बाबासाहेब को विभिन्न विषयों में पढ़ा जाता है लेकिन उनकी विशेष पहचान पत्रकारिता में होनी चाहिए जोकि अभी आपेक्षित रूप से नहीं मिल पा रही है. बाबा साहेब ने पत्रकारिता की आवश्यकता और शक्ति को बहुत जल्दी पहचान लिया था, वे जानते थे कि अछूतों के विकास के लिए उन्हें जागरूक करने के लिए पत्रकारिता एक बेहतर विकल्प हो सकता है, जोकि बाद में सही भी सिद्ध हुआ.
आज (31 जनवरी 2020) बाबा साहेब डॉ0 भीम राव अम्बेडकर के समाचार पत्र "मूकनायक" के 100 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं.
“मूकनायक” का प्रकाशन
समय बीता और 20वीं सदी की शुरुआत हुयी. 1920 में बाबा साहबे अम्बेडकर ने पत्रकारिता में प्रवेश किया. उन्होंने “मूकनायक” नामक पत्र की शुरुआत की, जिसका पहला अंक 31 जनवरी 1920 को प्रकाशित हुआ. यह तीन साल तक प्रकाशित हुआ. प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण “मूकनायक” बंद हो गया लेकिन बाबा साहेब की पत्रकारिता का जुनून कम नहीं हुआ. “मूकनायक” के बाद 1927 में उन्होंने “बहिष्कृत भारत” का प्रकाशन किया. इसका प्रकाशन 1929 तक होता रहा और फिर बंद हो गया. इसके बात “जनता” का 1930 में प्रकाशन शुरू हुआ. इसका प्रकशन काफी लम्बे समय तक रहा. यह 1956 तक प्रकाशित हुआ. इसके अलावा 1956 में “प्रबुद्ध भारत” का प्रकाशन हुआ. पत्रों के प्रकाशन में बाबा साहेब का सहयोग आर.डी. भंडारे, बी.सी. कांबले, बी.आर. कादरेकर, देवराव नाइक, जी.एन. सहस्त्रबुद्धे आदि ने दिया.
ज्योतिबा फुले जी का "दीनबंधु"
तत्कालीन समय में पत्र पत्रिकाएँ समाचार, कवितायें, धार्मिक लेख आदि के
प्रकाशन तक ही सीमित थे, उनमें अछूतों, पिछड़ों, की ख़बरों के लिए कोई जगह नहीं थी. लेकिन
दलितों पर भी ध्यान गया. 19वीं शताब्दी के दौरान महराष्ट्र में ज्योतिबा फुले का
आन्दोलन उच्च वर्ग और अंग्रेजों की नजर में आया. फुले जी ने सत्यशोधक आन्दोलन की
शुरुआत की. उन्होंने “दीनबंधू” की स्थापना की. उस समय के अछूतों पिछड़ों का
प्रतिनिधित्व करने वाले शिवराम जानवे काम्बले और फागूजी बंसोड ने समाचार पत्रों का
प्रकाशन शुरू किया, हालंकि ये अल्प समय के लिए ही था, लेकिन दलित उत्थान और उनकी
आवाज बनकर पत्र सामने आने लगे. यही वह काल माना गया जब से दलित पत्रों के प्रकाशन
की नींव पड़ी. उस समय के गोपाल बाबा वालंगकर अछूत पत्रकार माने जाते हैं.
डॉ अम्बेडकर का
पत्रकारिता में आने का कारण और तर्क
गाँधी जी का "हरिजन" और बाबा साहेब का "मूकनायक"
डॉ अम्बेडकर की
पत्रकारिता में प्रवेश का एक कारण यह भी था कि मीडिया संस्थानों में जो लोग काम कर
रहे थे वे सामाजिक ढाँचे को बनाये रखना चाहते थे जो ऊंच-नीच से प्रभावित था. ऐसे
में जो सामाजिक कुरीतियाँ व्याप्त थीं उन पर लेख नहीं लिखे जाते थे. अछूतों
सम्बन्धी ख़बरों को महत्व नहीं दिया जाता था. सिर्फ उन्हीं ख़बरों का चयन एवं
प्रकाशन होता था जो उनके महत्व और अच्छाई तक सीमित था. एक पत्रकार का काम होता है
अपने समाज में घट रही घटनाओं को अखबारों में जगह दे. लेकिन भारतीय परिप्रेक्ष्य
में उस काल में पत्रकारिता और पत्रकार धार्मिक विचारधारा और वर्ण व्यवस्था से
प्रभावित था, ऐसे में डॉ अम्बेडकर समझ चुके थे, जब तक स्वयं पत्र न निकला जाय तब
तक दलितों का उद्धार नहीं किया जा सकता. अध्ययन किया जाये तो यह बात सही भी सिद्ध
होती है, क्योंकि महात्मा गाँधी ने भी “हरिजन” के नाम से समाचार पत्र निकला लेकिन
उसमें किसी भी प्रकार का दलित उद्धार नहीं देखा जाता, इसीलिए डॉ अम्बेडकर का
नजरिया पत्रकारिता के प्रति बहुत ही सजग और जीवंत रहा. बाबा साहेब की पत्रकारिता जातिवादी पूर्वाग्रहों से अलग है. उनका मानना था कि “जब तक समाज के हर वर्ग को मीडिया में उचित प्रतिनिधित्व
नहीं मिलेगा, तब तक सूचनाओं का
एकतरफा, एकांत और असंतुलित प्रसार
जारी रहेगा”.
1920 तक आते आते डॉ अम्बेडकर आश्वस्त हो चुके थे कि यदि दलितों को जागृत करना
है और सशक्त बनाना है तो पत्रकारिता की आवश्यकता होगी, इसी उद्देश्य के साथ ही
उन्होंने “मूकनायक” का प्रकाशन शुरू किया था. “मूकनायक” पत्र के उद्घाटन अंक के
सम्पादकीय में उन्होंने लिखा, “वर्तमान में हमारे लोगों के साथ हो रहे अन्याय के
खिलाफ उपाय सुझाने के लिए अखबार से बेहतर कोई स्त्रोत नहीं है और भविष्य में भी
किया जाएगा”.
“मूकनायक” का प्रकाशन
समय बीता और 20वीं सदी की शुरुआत हुयी. 1920 में बाबा साहबे अम्बेडकर ने
पत्रकारिता में प्रवेश किया. उन्होंने “मूकनायक” नामक पत्र की शुरुआत की, जिसका
पहला अंक 31 जनवरी 1920 को प्रकाशित हुआ. यह तीन साल तक प्रकाशित हुआ. प्रतिकूल
परिस्थितियों के कारण “मूकनायक” बंद हो गया लेकिन बाबा साहेब की पत्रकारिता का
जुनून कम नहीं हुआ. “मूकनायक” के बाद 1927 में उन्होंने “बहिष्कृत भारत” का
प्रकाशन किया. इसका प्रकाशन 1929 तक होता रहा और फिर बंद हो गया. इसके बात “जनता”
का 1930 में प्रकाशन शुरू हुआ. इसका प्रकशन काफी लम्बे समय तक रहा. यह 1956 तक
प्रकाशित हुआ. इसके अलावा 1956 में “प्रबुद्ध भारत” का प्रकाशन हुआ. पत्रों के
प्रकाशन में बाबा साहेब का सहयोग आर.डी. भंडारे, बी.सी. कांबले, बी.आर. कादरेकर, देवराव नाइक, जी.एन. सहस्त्रबुद्धे आदि ने दिया.
“मूकनायक” और “बहिष्कृत भारत” की स्थापना
“मूकनायक” का
प्रकाशन बॉम्बे से एक पाक्षिक
समाचार पत्र के रूप में शुरू हुआ. “मूकनायक” का कार्यालय परेल में स्थित था.
समाचार पत्र के शीर्षक “मूकनायक” का शाब्दिक अर्थ है, “आवाज-रहित का नेता”. उस
समय के शासक छत्रपति शाहू जी महाराज ने आर्थिक अनुदान भी दिया था. पांडुरंग भाटकर पहले
संपादक बने. बाबा साहेब डॉक्टरेट की डिग्री के कारण भारत आते थे और फिर काम से चले
जाते थे, लेकिन विदेश में रहने के बावजूद “मूकनायक” पर उनकी पूरी नजर रहती थी.
हालाँकि जब वे भारत लौट आये तो वे भी सम्पादक रहे. भाटकर के सम्पादन के बाद यह स्थान
घोलप ने लिया. घोलप को 1921 में लेजिस्लेटिव काउंसिल ऑफ बॉम्बे प्रेसीडेंसी का
सदस्य बनाया गया वे पहले 'अछूत' थे जिन्हें ये गौरव प्राप्त हुआ।
“मूकनायक” शुरू से ही वित्तीय निर्धनता से गुजरा. समाचार पत्र को चलाने के लिए
बाबासाहेब को अपने पारसी मित्र नवल भठेना से काफी मदद मिली. भठेना ने कोलंबिया
विश्वविद्यालय में अंबेडकर के साथ अध्ययन किया था. उन्होंने कई मौकों पर “मूकनायक”
को जमानत करवाई. उन्होंने गोदरेज जैसे प्रमुख बॉम्बे आधारित उद्योगपतियों को
विज्ञापन देने के लिए मना लिया. इतना सब होने के बावजूद भी “मूकनायक” की स्थिति
ठीक न हो सकी और घोपल से व्यक्तिगत मतभेदों के कारण मूकनायक से अपना नाता तोड़
लिया।
समाचार पत्र में धन का अभाव
बाबा साहेब एक निर्धन जीवन जीते रहे. उनके पास धन का हमेशा अभाव रहा. यही धन का अभाव अखबारों के सम्बन्ध में भी था. “मूकनायक” और “बहिष्कृत भारत” जैसे अखबारों के बंद होने का प्रमुख कारण विज्ञापन की कमी और धन का अभाव ही था. डॉ अम्बेडकर इस बात पर दृढ़ थे कि आडम्बरों, कर्मकांड, अन्धविश्वासी आदि जैसे विज्ञापनों को वे कभी भी जगह नहीं देंगे. इस तरह के दृढ़ निश्चय से उनके अखबारों की हालत खराब होती गयी और अखबार तक बंद हो गये लेकिन उन्होंने कभी भी गैर सामाजिक विज्ञापनों को प्रकाशित नहीं किया. उनका चिन्तन पूर्ण रूप से सामाजिक विकास और उचित बदलाव को समर्पित था.
बाबा साहेब डॉ भीम राव अम्बेडकर की 1930 तक एक जनसंचारक के रूप में पहचान बन गयी. बाबा साहबे ने न केवल “बहिष्कृत भारत”, अपितु उसके बाद के अख़बारों में भी दलित हिंसा पर लगातार लेख लिखे. दलित सभाओं में उनके महत्वपूर्ण सम्पादकीय सार्वजनिक रूप से पढ़े जाते थे. यही कारण था कि वे एक जनसंचारक के रूप में पहचाने जाने लगे. पश्चिमी भारत में उनकी पहचान तेजी से बढ़ी और दलित विरोधी हिंसा के प्रति दलितों को जुटाने में भी मदद मिली.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें