...लेकिन तू अकेला है
-बृजेन्द्र कुमार वर्मा
31 जनवरी 2020
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चार दिन की चाँदनीं और चार दिन का मेला है,
भीड़ कितनी भी हो तेरे पास, लेकिन तू अकेला है.
तुझे कौन सुनेगा, कौन जानेगा, सुनकर क्या फर्क पड़ेगा,
लोग अभी अँधेरे में हैं और ये अंधियारे की बेला है.
सोच नीची, जात नीची, नीची पहरेदारी,
वो आखिर करे भी तो क्या करे, उसे समाज ने धकेला है.
तुझे क्या लगता है, तू ही है सरताज अकेला,
उतर तो बाज़ार में, फिर देख नहले पे भी दहला है.
कर करूणा की विनती उनसे, चाहे गिरजा पैरों में,
वो समाज का क्या सोचेंगे, जिनका दिल ही इतना मैला है.
मारा भी, पीटा भी, भगाया भी, भड़काया भी,
समाज मेरा समझ गया, तेरी औकात अब ढेला है.
-बृजेन्द्र कुमार वर्मा
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