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शनिवार, अप्रैल 16, 2011

क्या सिर्फ नाम की ही हैं बेटियां ?


जब से महिलाओं की राज्य साक्षरता दर के आंकड़े सामने आये हैं उत्तराखंड सरकार की सोच का आइना साफ़ हो गया है पुरुष और महिला के बीच के भारी अंतर से केन्द्र सरकार ने चिंता जताई है
नई जनगणना से मिले आंकड़ों ने राज्य सरकार के आँखें खोल दी हैं प्रदेश में तीन चौथाई जिलों में महिला साक्षरता दर काफी नीचे चली गई है प्रदेश में महिला साक्षरता महज 70.70 प्रतिशत है जबकि पुरुष साक्षरता 88.33 प्रतिशत है महिला-पुरुष के बीच ये आंकड़ा काफी गंम्भीर है। अब सुध लेते हुए सिर्फ ये ऐलान किया गया है कि विद्यालयी शिक्षा विभाग मुफ्त में कक्षा ९ की बालिकाओं को यूनीफोर्म और किताबें मुहैया कराएगा। ये इसलिए किया जा रहा है ताकि जो लड़कियां विभिन्न कारणों से 8वीं के बाद स्कूल में नहीं जा पातीं उन्हें मुफ्त युनिफोर्म और कोताबों से लुभाया जायेगा। हालाँकि सिर्फ इस योजना के लागू कर देने से ही कुछ हो जाने वाला नहीं है। यहाँ एक काम और करना होगा वो ये कि इस तरह की गरीब बालिकाओं के पालकों को भी उनकी पढाई के लिए प्रेरित करना होगा, ताकि योजना को पूर्ण सफल बनाया जा सके। पालकों को ये अहसास कराना होगा कि उन्हें बालिकाओं को स्कूल भेजने में कोई आर्थिक नुक्सान नहीं होगा उनके कुल खर्चे की एक कीमत सरकार अदा कर रही है। 1000 रूपए सरकार अपनी ओर से प्रत्येक बालिका पर खर्च करेगी जो बालिका 9 वीं में प्रवेश लेगी।
यहाँ स्थिति ये है कि इतना गेप तो राष्ट्रीय आंकड़ों में भी नहीं है. राष्ट्रीय महिला-पुरुष साक्षरता गैप का आंकड़ा राष्ट्रीय दर से भी दो ढाई हाँ की स्थिति पर नजर डालें तो चलेगा कि बालिकाओं के लिए चलने वाले विभिन्न योजनाओं के बावजूद सरकार बच्चों को स्कूल में नहीं रोक पा रही है. सर्व शिक्षा अभियान, कस्तूरबा गाँधी आवासीय बालिका विद्यालय जैसी योजनायें भी धरी की धरी हैं। बालिकाएं 8 वीं तक तो पढ़ती, लेकिन उसके बाद उन बालिकाओं को आगे बढ़ने का मोका नहीं मिल पाता। राज्य में आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलेगा कि ८वीन के बाद बालिकाओं कि ड्रॉप दर ज्यादा है. यही कारण है कि जन्गादाना में महिला-पुरुष कि साक्षरता दर में काफी अंतर है। सरकार ये कोशिश कर रही है कि बालिकाओं को ज्यादा से ज्यादा स्कूल में आने के लिए जागरूक किया।
इसके साथ ही उनके माता-पिता को भी शिक्षा के प्रति लड़कियों को भी आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया जाये। बड़ी होती लड़कियों के आगे स्कूल न भेजने का एक और कारन है। पहाड़ों में रह रहे आम लोगों का मानना है कि वे अपनी बड़ी होती बेटियों को स्कूल इसलिए नहीं भेजते क्योंकि उन्हें खतरा है कि कहीं उनकी बेटियों के साथ कोई गलत घटना न घाट जाए।
पहाड़ों में रहने वाले पालकों का शहर में रहने वाले पालकों के कारण से ज्यादा प्रमुख है। क्योंकि गावों में घर से स्कूल दूर होता है और यहाँ का रास्ता सुनसान होने के कारन बालिकाओं के लिए अपेक्षित शुर्क्षित नहीं रहता। पलको कि इस तरह कि सोच को हम नकार नहीं सकते। इस कारण को चादर बनाकर प्रशासन अपनी लापरवाही पर डाल देता। योजनायें और जागरूकता ढोल-पोल चलती रहती हैं और लड़कियों कि संख्या बड़ी कक्षाओं में घटती रहती है।
इतना ही नहीं गावों में रह रहे पालकों से बातचीत में ये भी पता चला है की उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने के कारण वो अपने बेटों को पढाई के लिए तरजीह देते हैं। ऐसे में बालिकाएं रह जाती हैं। अब तक क्यों नहीं सोचा गया जब यहाँ की सरकार को ये पता था कि पालकों कि आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है तो क्या बालिकाओं के लिए आर्थिक पहल पहले से शुरू नहीं कि जा सकती थी।
अब जब कई बालिकाओं का भविष्य लडखडा चुका है तो सुध ली जा रही है। इन बालिकाओं के लिए आर्थिक पहल पहले से शुरू की जा सकती थी। खेर देर से ही सही लेकिन शुरुआत तो की। बालिकाओं के लिए 1000 रुपए प्रति बालिका पर खर्च करने का मन बनाया। ड्रॉप आउट के बारे में क्या सरकार को पहले नहीं पता था। अब ये लुभावना ऑफर देकर क्या राज्य सरकार आने वाले चुनावों के लिए सियासी खेल खेल रही है। ये देखना होगा।

1 टिप्पणी:

dhandhl ने कहा…

aapki bhavnao ki kadra karni chahiye..