सीखने के लिए मैंने हर जख्म सींचे हैं, पढ़ना है दर्द मेरा तो सब लिंक नीचे हैं

मंगलवार, अक्तूबर 08, 2019

सेवा और नौकरी

सुरेश और महेश दो बहुत अच्छे दोस्त थे. बचपन से साथ पढ़े. पढ़ लिख कर विश्वविद्यालय तक पहुंच गए. दोनों ने डिग्री हासिल की. 
सुरेश की नौकरी बहुत जल्दी लग गई लेकिन महेश की नौकरी नहीं लगी. अक्सर महेश मजाक-मजाक में पूछ लेता कि यार तुम्हारी नौकरी लग गई, लेकिन मेरी नहीं लगी, ऐसा क्यों ?
सुरेश मुस्कुराता और बात को टाल देता, लेकिन कभी उसने सच बताने की कोशिश नहीं की. सुरेश वैसे शांत स्वभाव का था और महेश क्रांतिकारी. सुरेश शांत स्वभाव के होने के कारण काफी चीजें नहीं बोलता था. गलत का विरोध नहीं करता था, लेकिन हां इसका मतलब यह नहीं कि चालाक नहीं था. इधर महेश बहुत क्रांतिकारी विचार धारा का था. उसने कई ऐसी किताबें पढ़ी थी जिसमें सच्चाई, अच्छी बातें, जीवन जीने के सही उद्देश्य, सच्चे सिद्धांत जैसी बातें लिखी होती थी. महेश इन बातों को सीख कर क्रांतिकारी विचारधारा का बना.
गलत को गलत कह देता था और सही को सही बोलता था. वह गलत के खिलाफ विरोध भी करता था खड़ा हो जाता था. क्रांतिकारी विचारधारा का होने के नाते गलत का हमेशा से विरोध करता रहा. सुरेश ऐसा कुछ करता नहीं था. 
डिग्री पूरी होने के कुछ समय बाद ही, सुरेश की नौकरी लग गई और फिर शादी भी हो गयी. महेश आज भी चप्पलें घिस रहा है और अभी तक शादी भी नहीं हो पायी. हाल ही में एक और रिश्ते ने महेश को ठुकरा दिया था.
जब ही छुटियाँ पड़ती, सुरेश अपने परिवार के साथ गाँव आ जाता. इस बार 2 दिन की ही छुट्टी पड़ी लेकिन फिर भी आ गया. तबियत ठीक नहीं थी तो घर मिलने आ गया. 
सुरेश किसी से मिले या न मिले लेकिन महेश से मिले बिना नहीं जाता. न जाने क्यों सुरेश आज विशेष कारणों से महेश से मिलना चाह रहा था. जब तबियत खराब थी तो घर में रहा और खाली दिमाग में कई ख्याल रहे, महेश उन ख्यालों में से एक रहा. शायद इसीलिए सुरेश महेश से विशेष तौर पर मिलना चाह रहा था. 
इस बार महेश ही घर मिलने आ गया. 
दोनों गले मिले, कुशल क्षेम हुआ. चाय बनी. गाँव की बातें होने लगी... अचानक सुरेश ने पूछा, 
"लड़की वाले ने न क्यों कर दी"
महेश ने बिना अचरज बोल दिया, "पता नहीं यार, क्या बुराई देख ली". महेश चुप था. सुरेश ने गहरी सांस ली. और माँ से बोला, "माँ, बाग़ तक जा रहा हूँ, थोड़ी देर में लूटूँगा"
सुरेश ने महेश का हाथ पकड़ा और बाग़ की और ले जाने लगा. वैसे तो महेश और सुरेश दोस्त थे. लेकिन कोई देख कर नहीं कह सकता था कि ये दोस्त हैं. हमेशा भाई भाई की तरह रहे. एक दूसरे के घर में किसी निर्णय में भी इनकी भूमिका रहती. और माँ बाप इन दोनों की बात भी मानते. 
महेश को सुरेश का व्यवहार कुछ अजीब लग रहा था. न तो गुस्से में दिख रहा था और न ही शांत जैसे वो रहता है. कभी भी वो दो दिन की छुट्टी में नहीं आया और यदि बीमार होता तो यूं महेश को बाग़ लेकर नहीं जाता. महेश ने कई बात पूछा भी, "क्या बात है, कोई दिक्कत हो तो बताओ"
सुरेश ने खींज से बोला, "क्यों तू मेरी दिक्कत दूर करेगा ?" "किस किस की दिक्कत दूर करेगा, चल बता मुझे."
"कितनो की मदद करेगा, क्या मिला तुझे मदद करके?" "क्या नौकरी मिली? क्या शादी हुयी? क्या नेता बन गया??" 
"तू मुझे एक बात बता, क्या इज्जत है तेरी इस गाँव में ?"
महेश समझ नहीं पा रहा था कि सुरेश ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है. लेकिन उसने कुछ बोला नहीं. सुरेश ने अपने आप को संभाला. आम के बाग़ में सारे आम तोड़े जा चुके थे. बाग़ वीरान था. न कोई घोसला और न कोई उस बाग़ की सुरक्षा करने वाला. इंसान भी अजीब होता है, आम के बाग़ की सुरक्षा भी तब तक करता है जब की पेड़ आम देता रहता है. भेंस के लिए हरी घास भी तब तक आएगी जब तक कि वो दूध देगी. वरना भुस से काम चलाना पड़ेगा. 
दोनों बाग़ की मेंड़ पर बेठे गये. दोनों चुप थे. सिर्फ बाग़ के पत्तों के हिलने की आवाज आ रही थी. सुरेश ने हलकी साँसे भरी. सुरेश सर झुकाए बैठा था, महेश उसके चहरे को देख रहा था.
कुछ नहीं सूझा तो महेश ही बोल पड़ा,"यार ये बताओ चाचा कब बना रहे हो... हमारी नौकरी लग जाती तो अब तक शादी करके तुम्हें चाचा बना देते."
"हा हा हा.... हा..." महेश हंस पड़ा, लेकिन सुरेश चुप था.
महेश फिर बोला, पता नहीं क्यों नौकरी नहीं लगी... लिखित परीक्षा पास करने के बावजूद यार हर बार इंटरव्यू में निकाल दिया जाता है... पता नहीं कब नौकरी लगेगी...."
"कभी नौकरी नहीं लगेगी", सुरेश तुरंत बोला.. महेश स्तब्ध रह गया..
"क्या... कभी नहीं मतलब ?" महेश ने पुछा.
सुरेश फिर बोला, "कभी नहीं मतलब कभी नहीं"
"तुम ऐसा क्यों सोचते हो यार ?" महेश ने सवाल किया.
सुरेश ने ठान लिया कि इस बार उसे बता कर रहेगा कि आखिर अब तक उसकी नौकरी क्यों नहीं लगी. सुरेश एक चालाक व्यक्ति था और समाज को अच्छे से समझता था, इसलिए नौकरी भी पा ली. 
महेश ने जोर दिया, "क्या हुआ, बोलो तुम ऐसा क्यों सोचते हो."
सुरेश ने लम्बी सांस ली और बड़े ही धैर्य से बोला, "यार! नौकरी तो तुम्हारी भी लग जाती, लेकिन कुछ कारणों की वजह से नहीं लगी. अगर तुम मुझे मौका दो तो मैं तुम्हें बताता हूं आज."
महेश अचानक उत्सुक हो उठा. मन में सोचने लगा, जब सुरेश जनता था तो अब तक बताया क्यों नहीं ? ऐसी कौन सी बात है जो मुझे आज तक नहीं बताई वो भी मुझ से जुडी हुयी. आज तक सुरेश ने ऐसा व्यवहार नहीं किया. फिर आज अचानक सुरेश को क्या हो गया... वो दिल में बातें क्यों छुपाने लगा. क्या ये शादी का असर है या कुछ और बात है. महेश में व्याकुल हो उठा, "आखिर क्या बात है बोलो न सुरा"
 सुरेश गंभीर होकर बोला, "मेरे दोस्त....लेकिन तुम मेरी बात का बुरा मत मानना यह तुम्हें वादा करना होगा"
"ठीक है नहीं मानूंगा...बिल्कुल बुरा नहीं मानूंगा, बोलो", महेश हर शर्त को तैयार था.

सुरेश ने गहरी सांस ली, नजरें महेश से मिलायीं और बड़े ही विनम्रता से बोलना शुरू किया.
"माही, मैं जानता हूं तुम क्रांतिकारी हो, तुम्हारी विचारधारा बहुत अच्छी है और इस देश में ऐसी विचारधारा के लोग बहुत ही कम मिलते हैं... मैं जानता हूं कि तुम्हारी नौकरी क्यों नहीं लग रही."
महेश की व्यकुलता बढ़ रही थी, क्रांतिकारी का नौकरी लगने से क्या मतलब. सुरेश ने मेरे क्रांतिकारी होने की बात क्यों बोली... महेश बस चुप रहा और सुनता रहा.

"पहला कारण यह है कि तुम हमेशा समाज की सेवा करते रहे. नौकरी पाने वालों को सिर्फ अपनी नौकरी पर ध्यान देना चाहिए... लेकिन तुम समाज की दिक्कतें दूर करने की कोशिश करते रहे, उनकी मदद करते रहे जो लोग परेशान रहते थे. तुम उनके साथ खड़े होकर उनकी समस्याओं को सुलझाते थे. इस वजह से तुमने सही से पढ़ाई नहीं कर पाई और तुम्हारी नौकरी नहीं लगी. अगर मैं निष्कर्ष पर पहुंचू, तो समाज की सेवा करने की वजह से तुम्हारी नौकरी नहीं लगी.
सुरेश गंभीर था, उसकी आवाज में जोर आने लगा, एक अनुभवी की तरह बोला, "मेरा विचार है कि जब भी नौकरी पाने की बात हो तो अपनी विचारधारा को त्याग देना चाहिए, क्योंकि हमारी विचारधाराएं हमारी नौकरी के बीच में आ जाती हैं और हमें नौकरी नहीं मिल पाती अगर आप की विचारधारा क्रांतिकारी स्वाभिमानी और सच्चाई की है तो विश्वास मानो तुम्हारी नौकरी कभी नहीं लगेगी"

महेश की आँखें, सुकड गयी, भोएं टेढ़ी हो गयी, जैसे बात ध्यान से सुन न पायी हो... अरे सुरेश ऐसा कैसे कह सकता है, लगता है सुरेश से कहने में कुछ गलती हो गयी, या मैंने ही शायद सही से सुन नहीं पाया हो...

सुरेश रुका नहीं, क्योंकि उसे लगा अगर रुक गया तो महेश वैचारिक द्वंद्व करने लगेगा और अभी वो किसी भी तरह से बहस करने के पक्ष में नहीं है. इससे पहले वो कुछ कहता सुरेश बिना रुके अपनी बात कहने लगा.

"मेरे दोस्त मैं तुम्हें एक उदाहरण देता हूं. अपने इसी गांव में तुम्हें वह उदाहरण देखने को मिल जाएगा."

अब महेश को अचरज महसूस होने लगा.. आखिर ऐसा कौन सा उदाहरण है, जो महेश गाँव में रहकर भी देख नहीं पाया और सुरेश ने शहर में रहकर भी देख लिया... महेश की साँसें बढ़ने लगी... उत्सुकता चरम पर थी. गला सूखने लगा..

"मेरे दोस्त कभी तुमने एक भूखे कुत्ते को देखा है... वह रोटी मांगने के लिए घर-घर भटकता है. किसी दरवाजे से रोटी मिल जाती है तो किसी दरवाजे से रोटी नहीं मिलती. जब रोटी मिल जाती है तो वह कुत्ता चुपचाप रोटी खा लेता है. कभी कभी रोटी मिलने की जगह कोई लाठी मार देता है... कोई डंडा मार देता है तो कोई पत्थर मार देता है, लेकिन कुत्ता कभी वापस उन पर भौंकता नहीं, उन्हें काटता नहीं.... बस दर्द से करहाता हुआ....वहां से चला जाता है और दूसरे दरवाजे पर रोटी ढूंढने की कोशिश करने लगता है. इसका मतलब यह हुआ कि कुत्ता रोटी मांगने की वजह से किसी पर वार नहीं करता. उसक मुख्य उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ अपनी भूख मिटाने... और रोटी खाने पर होता है किसी प्रकार का विरोध करने पर नहीं. किसी जानवर को लाठी मारना गलत है डंडा मारना गलत है लेकिन उसके बावजूद भी वह जानवर विरोध नहीं करता.
क्योंकि उसे अपनी भूख मिटानी है न कि किसी प्रकार का विरोध करना है हां यह जरूर है जिस वक्त उसकी भूख मिट जाएगी और उसका पेट भरा होगा तो वह शत प्रतिशत लाठी - डंडा मारने वालों को तुरंत वह काट खाएगा.. नौच डालेगा."
"इस बात से हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि जब भी आपको नौकरी चाहिए तो आपको सिर्फ नौकरी पर ध्यान देना चाहिए, अगर कुछ गलत घट रहा है तो घटने दो, अगर कुछ गलत हो रहा है तो बिल्कुल भी विरोध मत करो.... क्योंकि वह समय विरोध करने का नहीं है नौकरी पाने का है. नौकरी पाने के बाद तुम गलत को गलत कहो सही को सही. गलत के खिलाफ खड़े हो जाओ, विरोध करो, प्रदर्शन करो कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन अगर पेट खाली है तो हार निश्चित है, इसलिए पहले अपना पेट भरो यानि कि पहले नौकरी लो.
....इसीलिए मेरे दोस्त तुम्हारी नौकरी नहीं लगी और तुम आज भी बेरोजगार हो"

सुरेश को न जाने क्या ग्लानी महसूस करने लगा.. पता नहीं क्यों उसे अपने कहे पर विश्वास की जगह कमजोरी महसूस हुयी, वो उठा और महेश को वहीँ छोड़ के घर को चल दिया.

महेश अकेले वही बैठा रहा और सोच में पड़ गया. महेश बातें सुनकर अचंभित था.
मन में सोचने लगा.  मैंने हमेशा समाज की सेवा की. गरीब संसाधन विहीन लोगों की मदद करता रहा. मैंने सोचा मुझे पुण्य मिलेगा.
सुरेश ने जो बातें बोली उन बातों ने महेश को  झकझोर के रख दिया. महेश उठा और घर को जाने लगा. शाम हो चली थी, चरवाहे मवेशियों को घर लौटने लगे थे. महेश की चाल ठीली पड़ गयी.... मन उधेड़बुन में लगा थे.

"क्या जो मैंने आज तक किया वह गलत है ? क्या मैंने लोगों की मदद की तो वह गलत है ? क्या मैंने गलत का विरोध किया तो वह गलत है ? क्या मैंने लोगों की सेवा की तो मुझे उसका पुण्य नहीं मिलना चाहिए ? क्या कर्म सिद्धांत यह कहता है कि अच्छा करने पर अच्छा नहीं होगा ? रात हो गयी.. कुछ खाया भी नहीं... माँ भी हैरान थी कि महेश आखिर मन ही मन क्या बडबडा रहा है. रात हो गयी लेकिन महेश को नींद ही नहीं आई सारी रात महेश ने तारो से बहस की. सुबह बिना उठे ही सुरेश के घर चला गया.. अभी कुछ है जो पूछना बाकी है... चाची सुरेश को बुलाना कहना माही आया है...
अंदर से आवाज आई, "बेटा तो वो तो अभी अभी दिल्ली चला गया... कह रहा था, इस बार दो दिन की ही छुट्टी थी... जा स्टेशन चला जा... मिल जायेगा वहां."
महेश स्टेशन की और दौड़ा... सुरेश एक बेंच पर सर झुकाए बैठा था... महेश ने बिना कुछ और कहे सीधा पुछा,
"क्या कर्म सिद्धांत यही है, अच्छा करने पर अच्छा नहीं मिलता ?  क्या बुरा करने पर बुरा नहीं मिलता ?"
ट्रेन आने की घोषणा होने लगी.
सुरेश मुस्कुराया और उसके बड़ी ही शालीनता से जवाब दिया
"जो अच्छा करता है उसे जरूर अच्छा मिलता है.... और बुरा करने वाले को बुरा फल मिलता है... लेकिन मेरे दोस्त कर्म सिद्धांत भी एक प्रक्रिया है. हर कर्म का एक समय होता है. जिस कर्म को तुम कर रहे हो क्या सच में उस कर्म को करने का समय वह है जिस समय वह तुम कर रहे हो या नहीं."
"मैं जानता हूं कर्म सिद्धांत बिल्कुल काम करता है और सौ प्रतिशत वैसा ही होता है जैसा आप करते हो..... लेकिन मैं इसमें एक बात जोड़ना चाहूंगा. हर एक कर्म का एक समय होता है आपको भूख लगी है तो आप लड़ नहीं सकते.  तो प्रथम कर्म यह होना चाहिए कि आप अपना पेट भरे और उसके बाद लड़ाई लड़ें....पेट भरा रहेगा तो आप जम के लड़ सकते हैं....पेट खाली रहेगा तो आप लड़ नहीं सकते यानी कि आप जिसके लिए लड़ रहे हैं उसके लिए कोई मतलब नहीं बनता लड़ने का.
प्लेटफार्म पर शोर होने के बावजूद अब महेशो को सब ध्यान से सुनाई दे रहा था.... ट्रेन प्लेटफार्म पर आ रही थी, लोग अपना सामान लेकर ट्रेन में बैठने को तैयार थे... बस सुरेश और महेश अपनी जगह से हिले भी नहीं.

महेश की नजरें झुक गई... आंखें गीली हो गयीं... बस सुरेश की अंतिम पंक्तियों का इन्तेजार रह गया. 

सुरेश ने अपना बेग उठाया और महेश को बोला, "अपना उद्देश्य निश्चित करो माही... चलता हूँ... और सुनो... तुम चाचा बनने वाले हो..."

सुरेश ट्रेन की और बढ़ गया. महेश चुप खड़ा रहा... ट्रेन का हॉर्न बजा और चलने लगी... महेश ने सर उठाया ट्रेन को देखने लगा... ऐसा लग रहा था जैसे जिन्दगी बढ़ने लग गयी हो... समोसे बेचने वालों का ध्यान किसी और ट्रेन पर जाने लगा. कुली हट गये... प्लेटफोर्म खली हो गया... बस ट्रेन को उदासी से वही देख रहे थे जिनकी ट्रेन छूट गयी थी. महेश ये सब देख अपनी जिन्दगी से जोड़ने लगा. जो समोसे वाला ट्रेन के खड़े रहते प्लेटफार्म पर भाग भाग के समोसे बेच रहा था, ट्रेन के जाते ही वही प्लेटफोर्म अब किसी काम का नहीं रहा... अब विपरीत दिशा में बने प्लेटफार्म पर भाग भाग के समोसे बेच रहा है क्योंकि वहां कोई और ट्रेन खड़ी है.

महेश वापस घर आया, दिन बीता, शाम हुई, महेश ने खाना भी नहीं खाया और जाकर छत पर चुपचाप अपने बिस्तर पर लेट गया और फिर सितारों से बहस करने लगा.
क्या सच में उसने गलत वक्त पर लोगों की सेवा की ? क्या सच में उसे पहले नौकरी पा लेनी चाहिए थी ? क्या सेवा करने का भी कोई समय होता है , वह भी सही या गलत ? क्या सच में पढ़ लिख लेने के बाद नौकरी करनी चाहिए, सेवा नहीं करनी चाहिए लोगों की मदद नहीं करनी चाहिए ? क्या पढ़ लिख लेने के बाद उद्देश्य नौकरी रह जाता है ? यदि कोई नौकरी भी करना चाहे और लोगों की मदद भी करना चाहे जो कि उसकी दिली इच्छा हो तो क्या यह दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते ?
क्या सच में पीड़ितों का साथ देने से अन्य कुछ लोगों को इतना बुरा लग जाता है कि वह नौकरी ही न लगने दे. सूचना दे दें कि फला... फलां... को नौकरी मत देना वो फलां.. विचारधारा का है....
मतलब इतनी नफरत कि मदद करने वाला आजीवन भूखा ही रह जाए.... कोई उसकी दो रोटी की जुगाड़ भी ना हो सके...
क्या इस देश में किसी की मदद कर देना ? साथ दे देना, सेवा कर देना... किसी सच्चाई पर खड़े रह जाना गलत है ?
सुरेश इस तरह की फालतू की बातें कैसे कर सकता है... महेश जान रहा था, सुरेश कभी कभी बोलते बोलते लडखडा जाता था.... यानि वो अपनी बात से सहमत नहीं था.. अगर सहमत नहीं था तो बोला क्यों... और यदि अपनी बात पर अडिग था तो बोलते समय लड़खड़ा क्यों रहा था... सुरेश ने ये सब क्या जान के बोला... क्या ये उसका अनुभव है... क्या ऐसे फालतू के अनुभवों को मान लेना चाहिए.. यदि ऐसी बातों को माना गया तो फिर सब यही बात बोलने लगेगे.. कि  मदद नहीं कर सकता.. अभी मदद करने का समय नहीं है. क्या बेवकूफी की बातें बोल के चला गया सुरेश....
लेकिन यदि सुरेश की बातें फालतू और बेवकूफी भरी है तो महेश की नौकरी क्यों नहीं लगी... यदि महेश लोगो के लिए दिन रात लगे रहने की जगह सिर्फ पढ़ाई पे ध्यान देता तो क्या नौकरी नहीं लगती???  तमाम बच्चे प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते हैं, कोचिंग करने के कारण घर से दूर रहते हैं और घर का कोई काम नहीं कर पाते.... देर सबेर वे कोई न कोई परीक्षा पास करते हैं और नौकरी लग जाती है. ..
महेश दिन भर का भूखा भी था, इसलिए तारों से ज्यादा बहस नहीं कर पाया और सो गया... लेकिन सुबह उठकर फिर से वह अपने सवालों का जवाब मांगेगा... कोई न कोई तो जवाब जरूर देगा..
बहरहाल अभी तो भूख की वजह से कमजोरी थी इसलिए तारो से बहस नहीं कर पाया... पेट भरा होता तो रात भर बहस कर सकता...


2 टिप्‍पणियां:

POOJA PRAKASH ने कहा…

Bahut Sundar tarikey se bat samjahyi gayi h..hum samaj sewa se pahle apni sewa bhul jate h. Apna pet bhara rahne per he hum per koi apne pet k bharne ke akansha rakh sakta h

brijendra ने कहा…

टिपण्णी के लिए शुक्रिया