर्फ़ नौकरी करना रह गया ? मैंने अपनी बात रखी ,"आप मालिक की हर बात माने, जो वे कहें, आदेश दें वो करो। २० खबरें उन्हें उनके मन की दो और उनमें एक ख़बर वो दो जिसके लिए आप पत्रकारिता में आए हो। इसमे कौन सी बड़ी बात है। "
एक बात तो है कि पत्रकार कितना ही बड़ा क्यों न हो , वो अब एक शतरंज का प्यादा बनकर रह गया है। लेकिन हम ये कैसे भूल जाते हैं कि प्यादा भी मारक क्षमता रखता है। "
"पत्रकार बनना चाहते हो ?"
"जी।"
"तुम ब्लॉग लिखते हो?"
"हाँ, क्यों?"
"तो भडास जरा संभलकर निकालना। सोच समझ के लिखना....." मैं उसकी बात कुछ समझ नहीं पाया।
"ये तो स्वतंत्र अभिव्यक्ति का सबसे बड़ा मंच है और आप कह रहे हैं कि सोच समझ के लिखना"
"ये बात तुम्हारे तब समझ आएगी, जब तुम्हे अप्रत्यक्ष रूप से चेतावनी दी जायेगी कि ऐसा मत लिखो वरना तुम्हारे भविष्य को नुक्सान पहुच सकता है।"
मैंने अचानक सवाल दागा,"आपने पत्रकारिता क्यों छोड़ दी ?"
वे मुस्कुराये और बोले ,"मैंने पत्रकारिता छोड़ी नही बल्कि मुझे निकाल दिया गया। किसी के लिए इन्साफ जो माग रहा था। जब मैंने अपने ब्लॉग में अपनी बहन कि मौत कि ख़बरों कि हर अपडेट देने शुरु कर दिए तो उन पर टिप्पणी भी आने लागी- कविता के ब्लॉग पर इस ख़बर का क्या काम, क्या बात है अखबार में जगह नही मिल रही है क्या छपने के लिए ? ....... तुम्हारा अखबार क्या इस लायक नही कि तुम इसमें ख़बर दो इतनी बड़ी ख़बर होकर भी नही छाप रही अखबार है या रद्दी ?...... । मैंने तो सिर्फ़ अपने ब्लॉग पर उस हादसे को ही रखा था। अब ऐसी टिप्पणीयाँ आई तो मुझे इसका इनाम काफी ख़ास मिला........"
मैं समझ गया था कि अखबार के मालिक ने अपने अखबार के बारे में आयीं टिप्पणीयों के कारण ही उन्हें निकाल दिया।
"मेरी बहन को इन्साफ नही मिला। सब गवाह बिक गए....... किसी ने डर कि वजह से गवाही नही दी। पुलिस ने पैसा खा लिया.......... मैं.....इस समाज ने ......... जो समाज सुधारना ही नही चाहता तो हम ही क्यों फालतू कि मेहनत करें ? और कुछ करें तो मालिक..... अपनों से दूर, बच्चों को वक्त नहीं दे पाना..... । "
वो आदमी मुझे कुछ अजीब लगा। कभी लगा कि ये कमजोर दिल का पेसीमिस्ट आदमी है , तो कभी लगा कि शायद उसकी आंखों में कई दिग्गज पत्रकारों के फलसफे हैं।
फिर भी मैंने पूछा ,"पत्रकारिता में आने से पहले आपने ये बात क्यों नहीं सोची ?"
"पत्रकारिता में जब आया तो ये नही सोचा था कि मालिकों का, राजनीति का इतना दखल होगा कि तुम जो-जो करना चाहोगे उन सब पर नकेल लगा दी जायेगी या टांग अडाई जायेगी। "
"तो अब छात्र पत्रकारों को भी यही सीख देते हैं कि समाज मत सुधारना? " मैंने अटपटे मन से पूछा।
"नही! में उन्हें साफ़ समझाता हूँ कि वे प्रोफेशनल बनें, बस। "
इतने में उनके मोबाइल फ़ोन कि घंटी बज उठी। कोई किसान उनसे बात कर रहा था। उनकी बातों से ज्यादा साफ़ तो नही हो पाया लेकिन पता लगा कि किसी ठाकुर कि गाये किसी किसान के खेत में घुसकर उसके खेत को नुक्सान पंहुचा आई। जब किसान ने इसकी शिकायत ठाकुर से कि तो उल्टे ठाकुर ने उसे मारकर भगा दिया। वो इस व्यक्ति के माध्यम से ख़बर छपवाना चाह रहा था ताकि ऐसे ज्यादती से अगली बार बचा जा सके और पुलिस के भी कान खुले। हालांकि उस व्यक्ति ने किसी दैनिक अखबार में उस ख़बर को लगाने कि लिए भी कह दिया।
मैं वहाँ से उठा और अपनी सीट पर बैठा। मैं सोच में पड़ गया ........ जो व्यक्ति थोडी देर पहले अपनी व्यथा सुनाते हुए कह रहा था कि कौन समाज सुधारे, वही व्यक्ति तुंरत उस किसान कि सहायता के लिए ३-४ फ़ोन इसलिए खनखना देता है क्योंकि एक गरीब किसान पर अत्याचार हुआ।
पहले तो लगा कि बेचारा किस्मत का मारा है, नजर में एक सिंपल छवि बनी , लेकिन जब वो फ़ोन वाली घटना घटी, उसके बाद उसे समझने में मैं असमर्थ हो गया।
ये बात सच है कि हर पत्रकार चाहता है कि सुधार हो फिर भी कहीं न कहीं कुछ उपरी दबंगता होती है कि वो चाह कर भी कुछ नही कर पता।
दिल्ली स्टेशन पर उनसे पूछने पर पता लगा कि किसी मीडिया संस्थान में इंटरव्यू देने आए हैं.

7 टिप्‍पणियां:

Ritesh Purohit ने कहा…

i think, the person whom u meet is correct. we have to be proffesional. whatever our company and our boss, expect us, we have to do it.
remember, you will get satisfaction from your work when your boss will praise you or happy with you. because if it is not so, then you always be in a worry to save ur job. at that time your can never think about your social comittmenent.
So, just give it 100 percent in ur work, and leave the rest to god. whatever he will do, it will be best fot u.

ठिठके पल पांखुरी पर ने कहा…

वाह बिरजू .......
बहुत सार्थक लिख रहे हो .....यूँ ही चलते रहो... समाज में हो रहे परिवर्तनों से पत्रकारिता भी अछूती नही है.. और आज के समय में अच्छा काम के लिए कीमत चुकानी पड़ती है..संघर्ष करना पड़ता है....लेकिन अच्छा लिखने और करने की गुंजाईश कम मात्रा में ही सही मौजूद हमेशा रहती है.. सो उम्मीद कायम रखें ....धन्यवाद

Ashish Maharishi ने कहा…

कौन थे वे महाशय..उनके दर्द को भी हमें समझना होगा..बहुत मार्मिक और संवेदना के साथ लिखा गया पीस है ये

Rohit verma ने कहा…

sabka dard sun magar darna nahi
apna hosla rakho aur mehnat karo sab jhakkash hoga.

Ganesh Kumar Mishra ने कहा…

बहुत सुंदर लिखा है....ब्रिजेन्द्र, लेकिन काफ़ी हद तक उन महाशय की बात भी सही है। वर्तमान में पत्रकारिता का स्वरुप काफ़ी बदल गया है, अब हम समाज को बदलने वाली पत्रकारिता नहीं कर सकते, लिहाजा हमें प्रोफेशनल होना ही पड़ेगा। लेकिन इसके साथ ही अगर हम सामजिक सरोकारों को ध्यान में रखते हुए चलें तो ही हमारी पत्रकारिता सार्थक है। लिखते रहिये........मैं आपकी रचनाधर्मिता का कायल हूँ।

sandhyagupta ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
sandhyagupta ने कहा…

होली की हार्दिक शुभकामनाएँ.