सीखने के लिए मैंने हर जख्म सींचे हैं, पढ़ना है दर्द मेरा तो सब लिंक नीचे हैं

मंगलवार, जुलाई 29, 2025

विदाई

गाँव की लड़कियां ब्याह दी जाती हैं किसी और गाँव

किसी और गाँव की लड़कियां ब्याह दी जाती हैं किसी और गाँव

वक़्त बदल जाने पर गाँव में

पुरुषों के चेहरे वही रहते हैं

बस स्त्रियों के चेहरे बदल जाते हैं ।

(-डॉ0 बी0के0 वर्मा)

 


खोने से बहे हैं

वो विदाई के समय रोता हुआ शख्स,

उसके आँसू दूर जाने से नहीं, किसी के खोने से बहे हैं,

तुम देखना लौट आने पर गुमसुम सी रहेगी,

फिर से निकलेंगे वही आँसू, जो खोने से बहे हैं।

(- डॉ0 बी0 के0 वर्मा)

सोमवार, जुलाई 28, 2025

प्लास्टिक खाने वाले फंगस के प्रचार में प्रेस पीछे क्यों ?


 डॉ0 बृजेन्द्र कुमार वर्मा

प्लास्टिक प्रदूषण आज दुनिया के सबसे गंभीर पर्यावरणीय खतरों में से एक है। हर साल लाखों टन प्लास्टिक कचरा हमारे महासागरों, नदियों और ज़मीन पर जमा हो रहा है, जो सदियों तक अपघटित नहीं होगा। यह न केवल वन्यजीवों को नुकसान पहुँचा रहा है, बल्कि हमारे पारिस्थितिकी तंत्र और मानव स्वास्थ्य के लिए भी खतरा बन रहा है। इस विशाल चुनौती के बीच, वैज्ञानिक समुदाय ने एक अप्रत्याशित, लेकिन शक्तिशाली सहयोगी की खोज की है, जो है “प्लास्टिक खाने वाले फंगस”। इस सूक्ष्मजीव ने अपनी अप्रत्याशित और अनूठी क्षमताओं से पूरी दुनिया को चौंका दिया है, क्योंकि ये प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने की हमारी लड़ाई में एक नई आशा लेकर आए हैं। और इसमें प्रेस को भी पीछे नहीं रहना है, जबकि पूरी दुनिया जानती है कि प्रेस की ताकत क्या है।

पॉलीइथाइलीन टेरेफ्थेलेट (PET), पॉलीइथाइलीन (PE), पॉलीप्रोपाइलीन (PP) और पॉलीस्टाइरीन (PS) जैसे प्लास्टिक हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा बन गए हैं। पानी की बोतलों से लेकर पैकेजिंग और कपड़ों तक। प्लास्टिक की कुछ बहुमुखी प्रतिभा ने उन्हें औद्योगिक क्रांति का एक महत्वपूर्ण घटक बना दिया है, लेकिन यही गुण उन्हें पर्यावरण के लिए भी एक खतरा बनाते हैं। पारंपरिक रीसाइक्लिंग विधियाँ महँगी होती हैं और अक्षम भी हो सकती हैं, और प्लास्टिक का एक बड़ा हिस्सा अंततः हमारे प्राकृतिक वातावरण में पहुँच जाता है। यहाँ वे माइक्रोप्लास्टिक में टूट जाते हैं, जो मिट्टी और पानी में प्रवेश कर खाद्य शृंखला का हिस्सा बन जाते हैं, जिसके दीर्घकालिक प्रभावों को हम अभी पूरी तरह से समझ भी नहीं पाए हैं। इस गंभीर स्थिति में, वैज्ञानिकों ने प्रकृति की गोद में पल रहे इस फंगस से परिचय कराया जिसके लिए प्रकृति का जितना धन्यवाद किया जाए, वो कम ही होगा। क्या कोई सूक्ष्मजीव ऐसे हैं, जो प्लास्टिक जैसे जटिल बहुलकों को तोड़ सकते हैं? जवाब है, हाँ।

यह इतिहास ज्यादा पुराना नहीं है। बात 2011 की है। बताया जाता है कि येल विश्वविद्यालय के कुछ शोधकर्ता इक्वाडोर के अमेज़न वर्षावन में  एक शोध ट्रिप पर गए हुए थे। यहाँ शोधकर्ताओं ने पेस्टालोटिओप्सिस माइक्रोस्पोरा (Pestalotiopsis microspora) नामक एक फंगस की खोज करके दुनिया को चौंका दिया। इस फंगस में पॉलीयूरेथेन (PU) को ऑक्सीजन-रहित वातावरण में भी विघटित करने की क्षमता थी। यह एक बड़ी सफलता थी, क्योंकि लैंडफिल (भूक्षेत्र जहाँ बड़ी मात्रा में अपशिष्ट पदार्थ गाड़ दिए जाते हैं) में प्लास्टिक अक्सर बिना ऑक्सीजन के ही पड़ा रहता है। यह खोज प्लास्टिक-खाने वाले सूक्ष्मजीवों के अध्ययन में एक मील का पत्थर साबित हुई। इस प्रारंभिक सफलता के बाद, दुनिया भर के शोधकर्ता सक्रिय हो गए। उन्होंने विभिन्न प्रकार के फंगस की पहचान की जो अलग-अलग प्लास्टिक को तोड़ने में सक्षम हैं। इनमें कुछ प्रमुख फंगस एस्परगिलस ट्यूबिंगेंसिस (Aspergillus tubingensis), फेनरोचेट क्राइसोस्पोरियम (Phanerochaete chrysosporium) आदि हैं। इसमें एस्परगिलस ट्यूबिंगेंसिस फंगस पॉलीइथाइलीन (PE) को तोड़ने के लिए जाना जाता है, जो दुनिया में सबसे अधिक इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक में से एक है। यह कटिन हाइड्रोलेस जैसे एंजाइमों का स्राव करता है, जो PE को छोटे एवं आसानी से विघटित होने वाले टुकड़ों में तोड़ देते हैं। इधर फेनरोचेटे क्राइसोस्पोरियम सफेद सड़ा हुआ कवक के रूप में जाना जाता है, जो लकड़ी के जटिल घटक, लिग्निन को तोड़ने की अपनी क्षमता के लिए प्रसिद्ध है। शोध से पता चला है कि यह पॉलीयूरेथेन और पॉलीइथाइलीन सहित कुछ प्लास्टिक को भी प्रभावी ढंग से विघटित कर सकता है।

इन फंगस की गुप्त शक्ति उनके द्वारा उत्पादित एंजाइमों में निहित है। ये सूक्ष्म प्रोटीन फंगस की कोशिकाओं से बाहर निकलते हैं और प्लास्टिक बहुलक की लंबी, स्थिर शृंखलाओं पर रासायनिक रूप से हमला करते हैं। वे इन शृंखलाओं को छोटे, घुलनशील अणुओं में तोड़ देते हैं। एक बार जब प्लास्टिक के टुकड़े छोटे हो जाते हैं, तो फंगस उन्हें अपनी कोशिकाओं में अवशोषित कर लेते हैं और उन्हें अपनी वृद्धि और ऊर्जा के लिए उपयोग करते हैं। इस प्रक्रिया को जैव-अपघटन (Biodegradation) कहा जाता है। यह एक प्राकृतिक और पर्यावरणीय रूप से टिकाऊ तरीका है, जिससे प्लास्टिक को उसके मूल घटकों में तोड़ा जा सकता है, जिससे हानिकारक सह-उत्पाद (By-products) का उत्पादन नहीं होता।

ये बात बड़ी अचंभित करने वाली है कि जबकि पूरी दुनिया प्लास्टिक कचड़े से परेशान है, वह इस तरह की आशावादी खोज के बाद भी प्रेस में वो उत्साह नजर नहीं आया जैसा की आना चाहिए। इन फंगस पर वैज्ञानिक तो काम कर ही रहे हैं, पर प्रेस को भी उसी उत्साह और जूनून के साथ लिखना चाहिए। प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में प्रेस ने अपनी भूमिका निभाई और तमाम देशों की जनता की स्थिति को बताया। भारत को ही ले लीजिए, भारत की आजादी से लेकर विकास में प्रेस ने अपना योगदान दिया है। हालांकि भारतीय भाषा में विज्ञान की बातों को प्रकाशित करने में प्रेस के हाथ तंगी में रहते हैं, उसका भी एक विशेष कारण विज्ञान पत्रकारों का अभाव है, लेकिन फिर भी जितना हो सके विज्ञान को सरल और बोलचाल की भाषा में जितना प्रेषित किया जाए उतना ही जनता का लगाव इस और बढ़ेगा। विकासशील देशों को तो ऐसे फंगस पर विशेष रूप से काम करना चाहिए। वैज्ञानिकों को भी और प्रेस को भी। प्रेस ये तो खूब प्रकाशित कर रहा है कि प्लास्टिक किस तरह से पर्यावरण और स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है, परंतु ये प्रकाशित करने मे पीछे क्यों कि इस तरह के फंगस को विकासशील देशों के पर्यावरण के लिए अनुकूल बनाया जाए तो स्थिति कुछ बेहतर हो सकती है। प्रेस का काम सिर्फ खबरें देने का ही नहीं, बल्कि जागरूक और उत्साहित करने का भी है। वैज्ञानिकों की अपनी सीमाएँ होती है, समाज में वे उतने सक्रिय नहीं होते, जितने वे अपनी प्रयोगशाला में होते हैं। ऐसे में समझाने का काम स्वयं प्रेस का हो जाता है।

प्लास्टिक खाने वाले फंगस की खोज ने प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने के लिए एक नया और रोमांचक मार्ग खोल दिया है। क्योंकि यह पारंपरिक तरीकों की तुलना में कम ऊर्जा और हानिकारक रसायनों का उपयोग करता है। अलग-अलग फंगस विभिन्न प्रकार के प्लास्टिक को तोड़ सकते हैं, जिससे एक व्यापक समाधान संभव है। इसके अलावा बहुत ही कम लागत में बड़े पैमाने पर औद्योगिक अनुप्रयोगों के लिए यह प्रभावी विकल्प साबित हो सकता है। उन क्षेत्रों में, जहाँ प्लास्टिक कचरा जमा होता है और पहुँच कठिन है, वहाँ इसका उपयोग किया जा सकता है। प्रेस को चाहिए कि इस पर खूब लिखे। सरकार, उद्योगपतियों, उद्यमियों आदि को इस और आकर्षित करे। जनता को जागरूक करे ताकि जनता सरकारों पर दबाव बना सके और इस तरह हम प्लास्टिक कचड़े के अंत के लिए एक नए आंदोलन को जन्म दे सकें। हालांकि अभी भी कुछ चुनौतियाँ सामने हैं, जैसे वर्तमान में, प्लास्टिक का जैव-अपघटन एक अपेक्षाकृत धीमी प्रक्रिया है। औद्योगिक पैमाने पर इसे तेज़ करने के लिए अधिक शोध की आवश्यकता है। इसके अलावा कुछ फंगस को प्लास्टिक को प्रभावी ढंग से तोड़ने के लिए विशिष्ट तापमान, आर्द्रता और पोषक तत्वों की स्थिति की आवश्यकता होती है। हालांकि वैज्ञानिक इन प्लास्टिक के जैव-अपघटन के अंतिम उत्पादों और पर्यावरण पर उनके संभावित दीर्घकालिक प्रभावों के बारे में पूरी समझ विकसित नहीं कर पाएँ हैं, ऐसे में इसे भी जानना जरूरी है। वैज्ञानिक अब एंजाइम इंजीनियरिंग के माध्यम से इन फंगस की क्षमताओं को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, ताकि वे अधिक तेज़ी से और कुशलता से प्लास्टिक को तोड़ सकें।

प्लास्टिक खाने वाला फंगस एक वैज्ञानिक चमत्कार हैं, जो हमें हमारे ग्रह को बचाने के लिए एक शक्तिशाली उपकरण प्रदान कर सकते हैं। हालाँकि यह एक अंतिम समाधान नहीं है और प्लास्टिक के उत्पादन और खपत को कम करना अभी भी महत्वपूर्ण है। ये सूक्ष्मजीव हमें एक स्थायी भविष्य की ओर बढ़ने में मदद करने की अपार क्षमता रखते हैं। यह एक रोमांचक क्षेत्र है, जहाँ नवाचार हमें प्लास्टिक-मुक्त दुनिया के करीब ला सकता है और इन सब में प्रेस को हर बार की तरह अहम भूमिका निभानी है।

(लेखक जनसंचार के व्याख्याता हैं।)

कितना जरूरी है।

 

फिजाओं में उड़ती पतंगें सिखाती हैं,

हवा के न होने पर भी उड़ना कितना जरूरी है,

अमीरों के ये लहजे सबको सिखाते हैं 

जमाने में मजबूत होना कितना जरूरी है।

(डॉ0 बी0 के0 वर्मा)

सोमवार, जून 23, 2025

अधूरी मोहब्बत

(-डॉ0 बृजेन्द्र कुमार वर्मा)

मोहब्बत की किताब का, एक पन्ना मोड़ आए हम।

कहानी पूरी न हुई, और क़लम तोड़ आए हम।।


कुछ ख़्वाब थे मुकम्मल, कुछ आँखों में ही सो गए।

थे वादे भी तो प्यारे, जो रूहों से जुदा हो गए।।

किनारों पर ही आकर, मौजों से बिछड़ आए हम।

कहानी पूरी न हुई, और क़लम तोड़ आए हम।।



वो रातें चाँदनी सी थीं, वो बातें रूह में बस गईं।

तस्वीरें ज़ेहन से निकलीं, पर यादें दिल में धंस गईं।।

उन्हीं यादों के साए में, ज़िंदगी छोड़ आए हम।

कहानी पूरी न हुई, और क़लम तोड़ आए हम।।

रविवार, जून 22, 2025

ग्रामीण विकास की पुनर्कल्पना: परंपरा, नवाचार और न्याय

- डॉ0 बृजेन्द्र कुमार वर्मा 


 भूमिका

ग्रामीण भारत केवल खेत, खलिहान और मिट्टी का नाम नहीं है, यह एक समृद्ध सांस्कृतिक जीवनधारा है, जहाँ परंपरा और आधुनिकता, श्रम और आत्मा, सामूहिकता और विविधता का अद्भुत समन्वय है। जब हम ग्रामीण विकास की बात करते हैं, तो यह केवल बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता भर नहीं है, बल्कि एक ऐसे सामाजिक ढांचे की रचना है, जो समावेशी हो, न्यायपूर्ण हो, टिकाऊ हो और आत्मनिर्भरता को प्रोत्साहित करे। हम विकास प्रक्रिया की गहराइयों में जाकर उसकी परिभाषा, चुनौतियों, संभावनाओं और नीतिगत सुधारों की विवेचना कर सकते हैं।

1. ग्रामीण विकास की पारंपरिक अवधारणाएँ और सीमाएँ

ग्रामीण विकास को प्रारंभ में मुख्यतः कृषि उत्पादन, भूमि सुधार, सिंचाई, ग्रामीण बैंकिंग, और प्राथमिक शिक्षा जैसी प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति के रूप में देखा गया। भारत के पहले पंचवर्षीय योजना (1951-56) में 'कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम' की शुरुआत हुई, जिसने ग्रामीण भारत को योजनाबद्ध विकास से जोड़ने का प्रयास किया। हालांकि, इन योजनाओं में स्थानीय सामाजिक संरचनाओं, जाति व्यवस्था, और महिला सहभागिता जैसे पहलुओं की उपेक्षा रही।

वर्षों तक विकास की यह दृष्टि 'टॉप-डाउन' रही — यानी निर्णय और योजनाएँ दिल्ली या राज्य मुख्यालय से बनती थीं, और उन्हें गाँवों पर थोप दिया जाता था। इससे स्थानीय समस्याओं की जटिलता को समझने और समाधान प्रदान करने में असफलता हुई।

2. 'बॉटम-अप' विकास और स्थानीय नवाचार

डॉ. अनिल गुप्ता अपनी पुस्तक में बताते हैं कि गाँवों में केवल 'समस्या' नहीं, समाधान भी विद्यमान हैं। हनी बी नेटवर्क और राष्ट्रीय नवप्रवर्तन फाउंडेशन (NIF) ने हजारों ग्रामीण नवाचारों को संकलित कर यह दिखाया कि सीमित संसाधनों में भी कैसे रचनात्मकता फलती-फूलती है।

Digital Green, e-Choupal, और mKisan जैसे प्लेटफ़ॉर्म्स ने सूचना, कृषि, और विपणन को डिजिटली जोड़कर गाँवों को वैश्विक अर्थव्यवस्था से जोड़ा, परंतु यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि इन नवाचारों की सफलता तब ही संभव है, जब स्थानीय साक्षरता, डिजिटल साक्षरता और बुनियादी अवसंरचना मजबूत हो।

3. सामाजिक न्याय के अभाव में अधूरा विकास

भारत का ग्रामीण समाज जाति, वर्ग, लिंग और भू-अधिकार जैसे असमानताओं से व्याप्त है। दलित, आदिवासी, और महिलाएँ अधिकांश योजनाओं में परिधीय भूमिका में रहती हैं। भूमि सुधार अधिनियमों के बावजूद ज़्यादातर भूमि अब भी कुछ ऊँची जातियों के नियंत्रण में है। 

महिलाओं की सहभागिता ग्राम पंचायतों में आरक्षण के माध्यम से बढ़ी है, लेकिन निर्णय-निर्माण की वास्तविक शक्ति अभी भी सीमित है। आत्मनिर्भर गाँव की कल्पना तभी साकार होगी जब सामाजिक न्याय उसकी रीढ़ बने।

4. ग्राम सभा और लोकतांत्रिक सशक्तिकरण

पंचायती राज व्यवस्था को 73वें संविधान संशोधन (1992) के माध्यम से संवैधानिक दर्जा मिला। ग्राम सभा को गाँव की सबसे महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक इकाई माना गया, परंतु व्यवहार में यह सशक्त संस्था नहीं बन पाई है। इसके पीछे भ्रष्टाचार, राजनीतिक हस्तक्षेप, और जन-जागरूकता की कमी जैसी अनेक समस्याएँ हैं।

जहाँ ग्राम सभाओं को सक्रिय और निर्णयात्मक इकाई बनाया गया, जैसे केरल का कुदुम्बश्री मॉडल, वहाँ ठोस परिवर्तन देखने को मिले हैं। कुदुम्बश्री (जिसका स्थानीय मलयालम भाषा में अर्थ है "परिवार की समृद्धि") केरल सरकार का चल रहा सहभागी "गरीबी उन्मूलन और महिला सशक्तिकरण" मिशन है, जो 1998 में शुरू हुआ था, और महिलाओं के तीन-स्तरीय सामुदायिक नेटवर्क के माध्यम से काम करता है।

5. पर्यावरणीय संतुलन और सतत विकास

गाँवों की अर्थव्यवस्था मुख्यतः प्रकृति पर आधारित होती है — वर्षा, भूमि, जंगल और जलस्रोत। परंतु वनों की कटाई, जलवायु परिवर्तन, और औद्योगिक प्रदूषण ने इस संतुलन को बिगाड़ दिया है। राजस्थान के जल योद्धा राजेन्द्र सिंह ने जल संरक्षण के पारंपरिक तरीकों का पुनरुद्धार करके यह दिखाया कि पर्यावरणीय न्याय से ही टिकाऊ विकास संभव है। महाराष्ट्र के हिवरे बाजार गाँव ने सामूहिक भागीदारी से वर्षा जल संचयन, वृक्षारोपण, और आजीविका के विविधीकरण का ऐसा मॉडल प्रस्तुत किया है जो देशभर के लिए उदाहरण बन गया है। महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में स्थित हिवरे बाजार गाँव, सूखे की मार झेलने के बाद वर्षा जल संचयन और जल प्रबंधन के क्षेत्र में एक प्रेरणादायक मॉडल बन गया है। कभी यह गाँव अत्यधिक गरीबी और पलायन का शिकार था, लेकिन आज यह महाराष्ट्र के सबसे समृद्ध गांवों में से एक माना जाता है, जहाँ कई परिवार करोड़पति हैं। इन प्रयासों के परिणामस्वरूप, हिवरे बाजार का भूजल स्तर नाटकीय रूप से बढ़ा। जहाँ पहले पानी की गंभीर कमी थी, वहीं आज गाँव में 350 कुएं और एक तालाब है, और पानी की आपूर्ति आसपास के गाँवों को भी की जाती है। इस सफलता ने कृषि उत्पादन में वृद्धि की, पशुधन को बढ़ावा दिया, और ग्रामीणों की आय में भारी वृद्धि हुई, जिससे यह गाँव देश के लिए एक आदर्श बन गया है।

6. जलवायु परिवर्तन और ग्रामों की अनुकूलन क्षमता

ग्रामीण क्षेत्रों पर जलवायु परिवर्तन का सीधा प्रभाव पड़ रहा है — बेमौसम वर्षा, सूखा, फसलों की विफलता, और जल संकट इसके प्रमुख लक्षण हैं। इन चुनौतियों के उत्तर में ग्राम समुदायों को पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक विज्ञान के मेल से समाधान खोजना होगा। जैविक खेती, मिश्रित कृषि प्रणाली, और सामूहिक जल प्रबंधन ऐसे कुछ विकल्प हैं। 

7. ग्राम स्वराज की नई कल्पना: 'ग्राम स्वराज 2.0'

महात्मा गाँधी का 'ग्राम स्वराज' केवल ग्राम स्वशासन नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता, न्याय, और नैतिकता का आदर्श था। आज की डिजिटल और वैश्वीकृत दुनिया में गाँधी के इस विचार को फिर से पढ़ने और लागू करने की आवश्यकता है — लेकिन आधुनिक संदर्भ में।

'ग्राम स्वराज 2.0' का अर्थ होगा:

  • सूचना और तकनीक आधारित स्थानीय अर्थव्यवस्था

  • लिंग और जाति आधारित असमानताओं का सक्रिय उन्मूलन

  • प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व की जीवन पद्धति

  • नीति निर्माण में वास्तविक ग्राम सहभागिता

निष्कर्ष

ग्रामीण विकास एक बहुस्तरीय और बहुपरिमाणीय प्रक्रिया है जिसमें केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आयाम भी शामिल हैं। यह अध्याय इस बात पर बल देता है कि ग्रामीण भारत को केवल 'पिछड़ेपन' के प्रतीक के रूप में नहीं, बल्कि नवाचार, आत्मनिर्भरता और टिकाऊ जीवन पद्धति की प्रयोगशाला के रूप में देखा जाए।

भारत का भविष्य उसके गाँवों में बसता है, और जब तक गाँवों में न्याय, नवाचार और आत्मबल का आलोक नहीं फैलेगा, तब तक कोई भी विकास अधूरा ही रहेगा।


संदर्भ सूची

  1. Planning Commission (1952), First Five-Year Plan, Govt. of India

  2. Dreze, Jean and Amartya Sen (2013), An Uncertain Glory: India and its Contradictions

  3. Gupta, Anil K. (2016), Grassroots Innovation: Minds on the Margin are not Marginal Minds

  4. ITC e-Choupal Case Study, Harvard Business Review (2003)

  5. Rawal, Vikas (2008), Ownership Holdings of Land in Rural India, EPW

  6. Kabeer, Naila (1999), Resources, Agency, Achievements: Reflections on the Measurement of Women's Empowerment

  7. Mathew, George (1994), Panchayati Raj: From Legislation to Movement, ISS

  8. Kudumbashree Mission Reports, Government of Kerala

  9. Singh, Rajendra (2010), Water Warriors: People's Movement for Water in India

  10. Sinha, D. (2006), Hivre Bazar: A Model Village, Ministry of Rural Development

  11. IPCC Report (2022), Impacts, Adaptation and Vulnerability

  12. TERI (2020), Climate Resilience in Indian Villages

  13. Gandhi, M.K. (1946), Hind Swaraj

  14. Jodhka, Surinder S. (2002), Nation and Village: Images of Rural India in Gandhi, Nehru and Ambedkar

साया भी शरमाया


मैंने तुझसे जुदा होकर खुद को ही ग़ैर पाया,
तू गया तो जैसे मेरा साया भी मुझसे शरमाया।


आईनों ने भी पूछा, ये अजनबी है कौन?
हर अक्स ने मेरी आँखों को कुछ और दिखलाया।


लब खामोश थे, मगर दिल चीख-चीख कर बोला,
जिससे वफ़ा की उम्मीद थी, उसी ने ज़हर सुलगाया।


तेरे बाद किसी मोड़ पे ख़ुशियाँ मिली भी तो,
हाथ थामते ही हर ख़ुशी ने दर्द सा क्यों बरसाया?


अब तन्हाई ही मेरा शहर है, और यादें मेरा क़ाफ़िला,
इश्क़ के इस वीराने में, बस मैं हूँ और मेरा साया।


(-डॉ0 बृजेन्द्र कुमार वर्मा)

मंगलवार, अगस्त 20, 2024

ये कविता काम आयेगी याद दिलाने में

माँ का दुपट्बटा जो बदबू से भरा है, 

वही पसीना जिम्मेदार है तुम्हें काबिल बनाने में.


सड़ गया जिस्म माँ का घर में,

क्या शेष रह गया जीवन बिता में.


आज चुप है माँ, बेटे के अफसर बनने पर,

जिसने कभी एलान किया था जमाने में.


चली गयी माँ कुछ शेष न रहा,

अब क्या मिलेगा मुस्कराने में.


औलादों, अपनी माँ की गोद को याद रखना,

उसका भी हिस्सा है, मंजिल दिलाने में.


प्यार, दुलार, समर्पण इसे अपने पास रखना,

काम आएगी नफरत की आग बुझाने में.


मैं वक़्त को रोक तो नहीं सकता लेकिन 

ये कविता काम आयेगी याद दिलाने में 


दोस्तों ऐसा कोई काम न करना 

जो शर्म आये माँ को माँ कहलाने में 


ये साल भी कितना मगरूर है.

 वो शख्श, जो अभी दूर है,

तुम्हें पता ही नहीं कितना मजबूर है.


अब वो रात में बस तारे गिनता है 

जिस पर किताबों का फितूर है.


डरता है, कहीं बदनाम न हो जाए 

उसके पिता को उसपर गुरूर है 


वो चली गयी तो क्या हुआ 

उसकी आँखों में तो मेरा ही नूर है 


चली थी हवा कि सब गुजर जायेगा,

उफ़ | ये साल भी कितना मगरूर है. 


तो करता भी क्या

 मुफलिसी में अपनी जुबां दबा कर आया हूँ,

लौटकर आऊंगा नहीं, ये भी बता के आया हूँ 


मैंने मोहब्बत में हारी हैं कई बाजियाँ,

हाल ही में एक डोली उठा कर आया हूँ 


वो रात अलग थी, ये रात अलग,

दंगों में बच्चों का खून बचा कर आया हूँ


अच्छे अच्छों को रोटी तक नसीब नहीं,

मैं तो ईमानदारी मिट्टी में दबा कर आया हूँ.


 वो तो उसकी यादें हैं, तो दिन गुजर भी जाता है,

वरना कई बार खुद की अर्थी सजा कर आया हूँ.


उन्हीं हरामखोरों ने निकाल दिया बाहर,

जिनको सियासत सिखा कर आया हूँ. 


गम ये नहीं, खुद कर लिया बर्बाद 

ख़ुशी ये है, यही कहानी उसे सुना कर आया हूँ. 


घर से न निकलता, तो करता भी क्या 

मैं अपने घर वालों बहुत सता कर आया हूँ.