हाल ही में एक ऐसा गलती एक अखबार ने विज्ञापन को प्रकाशित कर के कर दी है जो शायद भारतीय शक्ति को कमजोर करने में एक उत्प्रेरक का काम करे....
हुआ यूं, कि "---------" दैनिक समाचार पत्र के नई दिल्ली संस्करण में 20 अगस्त 2015 को 15वें पृष्ठ एक विज्ञापन प्रकाशित किया. यह विज्ञापन भारतीय सशस्त्र बल द्वारा जारी किया गया था. चूंकि भा.स.ब. भारत-पाक युद्ध 1965 कि स्वर्ण जयंती मनाने जा रहा है. कार्यक्रम 28 अगस्त से शुरू होकर २२ सितम्बर तक चलेगा. इसमें आम जनता को निःशुल्क प्रवेश दिया जा रहा है. आयोजित होने वाले कार्यक्रम में देश के लिए शहीद हो गये वीरों को और अन्य बहादुर सैनिकों को याद किया जाएगा. इसलिए इस सम्बन्ध में इस विज्ञापन को आम जन और उनके आस पास रह रहे सैनिकों तक जानकारी पहुंचाने के लिए प्रकाशित किया गया.
विज्ञापन सरल भाषा और सटीक शब्दों के साथ युद्ध की गाथा को बयाँ करता है. अगर आप पढ़े तो पता चलेगा कि किन मुश्किलों में हमारे देश के वीरों ने युद्ध में विजय प्राप्त की. कितना नुक्सान हुआ.... आदि.
मैं उस समय बहुत आश्चर्य चकित रह गया जब इस विज्ञापन में मात्र एक अक्षर "ट" ने अर्थ का अनर्थ कर दिया.
हुआ ये कि भा.स.ब. द्वारा जारी इस विज्ञापन में वीरों की और युद्ध कि ऐतिहासिक घटना बयाँ की. पर "इस" दैनिक समाचार पत्र ने लेख की 5वीं लाइन में गलती कर दी.
".....पाकिस्तान द्वारा किये गये जबर्दस्त जवाबी हमले का डरकर मुकाबला किया....."
यहाँ "डटकर" की जगह "डरकर" छाप दिया और तो और प्रकाशित भी कर दिया.
पाकिस्तान को प्रोत्साहन मिला
अगर पाकिस्तान में हिन्दुस्तान समाचार पत्र का अगर ई-पेपर पढ़ा जा रहा होगा तो निश्चित ही उन्हें इस बात से और हौसला मिलेगा कि देखो हम चाहे हार गये हों फिर भी हमारे हमले से भारत के सैनिक डर गये होंगे।.. तभी ऐसा लिख रहे हैं... कि डर के मुकाबला किया.
मान लीजिये पाकिस्तान का मीडिया इस पर खबर प्रकाशित कर दे और इस विज्ञापन कि प्रति को वह दिखाए तो भारत कि छवि पर असर पड़े न पड़े परन्तु, इस संभावना से हम मुकर नहीं सकते कि पाकिस्तान में रह रहे भारत विरोधी तत्वों को इससे भारत में और आतंक फैलाने का मौका मिल जाएगा.
विज्ञापनो के किनारे दबाकर पेश किया गया खंडन |
हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि प्रोत्साहन व्यक्ति के अन्दर "आस" अथवा एक "जूनून" पैदा कर देता है. प्रोत्साहन सिद्धांत पर स्किनर ने खासा काम किया है. बी.एड., - एम.एड. छात्रों को ज्ञानार्जन सम्बन्धी अध्ययन में इनके सिद्धांत को पढ़ाया जाता है. व्यक्तिगत रूप से कहूं तो ये कोई बड़ी गलती नहीं है. हाँ पर में इस बात से सहमत नहीं हो सकता कि इसका असर नहीं होगा. इसका असर हो सकता है. 10वीं पास छात्र सेना में छोटे मोटे पदों पर लग जाते हैं और देश की सेवा करने में जुट जाते हैं और अपनी पढ़ाई रोक देते हैं. ऐसे में उनकी सोच का विकास उतना नहीं हो पता जितना अन्य छात्रों द्वारा शिक्षा में लगातार अध्ययनरत रहने से हो जाता है. अब ऐसे में ऐसे सैनिक जो कम पढ़े लिखे थे एवं/अथवा आज रिटायर हो चुके हैं... अगर वे इस विज्ञापन को पढ़ते हैं, तो जरा अपने दिल से पूछिए उन पर क्या बीती होगी???? एक बार तो उनका मन क्रूद्ध तो हुआ होगा. मन में एक टीस तो उठी होगी कि हमने "डटकर" सामना किया और इस देश का अख़बार कह रहा है कि हमने "डरकर" सामना किया.
कमाल कि बात ये है कि समाचार पत्र ने भी बड़े इतराकर खेद प्रकट किया. वो भी अगले दिन नहीं, बल्कि दूसरे दिन (22 अगस्त 2015)
इतना ही नहीं, बल्कि बड़े बड़े विज्ञापनों के किनारे खंडन फंसा दिया. ऐसा इसलिए कर दिया, ताकि लोगों का ध्यान उस गलती को पढ़ने में न जाकर बड़े बड़े चिपकाए गये विज्ञापनों कि तरफ जाए... आप संलग्न फोटो में देख सकते हैं.
आई.ए.एस. और पी.सी.एस. की तरह मीडिया में हो "प्रेस अधिकारियों" की भर्ती.
अब समय आ गया है, अब आई.ए.एस. और पी.सी.एस. की तरह पत्रकारों को भी लोग सेवा आयोग द्वारा भरा जाना चाहिए. तभी मीडिया को मजबूत बनाया जा सकता है, वरना आज़ादी के बाद से जो स्थिति मीडिया की हुई है, जहाँ मीडिया हाउस का मालिक अपने तरह से सूचना को प्रकाशित करता है, और पैसा कमाता है, वही स्थिति बनी रहेगी.
आप क्या सोच रहे हैं, ये गलती अनजाने में हुई है? असल में ये गलती अनजाने में नहीं, बल्कि पत्रकारों के साथ किये जाने वाले शोषण का नतीजा है, उन्हें कोल्हू के बैल कि तरह रखा जाता है, जैसे कोल्हू के बैल के मूंह से कोल्हू को खींच-खींच कर फैना टपकता रहता है और जब थक कर रुकने की कोशिश करता है तो मालिक उसे "पल्हेंटी" (डंडे में चमड़े के लम्बे फीते से बंधकर जानवरों को हाकने के लिए बना एक औज़ार) से मारकर फिर चलने को विवश कर देता है, वैसी ही स्थिति पत्रकारों की हो गई है. ज्यादा तनख्वा मिलती नहीं, हमेशा नौकरी से निकाले जाने का डर, निर्धारित समय से अधिक काम करना, कोई इच्छित छुट्टी नहीं, समय पर तनख्वा नहीं देना, रात में काम करवाना..... और न जाने क्या क्या....
अब स्वयं ही सोचिये गलती न हो तो क्या हो... पर मैं उक्त गलती को इस दवाब में हो सकने वाली गलतियों से नहीं जोड़ सकता.... क्यूंकि ये गलती हामारी अस्मिता से जुड़ी है. क्यूंकि ये गलती, गलती नहीं, बल्कि देश के हौसले को कमजोर करने वाली कड़ी है. अगर मीडिया देश को एक मजबूत करने की क्षमता नहीं रखता, तो उस माध्यम को स्वयं ही अयोग्य घोषित कर बंद कर देना चाहिए.
सुझाव
दिल से कहूं तो समाचार पत्र द्वारा प्रकाशित की गई गलती के खंडन के प्रकाशन से सहमत नहीं हूँ.
मेरा सुझाव है, जो गलती की है तो उसे सहर्ष स्वीकार करे. साथ ही खंडन को कारणों सहित प्रकाशित करे और यह भी वादा करे कि आगे से ऐसी गलती न हो इसका विशेष ध्यान रखा जाएगा... इसके अलावा खंडन विशेष आकर्षण के साथ प्रकाशित किया जाए ताकि सभी को पता चल सके कि गलती को स्वीकार किया जा रहा है.
...और उसे प्रथम पृष्ठ पर ऊपर की तरफ- बिना विज्ञापन के किनारे या बीच में, बिना किसी बड़ी खबर या सूचना के किनारे या बीच में,बिना किसी फोटो के किनारे या बीच में, या किसी भी ऑफर या लाभ की जानकारी के किनारे या बीच में प्रकाशित न करे. उसके लिए एक विशेष स्थान बनाए.
ऐसा करना कोई बड़ी बात नहीं, बल्कि इससे तो समाचार पत्र की प्रशंसा / तारीफ़ होगी.
वरना, उक्त प्रकाशित खंडन तो ऐसा लग रहा है, जैसे एक आदमी ने दूसरे आदमी के "..चटाक... " से तमाचा मार दिया, फिर अकड़ कर माफ़ी माफ़ ली... "अबे ओए! माफ़ कर दे... समझा क्या...."
और अंत में
-जिस प्रकार पाप धोने के लिए हम हर किसी नदी में नहीं नहाते बल्कि डुबकी लगाने के लिए गंगा नदी में जाते हैं, बिलकुल उसी प्रकार समाचार पत्र को भी हृदय से पत्र में जगह देकर गलती को मानकर सही जगह देकर माफ़ी मांग लेनी चाहिए.
देश भोले शंकर की तरह बड़ा दयालु है, माफ़ कर देगा.
यही संसार है, यही संचार है.
यही संसार है, यही संचार है.
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