एक और हमारा देश विश्व पटल पर अपना लोहा मनवा रहा है तो
दूसरी तरफ हम अन्दर ही अन्दर खोखले होते जा रहे हैं. 12
दिसम्बर 2012 की रात सामूहिक बलात्कार हुआ. उसमें एक नाबालिग भी था जिसे 3 साल की सजा मिली,
20 दिसम्बर 2015 को हाल ही में उसे रिहा कर दिया
गया. समाज ने
खैर
अब विषयवस्तु पर आते हैं. क्या कभी सोच है हमने कि देश
में नाबालिग इस तरह के कृत्य करने पर क्यों उतारू हो रहे हैं?
अगर
ये कहा जाए कि देश में फ़िल्मी गाने बलात्कार को बढ़ावा दे रहे हैं तो गलत नहीं होगा. देश में बढ़ रही अश्लीलता और द्विअर्थी संवादों ने बहुत अधिक प्रभावित किया
है. फिल्म, नाटक, ऑफिस, मॉल, दुकान, पार्क इत्यादि जगहों पर आपको द्विअर्थी बाते करते यार दोस्त मिल ही जायेंगे.
हिंदी फिल्में/ अन्य भाषाई गाने कितने जिम्मेदार
आधुनिकीकरण
की परिभाषा का हिंदी फिल्मों ने जो शोषण किया है उससे संस्कृति तो गर्त में चली ही
गई,
अब साथ में संवेदनाएं भी मरती जा रही हैं.
बच्चे
कैसे बिगड़ते हैं, कुछ उदहारण देखिये-
"मैन्यु
लगा सोलवां साल"- इस गाने को सुनकर नाबालिग या बालिग ये सोचेगे कि आखिर लड़कियों
के सोल्वे साल में ऐसा क्या होता है, जिससे लोग उसके पीछे
पड़ जाते हैं, जब उन्हें इसका जवाब नहीं मिलेगा तो वो असली में
किसी 16 साल की लड़की के पीछे लग जायेंगे, ये पता लगाने के लिए कि 16 साल कि लड़की होने पर उसके
पीछे लोग क्यों पड़ जाते हैं.
बस,
यहीं से छेड़खानी की
शुरुआत हो जाती है. लड़कियों के पीछे पड़ना अच्छा लगने लगता है और धीरे धीर
भटके हुए बच्चे क्राइम की गर्त में चले जाते हैं.
"चढ़ती
जवानी" - जब नाबालिग इस गाने को सुनेगे तो पता लगाने की कोशिश करेंगे की आखिर
कौन कौन सी सीढ़ी हैं जिनसे जवानी चढ़ती है?, जवानी चढ़ती कैसे
है? जवानी चढ़ने से होता क्या है? इन सवालों
के जवाब उन्हें पढाई से दूर करने लगते हैं. घर से दूर इन सवालों
के जवाब ढूँढने के चक्कर में अप्रत्यक्ष रूप से वे कोई न कोई गलत काम शुरू कर देते
हैं. इसमें लड़के एवं लड़कियां दोनों शामिल हैं.
"...
मेरी रातों का नशा...सोया हुआ जिस्म जगा" - दिसम्बर 2015 में एक फिल्म रिलीज़ हुए जिसमें ये गाना दिखाया गया. इस
गाने को सुन-देख कर जानने की कोशिश जरूर करेंगे कि एक जवान महिला
के पुरुष से चिपकने पर ही जिस्म क्यों जाग जाता है. और सुबह जब
पूरी दुनिया जाग ही जाती है तो रात को कौन सा जिस्म जगाने की बात कही जा रही है. इस गाने से सिर्फ नाबालिग लड़के ही नहीं कुप्रभावित होंगे अपितु ये लड़कियों
को भी भटकाने के लिए काफी है. नाबालिग लड़कियां स्वयं सोचेंगी
की आखिर सुबह जागने के बावजूद ऐसा कौन सा हिस्सा है जो सिर्फ पुरुष से चिपकाने पर ही
जाग सकता है. ऐसे में छोटी उम्र में वे वो सब करने लग जाती है जो उनके भविष्य और शरीर
के लिए नुकसान दायक होता है.
"कान
में दम है तो बंद कर वालो"- एक गाने में जोर दिया गया है कि पार्टी होती रहेगी. और कान में दम हो तो बंद करवा लो. "कान" शब्द का ही क्यों प्रयोग किया गया. जबकि दम की ही बात
करनी थी तो "हाथों में दम" या फिर "पैरों में
दम" की बार करते. कान तो शरीर का एक
छोटा सा हिस्सा होता है. इसमें किस तरह ताकत हो सकती है. विश्व में खेले जाने वाले तमाम खेल या होने वाले युद्ध में हाथ पैरों की ताकत
दिखाई जाती है. सब जानते हैं कि कान में दम का कोई सार्थक अर्थ
नहीं है. ऐसे में इस गाने में "कान" शब्द का इस्तेमाल करके कौन सा अर्थ निकालने की कोशिश की गई ये सभी व्यस्क
जानते हैं. फिर भी हमारा समाज और खासकर युवा इस गाने को शादी, पार्टी, मोबाइल फ़ोन में खूब सुनते हैं.
"मैं
हूँ बलात्कारी" - इस गाने पर तो पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने समबधित व्यक्ति को
कोर्ट में बुलाया था. इस गाने से टीनएजर्स क्या सीखेंगे. खुद ही मूल्यांकन कर लीजिये
भोजपुरी
फिल्म/गाने
भोजपुरी
गानों ने तो अश्लीलता की हदें ही पार कर दी. इनके पोस्टर
भी कम अश्लील नहीं होते. आखिर हम कौन सा समाज तैयार करना चाह
रहे हैं. देखिये कुछ उदहारण -
"तेरी
गर्मी दूर कर दूंगा", "अइसन दिहलू पप्पी",
"हाफ पेंट वाली", "कॉलेज के पीछे, "माल कचा कचवा बनिहें गोलगप्पा", "मार
दी कवनो बम", "मन करेला चुसे के होठवा",
"देखे वाला चीज बा औढ़निया में", "ए
रसीली हो", "मजा लेले माल पटाके",
"इतना अप डाउन कईलू चएन फिरी क दिहलू", "लगा दी हमरा लहंगा में मीटर", "भउजी के चोली
अलमारी भईल", "फराक तोहर टाईट बा",
"मोबाइल दूध पियता", "बजार तोहार
गरम बा", "हेड लाईट देखावेली", "सामियाना छेद छेद हो जाई", "बाबू साहेब लहंगा
उठाई", "छेदवा छोट बा", "जींस ढीला हो जाई", "डाल तनी लूर से ना",
"आपन ओढ़नी बिछाव गमछा छुट गईल बा घरे".... और भी कई गानों
के बोल हैं.
इस
बात को नकारा नहीं जा सकता कि द्विअर्थों का प्रभाव बढ़ रहा है. यहाँ एक बात और बतानी
जरूरी है, चूंकि द्विअर्थी संवाद में हंसी आने पर नाबालिग इस और खींचे चले जाते हैं,
ऐसे में जो भाषा पुस्तकों में लिखी होती है वो छात्र छात्राओं को रोचक
नहीं लगती. नतीजा ये होता है नाबालिग पुस्तकों से दूर हो जाते हैं. पढ़ने में मन नहीं लगता, फिर परीक्षा में पास होने के
लिए नक़ल करते हैं, और अगर फ़ैल हो गये तो ख़ुदकुशी जैसे गलत कदम
उठाने लगते हैं. ये प्रक्रिया देश के भविष्य को खोखला करती जाती
है.
सोशल
मीडिया और नाबालिग
नए जमाने में नाबालिगों का मनोरंजन करने का ढंग काफी बदला है. इससे अचरज नहीं होना चाहिए कि बच्चे अब मैदान में खेलने के बजाए घर में मोबाइल
फ़ोन या इन्टरनेट पर आँखें गढ़ाए रहते हैं. वाट्स एप, फेसबुक, यू ट्यूब पर अकाउंट बनाते हैं और इसकी लत पड़
जाती है. स्कूलों में मोबाइल फ़ोन ले जाना, क्लास बंक करना जैसे गलत काम शुरू कर देते हैं. इसके
अलावा बॉय फ्रेंड/गर्ल फ्रेंड बनने या बनाने लगते हैं. और ऐसे
बच्चे समुचित विकास और समुचित शिक्षा को खो देते हैं. यही कारण
है कि यौन शिक्षा देना आज के दौर में कितना जरूरी हो गया है.
दोस्तों
21वीं सदी का मतलब लोगों ने ये नहीं लगाया था कि लोगों के तन से कपड़े गायब हो
जायेंगे. हिंदी फिल्मों के पोस्टर, उनके
गाने, और संवाद ने लोगों को अश्लील मनोरंजन परोसा है. फिल्मों ने लोगों को संवाद का नया आयाम दिया जिसमें अश्लीलता आने लगी. भले ही शुरू में ये अच्छा लगता हो, पर इसने लोगों के
दिमाग में गन्दगी भर दी है. वर्तमान में हो रही छेड़-छाड़ और बलात्कार,
यौन शोषण जैसे अपराध इसी का नतीजा है. बड़ों को
समझाने के समय तो गया, पर नाबालिगों को बर्बाद होने से बचा सकते
हैं.
जो
पेड़ तिरछे हो गये उन्हें तो सीधा नहीं किया जा सकता, उन्हें
सिर्फ काटा जा सकता है, परन्तु जो पौधे तिरछे हो रहे हैं उन्हें
तो सहारा देकर सीधा किया जा सकता है. क्यूं हम उसके तिरछे होकर पेड़ बनने का इंतज़ार
करें और तब काट दें. पेड़ काटना कोई समाधान नहीं है. पेड़ काट काट कर तो बगीचा ही ख़तम हो जाएगा. क्यूं न ऐसा
रास्ता निकला जाए कि बगीचा भी हरा भरा हो और हर पेड़ सीधा बढ़ता रहे.
जरा
कल्पना तो कीजिए.
सन्दर्भ (द्वितीयक आकड़े)
1. http://www.bhojpurixp.com/bhojpuri-me-aslilta-ka-part-3/
2. http://emalwa.com/entertainment/%E0%A4%AC%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80-%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%87-%E0%A4%95%E0%A5%8B-%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A4%B0-%E0%A4%B9%E0%A4%A8
3. इंटरनेट.
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