वो शख्श, जो अभी दूर है,
तुम्हें पता ही नहीं कितना मजबूर है.
अब वो रात में बस तारे गिनता है
जिस पर किताबों का फितूर है.
डरता है, कहीं बदनाम न हो जाए
उसके पिता को उसपर गुरूर है
वो चली गयी तो क्या हुआ
उसकी आँखों में तो मेरा ही नूर है
चली थी हवा कि सब गुजर जायेगा,
उफ़ | ये साल भी कितना मगरूर है.
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