सीखने के लिए मैंने हर जख्म सींचे हैं, पढ़ना है दर्द मेरा तो सब लिंक नीचे हैं

शनिवार, मार्च 21, 2020

कोरोना वायरस और फ्रंट पेज के विज्ञापन


जिस देश में कोरोना वायरस की वजह से प्रतियोगी परीक्षाएं रद्द कर दीं हों, चहरे के मास्क और सेनाटाजर आउट ऑफ़ स्टॉक चल रहे हों, मंदिर बंद, मस्जिद बंद, चर्च बंद, गुरूद्वारे बंद, रेल यात्री कम, हवाई यात्राएं बंद होने को, 8वीं तक के बच्चों को बिना परीक्षा पास की घोषणा कर दी हो, घर बैठे दफ्तर का काम शुरू हो गया हो, 60 प्रतिशत देश का हिस्सा प्रभावित हो चूका हो, खाने और रहने की जरूरतों का सामान स्टॉक होने लगा हो, जिस देश के  प्रधानमन्त्री लोगों को घरों में रहने की अपील कर दें, जहाँ कोरोना वायरस जांच किट की सन्दिग्ध के मुकाबले कमी हो, जहाँ आये दिन कोरोना पॉजिटिव निकल रहे हों,....
वहां -
अखबारों के फ्रंट पेज पर भारी ऑफर वाले विज्ञापन आ रहे हैं. प्रेस का आज़ादी की लड़ाई में विशेष योगदान है. एक वक़्त था जब अंग्रेजी सरकार की विशेष नजर अख़बारों पर हुआ करती थी. क्योंकि सबको पता था अख़बार एक धधकते अंगारे की तरह है जो एक कोयले से दूसरे  कोयले में पहुँच कर उसे भी सुलगा देती है. पर आज अखबार पैसा कमाने की मशीन बन गये है. आजकल लगभग हर बड़ा बिसिनेस मैन अख़बार चला रहा है या अखबारों में निवेश कर रहा है. पहले संपादक के निर्णय स्वीकार किये जाते थे. आज़ादी के बाद से इसमें तेजी से परिवर्तन आया और सम्पादक की जगह प्रकाशक महत्वपूर्ण हो गया, अख़बार से अधिक विज्ञापनों पर ध्यान जाने लगा. लाभ के लिए ख़बरों से छेड़छाड़ होने लगी. पैसा कमाने का एक नया नाम सामने आया "पेड न्यूज़". और अब कई तरह से अख़बारों में पैसा कमाया जा रहा है जिसे आप सिद्ध भी नहीं कर पाएंगे.
मैंने टेलीविजन की बात नहीं की, क्योंकि टीवी पर आने वाली खबरों ने कभी भी लोगों का भरोसा नहीं जीत पाया. विभिन्न अध्ययनों में पाया गया है कि टीवी पर आने वाली खबरों से अधिक अखबारों की ख़बरों पर भरोसा किया जाता है. इसीलिए मैं भी सबसे भरोसेमंद जनमाध्यम की बात करूंगा. हालाँकि टीवी न्यूज़ चैनल की बात करें तो विज्ञापनों के मामले में वे भी समान टिप्पणी के लायक हैं. बात कितनी भी गंभीर हो विज्ञापन से कोई समझौता नहीं होता. निर्भया के दोषियों को मिली फांसी की खबर के बीच में भी ब्रेक लिया जा रहा है. कोरोना से लोग किन किन राज्यों में प्रभावित हो रहे हैं ये भी ब्रेक के बाद बताया जायेगा. जब देश में वायरस को लेकर विषम परिस्थितियां बनती दिख रही हो तो न्यूज़ चैनलों का ऐसा व्यवहार विकासशील देश के लिए शोभा नहीं देता. 
भारत में आजादी के बाद से आज तक किसी सम्पादक को फांसी नहीं दी गयी. हजारों छोटे-बड़े अख़बार-पत्रिकाएँ निकलती हैं. उन्हें नियंत्रित और उन पर निगाह रखने के लिए प्रेस काउंसिल भी है, लेकिन आज तक किसी सम्पादक को फांसी या उम्र कैद जैसी सजा नहीं मिली, इसका मतलब ये माना जा सकता है कि किसी भी सम्पादक ने कोई बड़ा अपराध नहीं किया है.
अब वापस आते है कोरोना वायरस पर. देश में इस बीमारी को लेकर लोगों में बेचैनी बढ़ रही है, आये दिन लोग इस वायरस से प्रभावित हो रहे हैं, और अब तो मरने वालों की संख्या भी बढ़ रही है. इसी बीच अफवाह फैला कर विक्रेता वस्तुओं की कीमत बढ़ाकर बेंच रहे हैं. हालाँकि भारत में अफवाह फैलाकर पैसा कमाने की पुरानी रीति रही है, लेकिन अब हफ्ते दो हफ्ते में कुछ न कुछ अफवाह फ़ैल ही रही है.
इन सब के बीच अखबार या न्यूज़ चैनल अफवाहों पर उचित खबर नहीं बना रहे. कोरोना वायरस के प्रभाव या जांच पर खबरें मिल रही है. जागरूकता को लेकर ख़बरों की भरी कमी है. कोरोना वायरस को लेकर यदि कोई जागरूकता विज्ञापन प्रकाशित या प्रसारित हो भी रहा है तो वह पैसे के बिना नहीं है, जबकि अब फ्री भी जागरूकता विज्ञापन दिए जाए तो भी कोई बड़ी बात नहीं होनी चाहिए. 
आज केंद्रीय और राज्य सरकारों को एक होकर काम करना होगा, जोकि फिलहाल नहीं हो रहा है. अभी भी पूर्वोतर राज्य सरकारों के जागरूकता सम्बन्धी विज्ञापन या खबरें देखने को नहीं मिली हैं. केरल में कोरोना के भारी प्रभाव के बावजूद तमिलनाडु, कर्नाटक में जागरूकता अभियान धीमा ही है. 
वक़्त आ गया है संविधान के चारों स्तंभों को एक हो जाने का, बिना किसी लाभ हानि की चिंता किये बगैर देश को समर्पित हो जाने का.
जन नेता, अखबार अक्सर शब्द इस्तेमाल करते हैं, "जनता तो बहुत भोली है". ऐसे में इस भोली भाली जनता को सँभालने का महत्वपूर्ण समय यही है. क्योंकि ये जनता, "जनता कर्फ्यू" पर भी बाहर निकलेगी, मना करने पर भी वही करेगी जो नहीं करना चाहिए, क्यूंकि "जनता तो भोली भाली है".

(20 मार्च की कुछ फोटो)




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