बात उस समय की है, जब मैंने पत्रकारिता की डिग्री हांसिल कर प्रेस में गया था. दुनिया नयी थी और काम भी. राज एक्सप्रेस में पहली नौकरी मिली और उप सम्पादक का पद भी मिला. काम सीखने की रफ़्तार तेज थी, जूनून और डिग्री सर चढ़कर बोल रही थी. उसी दौरान वरिष्ठ पत्रकार विश्वेश्वर शर्मा सर राज एक्सप्रेस में एक स्टेड हेड के पद पर आये और मेरे कैरियर में बदलाव आने शुरू हो गये. शर्मा सर की एक बहुत ख़ास बात ये थी की शीले सर की तरह ये भी उन पत्रकारों पर ध्यान देते थे, जिनमें पत्रकारिता के प्रति समर्पण और विश्वास के साथ लग्न हो. मुझे याद है, जब मैं राज एक्सप्रेस में था, तो "विशु" सर (प्यार से सब उन्हें विशु सर कहते थे) ऑफिस में हर प्रांतीय डेस्क पर जाते थे और ये देखते थे कौन कितनी लग्न से काम कर रहा है. यही वो समय होता था जब वे और शीले सर जांचते थे कि कौन आगे बढ़ाने लायक है. मैं अपने काम को लेकर बहुत सजग था. मेरे रिश्तेदारों में आज भी कोई पत्रकार या पत्रकारिता जगत से नहीं है. मुझे अपने रिश्तेदारों में अपने पर गर्व होता था कि मैंने पत्रकारिता में आकर अपने दादा जी और नाना जी का सपना पूरा किया है. ऐसे में पहली नौकरी राज एक्सप्रेस में मन लगाकर काम करता था.
विशु सर की एक और ख़ास बात थी कि वे पत्रकार को समय समय पर परखते थे. जैसे जब भी कोई इंचार्ज छुट्टी पर चला जाता था तो उसका कार्यभार वे पुराने खिलाड़ी को न देकर नये पत्रकारों को देते थे. ऐसे में यदि वो नया उस जिम्मेदारी में खरा उतरता तो समझो उसका प्रमोशन पक्का. मुझे आज भी याद है, जब एक इंचार्ज छुट्टी पर गये तो मेरे डेस्क इंचार्ज को फ़ोन आया और इंचार्ज ने कहा, "बृजेन्द्र तुम्हें विशु सर ने बुलाया है." मेरा तो दिल ही बैठ गया. क्योंकि स्टेड हेड का फ़ोन आने का मतलब उस समय ये होता था कि अख़बार में गलती छप गयी है, और उप सम्पादक की खटिया खड़ी होने वाली है.
मैं उस समय समझा कि मुझसे कोई गलती हो गयी है और डांट पड़ेगी. कलेजा संभालते हुए उनके केबिन में गया, चेहरे के तोते तो उड़ रखे थे, लेकिन विशु सर की उस प्रतिभा से मैं उस समय परिचित नहीं था, सो जैसे ही मैं उनके कैबिन में गया, विशु सर मुस्कुराए और बोले, "बिजेन (सर मुझे बृजेन्द्र की जगह प्यार से बिजेन कहते थे) आज तू अपकंट्री का चार्ज संभालेगा." मेरा दिल तो जोर से धड़कने लगा. चेहरे पर हलकी मुस्कान और दिल में उमंग जागी. ऐसा लगा जैसे किसी ने छत्रपति साहू जी महाराज की तलवार हाथ में दे दी हो. जीवन में कभी सोचा भी नहीं था, मात्र 1 साल में मुझे किसी डेस्क का इंचार्ज भी बनाया जा सकता है. विशु सर ने एक दो बार और ऐसा किया और मेरी सफलता पर मुझे प्रोमट कर दिया गया और मुझे बनाया दिया डेस्क इंचार्ज. इस पर कई लोगों की भृकुटी तन गयी. उस समय राज एक्सप्रेस का सबसे कम उम्र का डेस्क इंचार्ज बना. ये सिर्फ विशु सर और शीले सर का आशीर्वाद और उनकी परख का नतीजा ही था. ऐसा ही कुछ और "नये चावलों" के साथ किया गया. राज एक्सप्रेस अख़बार को लेकर भी बड़े बदलाव हो रहे थे. अखबार का रंग, फॉण्ट, साइज़ सम्बन्धी भी उसी दौरान बड़े निर्णय लिए जा रहे थे. सर्कुलेशन में बदलाव देखा जाने लगा. अखबार ने प्रसार में जोर पकड़ा तो प्रबंधन ने नये पदों का सृजन किया, जिसे भरने की जिम्मेदारी एडिटोरियल बोर्ड को दी गयी. राज एक्सप्रेस में निकली भर्ती के लिए मुझे भी भर्ती बोर्ड का सदस्य बनाया गया. ये मेरी एक और उपलब्धि थी.
भर्ती प्रक्रिया पूरी होने के कुछ महीने बाद विशु सर ने एक और मास्टर स्ट्रोक खेला जिसे मैं जिन्दगी में नहीं भूलूंगा. ये मास्टर स्ट्रोक था स्टेड हेड और पूरे डेस्क के बीच की कड़ी का पद.अभी तक सभी इंचार्ज का हेड स्टेड हेड हुआ करता था, लेकिन काम को और आसान बनाने और अच्छे समन्वय (co-ordination) के लिए एक स्टेड कोर्डिनेटर पद सृजित किया गया. उस समय शीले सर राज एक्सप्रेस के ग्रुप हेड थे और विशु सर स्टेट हेड. बड़े पदों के निर्णय, प्रबंधन, विभिन्न हेड, महत्वपूर्ण अधिकारी आदि लेते थे.
ऐसे में स्टेड कोर्डिनेटर के पद को भरने के लिए अख़बार के सभी इंचार्ज की मीटिंग बुलाई गयी, गरमा गर्मी देख पद भरने की तिथि को टाल दिया गया. और कुछ दिन बीतने के बाद विशु सर ने सीधा मास्टर स्ट्रोक खेला और मेरा नाम स्टेड कोर्डिनेटर के पद के लिए प्रस्तावित कर गया.
ऑफिस में खलबली मच गयी. बृजेन्द्र कॉर्डिनेट करेगा. मैं ऑफिस पहुंचा तो कुछ लोग चुपचाप बधाई देने लगे. जैसे जैसे शाम होती गयी माहौल गर्म हो गया. बड़े पदाधिकारी और कई पुराने मझे हुए पत्रकारों ने अपना मत रखा. बहरहाल अंत में इस पद को वापस हटाना पड़ा और ऑफिस के माहौल को ठीक किया गया. वैसे भी मुझे लगता है इतनी बड़ी जिम्मेदारी में संभल नहीं सकता था, क्यूंकि अनुभव की कमी थी. लेकिन जब भी वे दिन याद करता हूँ तो विशु सर और शीले सर की याद आ जाती है.
देश में पत्रकारिता की बात की जाती है तो हमेशा उदहारण उन्हीं पत्रकारों के दिए जाते हैं जिन्होंने अपने समय में संघर्ष किया और कभी अपने उसूलों से समझौता नहीं किया. तमाम पत्रकार ऐसे भी रहे जिन्होंने पत्रकारिता को अपना जीवन समर्पित कर दिया और उसका हौवा भी नहीं बनाया और उन्हीं में एक स्वर्गीय विश्वेश्वर शर्मा सर हैं.
विशु सर उन पत्रकारों में रहे जिन्होंने हमेशा जुनूनी लोग ढूँढने में समय बिताया क्योंकि उनका मानना था कि पत्रकारिता कभी भी पैसा कमाने का जरिया नहीं हो सकती. ये शिक्षा की तरह शुद्ध सेवा का क्षेत्र है. लेकिन फिर भी लोग इसमें कमाई का जरिया ढूँढ़ते है जिसकी वजह से सच्ची पत्रकारिता को जिन्दा रहने के लिए अधिक संघर्ष करना पड़ता है.
कल विशु सर की वाल पर उन्हीं की खबर पढ़ी तो कतई यकीन नहीं हुआ, भोपाल होता तो तुरंत उनके घर जाता, लेकिन लखनऊ में होने के कारण फ़ोन करने के अलावा कोई और तरीका नहीं था. जब खबर सच्ची निकली तो दिल कुछ समय के लिए आहें भरने लगा. अपने विश्वविद्यालय भी नहीं गया. पता नहीं क्यों ये सब लिखने का मन कर रहा था तो लिख दिया.
विशु सर ने मुझे पत्रकारिता को जीना सिखाया उनके इस जज्बे को नहीं भूलूंगा. सर आप पंचतत्व में विलीन हो गये तो क्या मेरे दिल में हमेशा जिन्दा रहंगे.
बृजेन्द्र कुमार वर्मा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें