ये साधारण सी बात है , जब पता लगे की श्रऋधांजलि उन लोगों ने दी जो असहाय है और कमजोर हैं। जो कुछ कर भी नहीं सकते आतंक के खिलाफ, वो जिन्होंने अपनी शक्तियों से देश चलाने का दारोमदार उन्हें दे दिया जो बुढापे के मारे ख़ुद नही चल सकते।
लेकिन तब कैसा लगेगा, जब ये बात सामने आए की कुछ इसे लोग , जो समाज को एक दिशा देते है, जो जनता का प्रतिनिधित्व करतें हैं उनके सवालों, आशाओं, मांगों को सरकार के सामने रखते हैं साथ ही सरकार को उसका आयना दिखाते हैं , ने भी सिर्फ़ मोमबत्ती जलाकर उनकी शहादत को सलाम कर दिया, और पल्ला झाड़ लिया...... बस बाकि कुछ नही............
मानता हूँ की पत्रकारों को भी इसका बेहद दुःख है। यहाँ तक की द टाईम्स ऑफ़ इंडिया की महिला पत्रकार भी इस हमले का शिकार हो गयीं। अगर पत्रकारों को भी इतना दुःख है तो उनके पास तो लेखनी की सबसे बड़ी ताकत है तो क्यों नही उसका इस्तेमाल करते? और सिस्टम के गलियारों की गंदगी को सामने लाते ? उनको जनता जरूर जवाब देगी चुनाव तो चल ही रहे हैं , लेकिन असल बात तो यह है की पत्रकारों को दुःख ही नहीं।
शायद सब चाहते हैं की सब लोग मोमबत्ती जलाकर शोक प्रकट कर रहे हैं तो क्यों न रूपये-दो रूपये की मोमबत्ती जलाओ और शोक प्रकट कर दो। कल फिर अगर कोई शहीद होगा तो असहाए समाज की तरह फिर कुछ मोमबत्तियां वे "हाथ" जला देंगे जो समाज का आईना अपने पास रखते हैं, जो रखते हैं होंसला समाज बदलने का।
एक बात मेरी बिल्कुल समझ में नही आई कि अगर मेरे हिंद के लोग इतने दुखी हैं तो वो मोमबत्ती जलाकर कैमरे कि तरफ़ मुह किए हुए क्यों थे ? क्या वे अपना दुःख जमाने को दिखना चाहते थे या फिर उन शहीदों के परिवार वालों को? कि ये देखो हमने भी..........
कम से कम कोई एक व्यक्ति तो इधर-उधर खड़ा होता ! रही बात कैमरामैन कि तो वह तो ख़ुद-ब-ख़ुद सबको कवर कर लेता।
मैं सच कहूं तो उनके दुःख को समझ नहीं पाया लोगों कि मोमबत्तियां तेज़ हवा मैं बुझ रही थी, लेकिन उनका उस दुःख माध्यम कि तरफ़ ध्यान न होकर दुःख को कैमरे में दिखाने के प्रति ज्यादा था। मुह कैमरे कि तरफ़ करे खड़े हुए थे ? अगर हेंडसम और ब्यूटीफुल चेहरे आ भी गए तो बुझी मोमबत्ती से क्या दुःख खाक नजर आयेगा ?
शहीदों को मोमबत्ती जलाकर शान्ति नही मिलेगी। वो शदीद ही इसलिए हुए हैं की समाज समझ सके की "दोस्तों हमने अपनी जान दी तुम्हारे लिए , और अब तुम वोट दो 'हमारे 'लिए ........"। कोई शहीद नही कहता कि उसकी शहादत में मोमबत्तियां जलाई जायें , वो सिर्फ़ इतना चाहता है कि मेरे साथ हुए शहीदों के शहीद होने के कारण को ही जड़ से उखाड़ फैका जाए ताकि अगली बार कोई सिपाही शहीद न हों , माँओं कि गोद सूनी न हों, बच्चे यतीम न हों, कोई विधवा न होने पाए........
शायद मैं ही ग़लत हूँ । ये भी तो हो सकता है, कि मोमबत्ती के साथ दांत बातें हुए दिख जाए बस...... बाद मैं मोमबत्ती जलाकर दुःख प्रकट करते रहेंगे ।
क्या मोमबती पकड़े और अपना चेहरा टीवी पर दिखाना जरूरी है? जिसे दुःख होगा वो अपने को tv पर कभी नही दिखना चाहेगा क्योंकि वो नही चाहेगा कि मेरे दुखी चहरे को देख कर लोग और दुखी हो जायें .......
अभी-अभी मेरा एक दोस्त आया और ऊपर की लाइन पढ़कर मुझे बोलता चला गया, कि अबे ये सब करना भी जरूरी है ताकि आतंकियों को लगे कि वो देश को दुखी करना चाह रहे थे तो सचमुच देश दुखी हो गया है......
अगर हमने ये दिखावा नही किया या हम दुखी नही दिखे , वो फिर से आतंकी हमला कर देंगे ......तू तो जनता ही है अपनी सरकार को चाहे गृह मंत्री नया हो चाहे नही उन्हें जब हमला करना होता है कर देते हैं .......