सीखने के लिए मैंने हर जख्म सींचे हैं, पढ़ना है दर्द मेरा तो सब लिंक नीचे हैं

मंगलवार, अगस्त 20, 2024

ये कविता काम आयेगी याद दिलाने में

माँ का दुपट्बटा जो बदबू से भरा है, 

वही पसीना जिम्मेदार है तुम्हें काबिल बनाने में.


सड़ गया जिस्म माँ का घर में,

क्या शेष रह गया जीवन बिता में.


आज चुप है माँ, बेटे के अफसर बनने पर,

जिसने कभी एलान किया था जमाने में.


चली गयी माँ कुछ शेष न रहा,

अब क्या मिलेगा मुस्कराने में.


औलादों, अपनी माँ की गोद को याद रखना,

उसका भी हिस्सा है, मंजिल दिलाने में.


प्यार, दुलार, समर्पण इसे अपने पास रखना,

काम आएगी नफरत की आग बुझाने में.


मैं वक़्त को रोक तो नहीं सकता लेकिन 

ये कविता काम आयेगी याद दिलाने में 


दोस्तों ऐसा कोई काम न करना 

जो शर्म आये माँ को माँ कहलाने में 


ये साल भी कितना मगरूर है.

 वो शख्श, जो अभी दूर है,

तुम्हें पता ही नहीं कितना मजबूर है.


अब वो रात में बस तारे गिनता है 

जिस पर किताबों का फितूर है.


डरता है, कहीं बदनाम न हो जाए 

उसके पिता को उसपर गुरूर है 


वो चली गयी तो क्या हुआ 

उसकी आँखों में तो मेरा ही नूर है 


चली थी हवा कि सब गुजर जायेगा,

उफ़ | ये साल भी कितना मगरूर है. 


तो करता भी क्या

 मुफलिसी में अपनी जुबां दबा कर आया हूँ,

लौटकर आऊंगा नहीं, ये भी बता के आया हूँ 


मैंने मोहब्बत में हारी हैं कई बाजियाँ,

हाल ही में एक डोली उठा कर आया हूँ 


वो रात अलग थी, ये रात अलग,

दंगों में बच्चों का खून बचा कर आया हूँ


अच्छे अच्छों को रोटी तक नसीब नहीं,

मैं तो ईमानदारी मिट्टी में दबा कर आया हूँ.


 वो तो उसकी यादें हैं, तो दिन गुजर भी जाता है,

वरना कई बार खुद की अर्थी सजा कर आया हूँ.


फहरिस्त से बाहर निकाल दिया उन्हीं फरामोशों ने,

जिनको सियासत सिखा कर आया हूँ. 


गम ये नहीं, खुद कर लिया बर्बाद 

ख़ुशी ये है, यही कहानी उसे सुना कर आया हूँ. 


घर से न निकलता, तो करता भी क्या 

मैं अपने घर वालों बहुत सता कर आया हूँ.