रचना- 15 अगस्त 2018
द्वारा- बृजेन्द्र कुमार वर्मा
कसीदे गढ़े जाते थे कभी, परिवार की शान के,
आग लगा के जा रहा मुसाफिर सीना तान के.
जब भी मिला वक्त, कुरेदे छाले हर एक पावं के,
और सारे झेल गया जोखिम हर एक दावं के.
लुटेरा जा रहा लूट के धन भी, मन भी, तन... भी,
कमाले ये, खड़े देख रहे सवार मेरी नाव के.
-बृजेन्द्र कुमार वर्मा
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