जैसे हर जिले में हर विभाग का सबसे बड़ा अधिकारी होता है, अब वैसे ही पत्रकारिता के स्तर को ठीक करने के लिए एक जिले का जिला पत्रकार अधिकारी बनाने की जरूरत है जो सीधे केंद्र का प्रतिनिधित्व करे. जैसे जिला कलेक्ट्रेट, जिला शिक्षा अधिकारी, जिला आबकारी अधिकारी, जिला स्वास्थ्य अधिकारी, जिला आपूर्ति अधिकारी, जिला विद्युत् अधिकारी आदि, वैसे ही अब जरूरत है कि पत्रकारिता में भी जिला स्तर कर सबसे बड़ा पद का सर्जन किया जाए जो जिला पत्रकार अधिकारी हो, जिसकी जिम्मेवारी प्रेस और मीडिया से संबधित सभी कार्यों की जिम्मेवारी हो.
एक महत्वपूर्ण निर्णय प्रेस से सम्बंधित यह भी लेना होगा कि प्रेस से संबधित हर क्षेत्र में सरकारी/प्राइवेट नौकरियों कासृजन किया जाए. देश सभी जिलों में जिला प्रत्रकार हो. इसकी जिम्मेवारी होगी की यह जिले से प्रकाशित हर खबर पर नजर रखे और यदि कोई पत्रकार गलत खबर लिखता है या अन्धविश्वासी खबर हो तो तत्काल उस पर कार्यवाही कर सके. उसे बर्खास्त कर सके. उसका वेतन रोकना आदि जैसे अधिकार उसे प्राप्त हों. अभी इस तरह की जिम्मेवारी जिला कलेक्टर के पास है.
जिले का जिम्मेवार हो
जब जिले में आपूर्ति सम्बन्धी कोई कमी होती है या शिकायत होती है तो जिले का आपूर्ति विभाग का जिला अधिकारी कार्यवाही करता है, जब किसी स्कूल में कोई घटना घटती है तो उसका जिम्मेवार जिला शिक्षा अधिकारी होता है. ऐसे ही अब जिला पत्रकार अधिकारी होना चाहिए जो जिले के प्रत्येक पत्रकार का और उसकी ख़बरों का जिम्मेवार हो.
जब जिले में आपूर्ति सम्बन्धी कोई कमी होती है या शिकायत होती है तो जिले का आपूर्ति विभाग का जिला अधिकारी कार्यवाही करता है, जब किसी स्कूल में कोई घटना घटती है तो उसका जिम्मेवार जिला शिक्षा अधिकारी होता है. ऐसे ही अब जिला पत्रकार अधिकारी होना चाहिए जो जिले के प्रत्येक पत्रकार का और उसकी ख़बरों का जिम्मेवार हो.
देश के हर जिले के हर विभाग में एक पत्रकार हो
अब वक़्त आ गया कि जिले में कार्यरत हर विभाग में एक पत्रकार की पोस्ट होनी ही चाहिए. इससे होगा ये तमाम सूचनाओं से संबधित कार्य विभाग का पत्रकार करेगा. अभी होता ये है की बिजली कट गयी तो फ़ोन बिजली विभाग के सीधे अधिकारी को कर देते हैं, जबकि अधिकारी से पास पहले से ही बहुत काम होता है, ये अधिकारी अपना विषय पढ़कर आते हैं, जनसंचार की पढाई करने वाला ही जानता है कि जनता से जन संचार कैसे किया जाए.
आज कल अधकारियों के प्रति, पुलिस के प्रति, राजनेताओं के प्रति जनता में अराजकता का भाव आ रहा है. यह और कुछ नहीं, सिर्फ और सिर्फ जन संचारकों की कमी की वजह से है.
मंत्री, सांसद, विधायक को दिया जाए पत्रकार
हर मंत्री, सांसद, विधायक की टीम में सरकारी मीडिया कर्मी होना चाहिए जिसके पास जन संचार की डिग्री हो, जो जनता और जन प्रतिनिधि के बीच में पुल का काम करे. अभी तक यह काम वे लोग करते हैं जो जन संचार को कभी पढ़े भी नहीं होंगे. ऐसे में जन प्रतिनिधि और जनता के बीच जो खायी है उसे भरना बहुत मुश्किल है, जनता अपने जनप्रतिनिधि से मिल नहीं पाती, इस खायी को सिर्फ एक पत्रकार ही भर सकता है. एक विकासशील देश के लिए ऐसी खायी विकास में बड़ी रुकावट की तरह है.
हर मंत्री, सांसद, विधायक की टीम में सरकारी मीडिया कर्मी होना चाहिए जिसके पास जन संचार की डिग्री हो, जो जनता और जन प्रतिनिधि के बीच में पुल का काम करे. अभी तक यह काम वे लोग करते हैं जो जन संचार को कभी पढ़े भी नहीं होंगे. ऐसे में जन प्रतिनिधि और जनता के बीच जो खायी है उसे भरना बहुत मुश्किल है, जनता अपने जनप्रतिनिधि से मिल नहीं पाती, इस खायी को सिर्फ एक पत्रकार ही भर सकता है. एक विकासशील देश के लिए ऐसी खायी विकास में बड़ी रुकावट की तरह है.
सूचना एवं जनसंपर्क विभाग नाकाफी
हमारे देश में हर जिले में, बाकी तीनो स्तंभों से जुड़े अधिकारी/प्रतिनिधि मिलते हैं लेकिन, विभागों में पत्रकार नहीं मिलते. हालाँकि जिले में जनसंपर्क विभाग होता है, जिसे देश की 3 तिहाई आबादी जानती तक नहीं. और बाकी विभागों में जनसंपर्क विभाग वह व्यक्ति संभालता है जिसने कभी जन संपर्क नहीं पढ़ा होता. रेलवे, बस अड्डे में जाइये और उनके बात करने का लहजा देखिये और उसे रिकॉर्ड करके लोगों को सुनाइए और चर्चा कीजिये. अस्पतालों में भी जनसंपर्क का काम कोई डॉक्टर ही देखता है. ऐसे में प्रेस की गंभीरता को समझना चाहिए. हालांकि कई जगह अब एक पोस्ट के लिए पत्रकारिता में डिग्री मांगने लगे है, लेकिन ये क्षद्म स्तर पर ही है.
प्रेस/मिडिया में भर्ती के समय नहीं होती मानसिक परीक्षा
जब आई0आई0टी0, आई0आई0एम० या छोटे संस्थानों से भी कोई प्लेसमेंट होता है तो उनका फिटनेस सर्टिफिकेट भी माँगा जाता है. लेकिन अख़बारों और मीडिया में ऐसा देखने को नहीं मिलता. जबकि प्रेस/मीडिया में जिसे नौकरी दी जा रही है उसका मानसिक संतुलन अवश्य चेक करना चाहिए. हमारे देश की जनसँख्या 1,30,00,00,000 से भी ज्यादा है, ऐसे में यहाँ के पत्रकारों की मानसिक स्थिति कैसी है इसका विशेष ध्यान रखना चाहिए. क्योंकि इसका सीध असर देश पर ही पड़ता है.
समय समय पर हो पत्रकारों की काउन्सलिंग
आपने सुना होगा समय समय पर अधिकारीयों के लिए कार्यशाला आयोजित की जाती है, जिसमें उन्हें उनके काम के दवाब के साथ कैसे समायोजन करना है, अपना ध्यान रखना है आदि सिखाया जाता है. लेकिन पत्रकारिता में ऐसा शायद ही कहीं होता हो. अभी हाल ही में दलित दस्तक के सम्पादक ने भरत रत्न बाबा साहेब डॉ भीम राव अम्बेडकर के प्रथम अख़बार "मूकनायक" एक 100 वर्ष पूरे होने पर आयोजन किया था, जिसमे देश भर के पत्रकार, समाज चिंतक आदि को आमंत्रित किया गया था, जिसमें पत्रकारिता से सम्बंधित चर्चा भी हुयी. कई राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय अखबार समय समय पर कार्यक्रम आयोजित करती है जिसमें आम जनता की भी सहभागिता होती है लेकिन, देखा जाए तो विशेष तौर पर सिर्फ पत्रकारों से सम्बंधित कोई विशेष कार्यक्रम आयोजित नहीं किया जाता जिसमें उनके स्वास्थ्य सम्बन्धी, मानसिक या किसी भी प्रकार की काउंसलिंग नहीं की जाती. सवा सौ करोड़ की जनता के लिए विभिन्न राज्यों में विभिन्न अखबार प्रकाशित न्यूज़ चैनल प्रसारित किये जा रहे हैं, लेकिन उनके लिए काम करने वालो की परिस्थितियों पर किसी प्रकार की चर्चा नहीं होती.
पत्रकार अब समाजसेवी नहीं एक पद है.
ऐसा इसलिए है कि अभी तक पत्रकार को समाज सेवी समझा जा रहा है, लेकिन भारत के वैश्विक होने के बाद अब ऐसा नहीं रहा. पत्रकार भी किसी न किसी संसथान से जुड़ा होता है, जिसमें किसी कंपनी की तरह के ही नियम लागू होते हैं. जैसे एक कर्मचारी एक कंपनी में काम करता है तो वह दूसरी कंपनी में काम नहीं कर सकता. दोहरी आमदनी का काम नहीं करेगा. कंपनी में किये जाने वाले काम की जानकारी सार्वजनिक नहीं करेगा आदि. इसी तरह से पत्रकार पर भी कुछ नियम लागू होते हैं, वह अपने संस्थान के लिए लिखी खबर को अन्य अखबार को न देगा, न बेचेगा. दो अखबारों में काम नहीं कर सकता. पत्रकारिता की नौकरी के साथ कोई अन्य काम नहीं कर सकता. टैक्स के दायरे में आएगा.
अब जबकि एक पत्रकार कानूनी नियमों का पालन कर रहा है तो उसे समाज सेवी नहीं समझना चाहिए. उसकी एक पोस्ट होती है, उसका भी प्रोमोशन होता है, यदि कोई समाज सेवी है तो वह आजीवन समाज सेवी ही रहेगा. समाजसेवियों का कोई प्रोमोशन नहीं होता. तमाम तर्क यह सिद्ध करते हैं की पत्रकार को समाज सेवी नहीं मन जाना चाहिए, वह एक व्यावसायिक नौकरी (प्रोफेशनल जॉब) है, जिसमें काम के बदले निर्धारित आय प्राप्त होती है. पत्रकार के पास अपे संस्थान का पहचान पत्र (आई0डी0) होता है, जैसे अन्य कंपनी अपने कर्मचारी को देती हैं. वह भी टैक्स भरता है.
समय समय पर हो पत्रकारों की काउन्सलिंग
आपने सुना होगा समय समय पर अधिकारीयों के लिए कार्यशाला आयोजित की जाती है, जिसमें उन्हें उनके काम के दवाब के साथ कैसे समायोजन करना है, अपना ध्यान रखना है आदि सिखाया जाता है. लेकिन पत्रकारिता में ऐसा शायद ही कहीं होता हो. अभी हाल ही में दलित दस्तक के सम्पादक ने भरत रत्न बाबा साहेब डॉ भीम राव अम्बेडकर के प्रथम अख़बार "मूकनायक" एक 100 वर्ष पूरे होने पर आयोजन किया था, जिसमे देश भर के पत्रकार, समाज चिंतक आदि को आमंत्रित किया गया था, जिसमें पत्रकारिता से सम्बंधित चर्चा भी हुयी. कई राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय अखबार समय समय पर कार्यक्रम आयोजित करती है जिसमें आम जनता की भी सहभागिता होती है लेकिन, देखा जाए तो विशेष तौर पर सिर्फ पत्रकारों से सम्बंधित कोई विशेष कार्यक्रम आयोजित नहीं किया जाता जिसमें उनके स्वास्थ्य सम्बन्धी, मानसिक या किसी भी प्रकार की काउंसलिंग नहीं की जाती. सवा सौ करोड़ की जनता के लिए विभिन्न राज्यों में विभिन्न अखबार प्रकाशित न्यूज़ चैनल प्रसारित किये जा रहे हैं, लेकिन उनके लिए काम करने वालो की परिस्थितियों पर किसी प्रकार की चर्चा नहीं होती.
पत्रकार अब समाजसेवी नहीं एक पद है.
ऐसा इसलिए है कि अभी तक पत्रकार को समाज सेवी समझा जा रहा है, लेकिन भारत के वैश्विक होने के बाद अब ऐसा नहीं रहा. पत्रकार भी किसी न किसी संसथान से जुड़ा होता है, जिसमें किसी कंपनी की तरह के ही नियम लागू होते हैं. जैसे एक कर्मचारी एक कंपनी में काम करता है तो वह दूसरी कंपनी में काम नहीं कर सकता. दोहरी आमदनी का काम नहीं करेगा. कंपनी में किये जाने वाले काम की जानकारी सार्वजनिक नहीं करेगा आदि. इसी तरह से पत्रकार पर भी कुछ नियम लागू होते हैं, वह अपने संस्थान के लिए लिखी खबर को अन्य अखबार को न देगा, न बेचेगा. दो अखबारों में काम नहीं कर सकता. पत्रकारिता की नौकरी के साथ कोई अन्य काम नहीं कर सकता. टैक्स के दायरे में आएगा.
अब जबकि एक पत्रकार कानूनी नियमों का पालन कर रहा है तो उसे समाज सेवी नहीं समझना चाहिए. उसकी एक पोस्ट होती है, उसका भी प्रोमोशन होता है, यदि कोई समाज सेवी है तो वह आजीवन समाज सेवी ही रहेगा. समाजसेवियों का कोई प्रोमोशन नहीं होता. तमाम तर्क यह सिद्ध करते हैं की पत्रकार को समाज सेवी नहीं मन जाना चाहिए, वह एक व्यावसायिक नौकरी (प्रोफेशनल जॉब) है, जिसमें काम के बदले निर्धारित आय प्राप्त होती है. पत्रकार के पास अपे संस्थान का पहचान पत्र (आई0डी0) होता है, जैसे अन्य कंपनी अपने कर्मचारी को देती हैं. वह भी टैक्स भरता है.
पत्रकरों की भी लिखी जानी चाहिए CR
जिस तरह से तमाम अधिकारियों की CR (चरित्र रजिस्टर) लिखी जाती है, बिल्कुल वैसे ही पत्रकारों की CR लिखी जानी चाहिए, इससे उनमें डर बना रहेगा कि गलत खबर दिखाने पर उनके चरित्र पर क्या प्रभाव पड़ेगा. एक दो अख़बारों को छोड़ दिया जाए तो शायद ही कोई अख़बार गलती प्रकाशित हो जाने पर माफ़ी मांगता है.
जिस देश में धार्मिक कट्टरता, पाखण्डवाद, सैकड़ों जातियां, अन्धविश्वास जैसी चीजों से जड़ें जमा रखी हों, वहां एक छोटी सी गलती नरसंहार, दंगे, झगड़े-फसाद, जातिगत हिंसा आदि करवा देती है, जिसके कई उदहारण हमारे सामने हैं. ऐसे में पत्रकारिता की जिम्मेवारी बहुत ही गंभीर हो जाती है.
नये प्रेस आयोग की हो स्थापना
भारत की आज़ादी के कुछ समय बाद 1952 में प्रेस आयोग की स्थापना की गयी थी, फिर 1978 में, जिसे दोबारा गठित किया 1980 में. ऐसे में 40 साल हो रहे हैं.
इन चालीस सालों में 2 पीढ़ी जवान हो गयीं हैं, टीवी रंगीन हो गये हैं, अख़बारों के पन्ने बढ़ गये, छपाई की गुणवत्ता बेहतर हो गयी, रेडियो में एफ0एम0 भी जुड़ गया, तकनीकी जबर्दस्त तरीके से फैली. हर काम कंप्यूटर से होए लगे. मोबाइल के रूप में दुनिया मुट्ठी में आ गयी. भारत खुली अर्थव्यवस्था बन गया.
इतना सब कुछ बदल जाने के बाद अब नये प्रेस आयोग का गठन होना जरूरी हो गया है. जीवन का तरीका बदला है, नजरिया बदला है, पहनावा, खान पान, व्यवहार आदि में भी परिवर्तन है ऐसे में पत्रकारिता भी बदली है.
इस बदली पत्रकारिता के लिए नये आयोग को आना चाहिए और नये ज़माने और लगातार परिवर्तित होती तकनीकी के अनुसार नियमन कर करना चाहिए.
जिस देश में धार्मिक कट्टरता, पाखण्डवाद, सैकड़ों जातियां, अन्धविश्वास जैसी चीजों से जड़ें जमा रखी हों, वहां एक छोटी सी गलती नरसंहार, दंगे, झगड़े-फसाद, जातिगत हिंसा आदि करवा देती है, जिसके कई उदहारण हमारे सामने हैं. ऐसे में पत्रकारिता की जिम्मेवारी बहुत ही गंभीर हो जाती है.
नये प्रेस आयोग की हो स्थापना
भारत की आज़ादी के कुछ समय बाद 1952 में प्रेस आयोग की स्थापना की गयी थी, फिर 1978 में, जिसे दोबारा गठित किया 1980 में. ऐसे में 40 साल हो रहे हैं.
इन चालीस सालों में 2 पीढ़ी जवान हो गयीं हैं, टीवी रंगीन हो गये हैं, अख़बारों के पन्ने बढ़ गये, छपाई की गुणवत्ता बेहतर हो गयी, रेडियो में एफ0एम0 भी जुड़ गया, तकनीकी जबर्दस्त तरीके से फैली. हर काम कंप्यूटर से होए लगे. मोबाइल के रूप में दुनिया मुट्ठी में आ गयी. भारत खुली अर्थव्यवस्था बन गया.
इतना सब कुछ बदल जाने के बाद अब नये प्रेस आयोग का गठन होना जरूरी हो गया है. जीवन का तरीका बदला है, नजरिया बदला है, पहनावा, खान पान, व्यवहार आदि में भी परिवर्तन है ऐसे में पत्रकारिता भी बदली है.
इस बदली पत्रकारिता के लिए नये आयोग को आना चाहिए और नये ज़माने और लगातार परिवर्तित होती तकनीकी के अनुसार नियमन कर करना चाहिए.
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