डॉ0 बृजेन्द्र कुमार वर्मा
प्लास्टिक प्रदूषण आज दुनिया के सबसे गंभीर पर्यावरणीय
खतरों में से एक है। हर साल लाखों टन प्लास्टिक कचरा हमारे महासागरों, नदियों और ज़मीन पर जमा
हो रहा है, जो सदियों तक अपघटित नहीं होगा। यह न केवल
वन्यजीवों को नुकसान पहुँचा रहा है, बल्कि हमारे
पारिस्थितिकी तंत्र और मानव स्वास्थ्य के लिए भी खतरा बन रहा है। इस विशाल चुनौती
के बीच, वैज्ञानिक समुदाय ने एक अप्रत्याशित, लेकिन
शक्तिशाली सहयोगी की खोज की है, जो है “प्लास्टिक खाने वाले फंगस”। इस सूक्ष्मजीव ने
अपनी अप्रत्याशित और अनूठी क्षमताओं से पूरी दुनिया को चौंका दिया है, क्योंकि ये प्लास्टिक
प्रदूषण से निपटने की हमारी लड़ाई में एक नई आशा लेकर आए हैं। और इसमें प्रेस को
भी पीछे नहीं रहना है, जबकि पूरी दुनिया जानती है कि प्रेस की ताकत क्या है।
पॉलीइथाइलीन टेरेफ्थेलेट (PET), पॉलीइथाइलीन (PE),
पॉलीप्रोपाइलीन (PP) और पॉलीस्टाइरीन (PS)
जैसे प्लास्टिक हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा बन गए हैं। पानी की
बोतलों से लेकर पैकेजिंग और कपड़ों तक। प्लास्टिक की कुछ बहुमुखी प्रतिभा ने उन्हें
औद्योगिक क्रांति का एक महत्वपूर्ण घटक बना दिया है, लेकिन यही गुण उन्हें
पर्यावरण के लिए भी एक खतरा बनाते हैं। पारंपरिक रीसाइक्लिंग विधियाँ महँगी होती
हैं और अक्षम भी हो सकती हैं, और प्लास्टिक का एक बड़ा
हिस्सा अंततः हमारे प्राकृतिक वातावरण में पहुँच जाता है। यहाँ वे
माइक्रोप्लास्टिक में टूट जाते हैं, जो मिट्टी और पानी में
प्रवेश कर खाद्य शृंखला का हिस्सा बन जाते हैं, जिसके
दीर्घकालिक प्रभावों को हम अभी पूरी तरह से समझ भी नहीं पाए हैं। इस गंभीर स्थिति
में, वैज्ञानिकों ने प्रकृति की गोद में पल रहे इस फंगस से
परिचय कराया जिसके लिए प्रकृति का जितना धन्यवाद किया जाए, वो कम ही होगा। क्या कोई
सूक्ष्मजीव ऐसे हैं, जो प्लास्टिक जैसे जटिल बहुलकों को तोड़ सकते हैं? जवाब है, हाँ।
यह इतिहास ज्यादा पुराना नहीं है। बात 2011 की
है। बताया जाता है कि येल विश्वविद्यालय के कुछ शोधकर्ता इक्वाडोर के अमेज़न वर्षावन में एक शोध ट्रिप पर गए हुए थे। यहाँ शोधकर्ताओं ने पेस्टालोटिओप्सिस माइक्रोस्पोरा (Pestalotiopsis microspora) नामक एक फंगस की
खोज करके दुनिया को चौंका दिया। इस फंगस में पॉलीयूरेथेन (PU) को ऑक्सीजन-रहित वातावरण में भी विघटित करने की क्षमता थी। यह एक बड़ी
सफलता थी, क्योंकि लैंडफिल (भूक्षेत्र जहाँ बड़ी मात्रा में अपशिष्ट पदार्थ गाड़ दिए
जाते हैं) में प्लास्टिक अक्सर बिना ऑक्सीजन के ही पड़ा रहता है। यह
खोज प्लास्टिक-खाने वाले सूक्ष्मजीवों के अध्ययन में एक मील का पत्थर साबित हुई। इस प्रारंभिक
सफलता के बाद, दुनिया भर के शोधकर्ता सक्रिय हो गए। उन्होंने विभिन्न प्रकार के फंगस की
पहचान की जो अलग-अलग प्लास्टिक को तोड़ने में सक्षम हैं। इनमें कुछ प्रमुख फंगस एस्परगिलस
ट्यूबिंगेंसिस (Aspergillus tubingensis), फेनरोचेट क्राइसोस्पोरियम (Phanerochaete chrysosporium) आदि हैं। इसमें एस्परगिलस ट्यूबिंगेंसिस फंगस पॉलीइथाइलीन (PE) को तोड़ने के लिए जाना जाता है, जो दुनिया में सबसे
अधिक इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक में से एक है। यह कटिन हाइड्रोलेस जैसे एंजाइमों
का स्राव करता है, जो PE को छोटे एवं आसानी से विघटित होने
वाले टुकड़ों में तोड़ देते हैं। इधर फेनरोचेटे क्राइसोस्पोरियम सफेद सड़ा हुआ कवक के रूप में जाना जाता है, जो लकड़ी के जटिल घटक,
लिग्निन को तोड़ने की अपनी क्षमता के लिए प्रसिद्ध है। शोध से पता चला
है कि यह पॉलीयूरेथेन और पॉलीइथाइलीन सहित कुछ प्लास्टिक को भी प्रभावी ढंग से
विघटित कर सकता है।
इन फंगस की गुप्त शक्ति उनके द्वारा
उत्पादित एंजाइमों में निहित है। ये सूक्ष्म प्रोटीन फंगस की कोशिकाओं से बाहर
निकलते हैं और प्लास्टिक बहुलक की लंबी, स्थिर शृंखलाओं पर रासायनिक रूप से हमला
करते हैं। वे इन शृंखलाओं को छोटे, घुलनशील अणुओं में तोड़
देते हैं। एक बार जब प्लास्टिक के टुकड़े छोटे हो जाते हैं, तो
फंगस उन्हें अपनी कोशिकाओं में अवशोषित कर लेते हैं और उन्हें अपनी वृद्धि और
ऊर्जा के लिए उपयोग करते हैं। इस प्रक्रिया को जैव-अपघटन (Biodegradation) कहा जाता है। यह एक प्राकृतिक और पर्यावरणीय रूप से टिकाऊ तरीका है, जिससे
प्लास्टिक को उसके मूल घटकों में तोड़ा जा सकता है, जिससे
हानिकारक सह-उत्पाद (By-products) का उत्पादन नहीं होता।

ये बात बड़ी अचंभित करने वाली है कि जबकि
पूरी दुनिया प्लास्टिक कचड़े से परेशान है, वह इस तरह की आशावादी खोज के बाद भी
प्रेस में वो उत्साह नजर नहीं आया जैसा की आना चाहिए। इन फंगस पर वैज्ञानिक तो काम
कर ही रहे हैं, पर प्रेस को भी उसी उत्साह और जूनून के साथ लिखना चाहिए। प्रथम और
द्वितीय विश्वयुद्ध में प्रेस ने अपनी भूमिका निभाई और तमाम देशों की जनता की
स्थिति को बताया। भारत को ही ले लीजिए, भारत की आजादी से लेकर विकास में प्रेस ने
अपना योगदान दिया है। हालांकि भारतीय भाषा में विज्ञान की बातों को प्रकाशित करने
में प्रेस के हाथ तंगी में रहते हैं, उसका भी एक विशेष कारण विज्ञान पत्रकारों का
अभाव है, लेकिन फिर भी जितना हो सके विज्ञान को सरल और बोलचाल की भाषा में जितना
प्रेषित किया जाए उतना ही जनता का लगाव इस और बढ़ेगा। विकासशील देशों को तो ऐसे
फंगस पर विशेष रूप से काम करना चाहिए। वैज्ञानिकों को भी और प्रेस को भी। प्रेस ये
तो खूब प्रकाशित कर रहा है कि प्लास्टिक किस तरह से पर्यावरण और स्वास्थ्य को
प्रभावित कर रहा है, परंतु ये प्रकाशित करने मे पीछे क्यों कि इस तरह के फंगस को
विकासशील देशों के पर्यावरण के लिए अनुकूल बनाया जाए तो स्थिति कुछ बेहतर हो सकती
है। प्रेस का काम सिर्फ खबरें देने का ही नहीं, बल्कि जागरूक और उत्साहित करने का
भी है। वैज्ञानिकों की अपनी सीमाएँ होती है, समाज में वे उतने सक्रिय नहीं होते,
जितने वे अपनी प्रयोगशाला में होते हैं। ऐसे में समझाने का काम स्वयं प्रेस का हो
जाता है।
प्लास्टिक खाने वाले फंगस की खोज ने
प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने के लिए एक नया और रोमांचक मार्ग खोल दिया है। क्योंकि
यह पारंपरिक तरीकों की तुलना में कम ऊर्जा और हानिकारक रसायनों का उपयोग करता है। अलग-अलग
फंगस विभिन्न प्रकार के प्लास्टिक को तोड़ सकते हैं, जिससे एक व्यापक समाधान संभव है। इसके
अलावा बहुत ही कम लागत में बड़े पैमाने पर औद्योगिक अनुप्रयोगों के लिए यह प्रभावी
विकल्प साबित हो सकता है। उन क्षेत्रों में, जहाँ प्लास्टिक कचरा जमा होता है और
पहुँच कठिन है, वहाँ इसका उपयोग किया जा सकता है। प्रेस को
चाहिए कि इस पर खूब लिखे। सरकार, उद्योगपतियों, उद्यमियों आदि को इस और आकर्षित
करे। जनता को जागरूक करे ताकि जनता सरकारों पर दबाव बना सके और इस तरह हम
प्लास्टिक कचड़े के अंत के लिए एक नए आंदोलन को जन्म दे सकें। हालांकि अभी भी कुछ चुनौतियाँ
सामने हैं, जैसे वर्तमान में, प्लास्टिक का जैव-अपघटन एक
अपेक्षाकृत धीमी प्रक्रिया है। औद्योगिक पैमाने पर इसे तेज़ करने के लिए अधिक शोध
की आवश्यकता है। इसके अलावा कुछ फंगस को प्लास्टिक को प्रभावी ढंग से तोड़ने के
लिए विशिष्ट तापमान, आर्द्रता और पोषक तत्वों की स्थिति की
आवश्यकता होती है। हालांकि वैज्ञानिक इन प्लास्टिक के जैव-अपघटन के अंतिम उत्पादों
और पर्यावरण पर उनके संभावित दीर्घकालिक प्रभावों के बारे में पूरी समझ विकसित
नहीं कर पाएँ हैं, ऐसे में इसे भी जानना जरूरी है। वैज्ञानिक अब एंजाइम
इंजीनियरिंग के माध्यम से इन फंगस की क्षमताओं को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित कर रहे
हैं, ताकि वे अधिक तेज़ी से और कुशलता से प्लास्टिक को तोड़
सकें।
प्लास्टिक खाने वाला फंगस एक वैज्ञानिक
चमत्कार हैं, जो हमें हमारे ग्रह को बचाने के लिए एक शक्तिशाली उपकरण प्रदान कर
सकते हैं। हालाँकि यह एक अंतिम समाधान नहीं है और प्लास्टिक के उत्पादन और खपत को
कम करना अभी भी महत्वपूर्ण है। ये सूक्ष्मजीव हमें एक स्थायी भविष्य की ओर बढ़ने
में मदद करने की अपार क्षमता रखते हैं। यह एक रोमांचक क्षेत्र है, जहाँ नवाचार
हमें प्लास्टिक-मुक्त दुनिया के करीब ला सकता है और इन सब में प्रेस को हर बार की
तरह अहम भूमिका निभानी है।
(लेखक जनसंचार के व्याख्याता हैं।)
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