(भूजल संकट)
जल संकट के प्रति जागरूकता में मीडिया का योगदान आवश्यक
बृजेन्द्र कुमार वर्मा,
(लेखक- ग्रामीण विकास संचार अध्ययनकर्ता हैं)
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जब आप बैंक से लोन लेते हैं, तो आपको उसका भुगतान
करना ही पड़ता है। यदि आप ऋण चुकाने में आना-कानी भी करते हैं, तो बैंक एक न एक दिन आपसे पाई-पाई का हिसाब ले ही लेता है, वह भी ब्याज सहित। बस यही नियम जल निकासी कर रहे लोगों को सोचना
चाहिए, उन्हें लगता है, प्रकृति कुछ कहेगी
ही नहीं, लेकिन बेवजह और निरंतर जल निकासी कर रहे लोगों को यह भी सोचना
चाहिए कि जिस दिन प्रकृति ने अपना रोद्र रूप दिखाया, तो कुछ नहीं बचेगा।
बड़ी ही गंभीरता के साथ भूजल संकट चर्चाएं हो रही हैं। ऐसा नहीं
है कि समाज में रह रहे पढ़े-लिखे परिवार भूजल संकट को समझते नहीं, परंतु चिंतनीय यह है कि लोग दिए गए सुझावों अथवा नियमों पर अमल
नहीं करते। विभिन्न विषयों के अध्ययनकर्ताओं ने आंकड़ों के एकत्रीकरण में यह पता लगाया
कि जब भी भूजल की समस्या के परिणामों से लोगों को अवगत कराया जाता है तो कई परिवार
ऐसे होते हैं, जो भूजल के लिए स्वयं को जिम्मेवार नहीं समझते। उनका कहना होता
है कि पृथ्वी में हो रहे भूजल संकट उनके अकेले से नहीं हो रहा। उनका उत्तर सही तो हो
सकता है, लेकिन यहां एक तर्क यह भी समझना होगा कि बूंद-बूंद से घड़ा भरता
है। अर्थात जो भी जल निकासी कर रहा है, उन सभी के कारण एक
साथ जो परिणाम सामने आता है, वह है, गिरता भूजल, गहराता जलसंकट।
भारतीय परिप्रेक्ष्य को देखें तो जितना पानी जमीन में जाता है, उससे अधिक पानी जमीन से निकाल लिया जाता है। केंद्रीय भूजल बोर्ड
द्वारा किए गए विश्लेषण से पता चलता है कि मूल्यांकन किए गए कुल क्षेत्र के 16 प्रतिशत में जल की वार्षिक पुनर्भरण मात्रा से वार्षिक निकासी
अधिक है। इससे पता चलता है कि भारत में कई क्षेत्र ऐसे हैं, जहां जल संकट है भी और यह लगातार बढ़ रहा है। यद्यपि कुछ क्षेत्र
ऐसे भी है, जहां बारिश के पानी से निकासी की प्रतिपूर्ति हो जाती है, लेकिन ऐसे क्षेत्र बहुत कम हैं।
वर्षा ऋतु प्रकृति की तरफ से जीव-जंतुओं के लिए वरदान है, जो पूर्णतः अतुल्नीय है, लेकिन इसका नई दुनिया
में दुरुपयोग बढ़ रहा है। यदि कोई शांत है, और आप उसका नाजयज फायदा
उठा रहे हैं, तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह कुछ कर नहीं सकता, जिस दिन मन बदला तो परिणाम भी घातक हो सकते हैं। प्रकृति जितनी
शांत है, उसका रोद्र रूप, उससे अधिक भयानक है।
देश में आजकल जो बाढ़ की स्थिति है, उससे समझा जा सकता
है। यहां बात सिर्फ जो जमीन से पानी लिए जाने मात्र की नहीं है, भारत में जल संचयन के लिए कई प्रयास किए हैं, और लगातार कर भी रही है। लेकिन जब बाढ़ जैसी स्थिति देखी जाती
है, तो लगता है कि प्रयास कागजों में ही रहे। बड़ी ही उत्सुकता से
22 मार्च 2021 को विश्व जल दिवस
के मौके पर प्रधानमंत्री ने ’जल शक्ति अभियान- कैच
द रेन’ अभियान की शुरूआत की। इस अभियान का प्रयास है कि जब भी बारिश
हो और बूंदे जहां गिरे उसका वहीं संचयन किया जाए। किसानों के लिए यह प्रयास लाभदायक
सिद्ध हो सकता है, क्योंकि सर्वाधिक जल उपयोग सिंचाई के माध्यम से कृषि में होता
है।
ऐसा नहीं कि भारत में बारिश की स्थिति ठीक नहीं, अपितु कुल मानसून में वर्षा भरपूर होती है। प्रकृति मानसून में
भारत को एक बार में इतना पानी दे जाती है, जितना वे उस पानी को
सालभर में भी उपयोग नहीं कर सकते। भारत में हर साल औसतन 4000 अरब क्यूबिक मीटर जल वर्षा से प्राप्त होता है, जिसमें से लगभग 1999 बीसीएम नदियों, झीलों, जलाशयों, भूजल और ग्लेशियरों में उपलब्ध जल संसाधन है। भारत की भौगोलिक
स्थिति के कारण कहीं बहुत अधिक वर्षा होती है तो कहीं कम। यही कारण है कि मानसून में
कहीं बाढ़ आ जाती है तो कहीं पानी की कमी हो जाती है। लेकिन जब यह भारत को पता है कि
वर्षा कहां ज्यादा और कहां कम हो रही है तो जल प्रबंधन करने में गंभीरता बरतनी चाहिए।
मान लीजिए, आपके बीमार होने पर
डॉक्टर ने आपको परहेज करने को कहा, आपने डॉक्टर की बात
तो सुन ली, लेकिन घर आकर उस पर अमल नहीं किया, तो होगा यह कि बीमारी आपके शरीर में बनी रहेगी, और दवा का असर भी नहीं होगा। जल पुनर्भरण के मामले में यही स्थिति
है। सब जानते हैं, जल संकट गहराता जा रहा है, लेकिन इसके इलाज पर
किसी का विशेष ध्यान नहीं है। असल में समाज की गंभीरता न होने का एक कारण यह भी है
कि जल का वितरण पूरे देश में एक समान नहीं है। मानसून में कुछ नदियों में बाढ़ आ जाती
है, तो कुछ नदियां, घाटियां सूखा ग्रस्त
हो जाती हैं। यहां जल प्रबंधन की संपूर्ण दक्षता एवं जल संरक्षण की सर्वोच्च व्यवस्था
की आवश्यकता है। ऐसा कर दिया जाए तो बारिश के बाद अधिकतर जल जो समुद्र में चला जाता
है, उसे तो रोका ही जा सकता है, साथ ही जल के असमान
वितरण को भी सुधारा जा सकता है। भारत में वार्षिक जल उपलब्धता लगभग 1999 बिलियन क्यूबिक मीटर है, जिसका संरक्षण नहीं
हो पाता और नदियों में और तालाबों या फिर जमीन में नहीं जा पाता, इस वजह से देश के कई भागों में पानी की किल्लत उत्पन्न होती
रहती है। यद्यपि होना यह चाहिए कि पानी के असमान वितरण पर काम किया जाए, लेकिन सीमित भंडारण क्षमता और अंतर बेसिन स्थानांतरण की कठिनाइयों
के कारण ऐसा नहीं हो पाता,
जबकि जल परिवहन और उपयोग दक्षता में सुधार करना आवश्यक हो गया
है। जल संचयन के लिए कई योजनाएं चल रही हैं, लेकिन जागरूकता न होने
के कारण एवं योजनाओं के प्रति आकर्षण न पैदा कर पाने के कारण जल का पुनर्भरण नहीं हो
पाता।
टीआरपी की होड़ और अखबारों के सर्कुलेशन की प्रतियोगिता ने ऐसी
स्थिति पैदा कर दी कि मीडिया उन्हीं विषयों को उठाती है, जो जनता पढ़ना या देखना चाहती है, सामाजिक सरोकार के विषयों को उठाना हर मीडिया के बस की बात नहीं
रही। लेकिन भारत में आज भी कई मीडिया संस्थान ऐसे हैं, जो बिना किसी प्रतियोगिता के भारत के समुचित विकास को समर्पित
हैं और सामाजिक सरोकार और गंभीर विषयों को उठाते रहते हैं और जनता के प्रहरी बने रहते
हैं। सरकार भी ऐेसे अखबारों और मीडिया संस्थनों का सम्मान करती है।
जल संकट का प्रभाव सर्वाधिक कृषि पर पड़ रहा है। भारत में लगभग
91 प्रतिशत जल की खपत सिंचाई के लिए की जाती है, दूसरे देशों में यह आंकड़ा 30 से 70 प्रतिशत के बीच है। पानी की अपर्याप्त उपलब्धता के कारण कई
छोटे, मझोले किसान कृषि छोड़कर आय सजृन के लिए दूसरे कार्यों में संलग्न
हो रहे हैं। सिंचाई मंहगी हो रही है। ऐसे में सरकार को कृषि से किसानों का जुड़ाव बरकरार
रखना है, तो जल का पुरर्भरण के प्रति गंभीर होना होगा, तालाबों का निर्माण और वर्षा जल भरण करना होगा, झीलों को पुनर्जीवित करना होगा। यदि ऐसा नहीं हो पाता है, तो अध्ययन कि यह संभावना कि 2030 तक भारत के 40 प्रतिशत परिवारों के पास पीने के पानी की उपलबधता समाप्त हो
सकती है, को बल मिलेगा।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार एक व्यक्ति को सबसे बुनियादी
जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रतिदिन कम से कम 50 लीटर जल की आवश्यकता
होती है और जल का स्त्रोत घर में 1 किलोमीटर के भीतर
होना चाहिए और संग्रहण लगभग 30 मिनट से अधिक नहीं
होना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र की सतत विकास लक्ष्य रिपोर्ट 2021 के अनुसार विश्व स्तर पर 2.3 अरब लोग जल की कमी
वाले देशों में रहते हैं और लगभग 2.0 अरब लोगों की सुरक्षित
पेयजल तक पहुंच नहीं है।
वैश्वीकरण को अपनाने के बाद भारत भी जल संकट के प्रति सजग है
और जल संरक्षण और जल प्रबंधन के लिए कई प्रयास किए हैं। जहां भारत में 1950 तक लगभग 380 बड़े बांध थे, वहीं 50 वर्षों में वर्ष 2000 आते आते बांधों की संख्या बढ़कर 3900 हो गई। यह सुनने में अच्छा जान पड़ता है, परंतु कृषि क्षेत्र के लिए यह न्यायोचित स्थिति नहीं कही जा
सकती। कुल जल खपत का 91 फीसदी हिस्सा कृषि में खर्च होता है, शेष 7 फीसदी घरेलू कार्यां
और शेष 2 फीसदी औद्योगिक क्षेत्र में। कृषि की बात करें तो 140 मिलियन हेक्टेयर के कुल बोए गए क्षेत्र में से मात्र 68 मिलियन हेक्टेयर की ही सिंचाई हो पाती है, शेष वर्षा पर निर्भर रहता है। ऐसे में किसान हमेशा भय की स्थिति
में अनाज उगाता है, यदि फसल तैयार होने से पहले सूख गई तो किसान बरबाद हो जाते हैं।
विश्व के विकासशील देशों में विशेषकर पेयजल और स्वच्छता की कमी
है। पीने के पानी को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने भी मनावाधिकार के तुल्य माना है। संयुक्त
राष्ट्र ने ऐसे विकासशील देशों की मदद करने का आह्वान किया है, जहां पानी संकट हैं। भारत में जनसंख्या लगातार बढ़ रही है, शहरीकरण और जलवायु परिवर्तन से जल तनाव भी बढ़ रहा है। निश्चित
ही जल संकट आने वाला है। जल्दी से जल्दी जल संरक्षण, जल संचयन, जल प्रबंधन के लिए कड़े कानून लाने होंगे। जल बर्बादी करने वालों
पर चालान का प्रावधान करना आवश्यक है। सिंचाई पद्धतियों में परिवर्तन की आवश्यकता है, इसके लिए कृषि शिक्षकों की सहायता लेना अनिवार्य है। अब तट रक्षक, वन रक्षक, शिक्षामित्र के पदों
की तरह जल रक्षक या जल मित्र जैसे पदों का सजृन करना चाहिए और इनकी भर्ती करनी चाहिए, ताकि आने वाले समय जल बर्बादी, दुरुपयोग पर कड़ी नजर रखी जाए, साथ ही जल के महत्व
के प्रति जागरूकता लायी जा सके।