मजीठिया वेतन बोर्ड ने पत्रकारों की हालत क्या बयाँ कर
दी, मीडिया, प्रेस
मालिकों के माथे पर सांप लोट गये.
आजादी के बाद से कई बार, पत्रकारों के हितों की बातें तो हुयीं पर कोई ठोस कदम
उठाया नहीं गया और जब अब मजीठिया बोर्ड उनके हितों की बात कर रहा है तो उसमे फिर हर
बार की तरह मीडिया संस्थानों के मालिक अड़ंगा लगा रहे हैं. आखिर
क्या दिक्कत है,
अगर दूसरे विभागों की तरह पत्रकारों को भी एक निश्चित
वेतन मिलने लगेगा? क्या उनके लिए वेतनमान निश्चित होना जरूरी नहीं? क्या वे और कर्मचारियों की तरह मानव नहीं? तो फिर क्यों उनके मानवाधिकार का हनन हो रहा है?
आज के लखनऊ संस्करण के "नव भारत टाइम्स" ने प्रेस मालिकों की तरफ से बोर्ड की कमियां बताते हुए उदाहरण सहित तर्क प्रस्तुत किये हैं???
इतने अजीब और हस्याद्पद हैं कि आप स्वयं स्वीकार कर लेंगे कि पैसे की भूख अमीरों को ज्यादा होती है.... देखिये....
बताया गया कि ड्राइवर का वेतन जो 36000 है वो बढ़कर 62000 हो जाएगा.
सोचिये ज़रा ड्राइवर को कौन 36000 वेतन हर महीने दे रहा है? मर्सतीज बेंज चलाने वाले को भी इतना वेतन मासिक नहीं
मिलता होगा. और अगर
"नव भारत टाइम्स" ने यह वेतन
सालाना बताया है तो जनाब यह भी साफ़ कर दिया जाए की 3000 रूपए महीने मिलने पर किसी परिवार का गुजारा आज के दौर
में मुस्किल है, इसलिए गलती से भी मजीठिया बोर्ड का विरोध करना नहीं
चाहिए.
"नव भारत टाइम्स" ने अपने नजरिये में एक चपरासी की तनख्वा 33000 रूपए बताई. अगर ये मासिक आय है तो जनाब अब सुनिए, जब उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग की परीक्षा कड़ी मेहनत
और लगन से पास करता है और किसी जिले
का एस0 डी0 एम0 बनता है, तब जाकर
उसकी तन्खवा लगभग
30000 - 35000 मासिक बनती
है, एचआरए,टीए, वीए, फलाना
ढिमका सब जोड़ जाड़ कर. और "नब
भारत टाइम्स" ने तो कमाल ही कर दिया, चपरासी की तनख्वा 33000 बता दी और ये बताने की कोशिश की कि मजीठिया बोर्ड के लागू होने पर उनकी तनख्वा 58000 हो जायेगी. अगर ये तन्खवा सालाना अर्थात वार्षिक है तो 33000 में 12 का भाग लगा दिजीये तो पता चलेगा कि चपरासियों की मासिक आय 3000 से भी कम बन रही है, और ऐसे में मजीठिया बोर्ड का निर्णय प्रसंसनीय और सराहनीय
है, मीडिया मालिकों को इससे सीखना चाहिए.
क्या चाहते हैं मीडिया मालिक
मीडिया मालिक चाहते हैं कि वे स्वयं पत्रकारों और संस्थान
में लगे कर्मचारियों का वेतन तय करे. वेतन
स्वयं तय करेंगे तो निश्चित है की कर्मचारियों का शोषण करना आसन होगा और यही हो रहा
है... ज्यादा काम करवाते हैं और कम आमदनी देते हैं, अगर आवाज़ उठाने की कोशिश की तो नौकरी से निकाल देते
हैं. पत्रकार जो दूसरों की मुसीबत में उनकी आवाज बनकर उभरते हैं, असल में खुद के लिए आवाज नहीं उठा पा रहे, क्यूंकि उनकी गर्दन मीडिया मालिकों के हाथ में होती है. और यही करण है की मीडिया मालिक नहीं चाहते कि उनके हाथ
में पावर न रहे. वे हमेशा यही चाहते हैं कि सभी पत्रकारों को कम वेतन
देते रहे और ज्यादा से ज्यादा शुद्ध लाभ अर्जित कर सकें. और अगर कोई विरोध करे तो उसे तुरन नौकरी से बाहर कर
दें. और ये सिलसिला ऐसे ही लगातार चलता रहे, जैसा की आजादी के बाद से लगातार चल रहा है. मजीठिया आयोग ने इनकी ताकत को कम करने की बात कही तो
हडबडाने लगे. लाज़मी है भई. और
इसीलिए लोगों को उलटे सीधे अधूरे आंकड़ों से भ्रम में डालने लगे.
क्यों लिखे जाते हैं ऐसे भ्रम पूर्ण लेख
क्या आप जानते हैं, ऐसे भ्रम पैदा करने वाले लेख क्यों लिखे जाते हैं? असल में ये मीडिया में मौजूद लोग जानते हैं कि पत्रकारिता में "चाटुकारिता" भी चल रही है, ऐसे में अच्छे पत्रकार (जो स्वाभिमानी, खबरों
से समझोता नहीं करने वाले, योग्य) होते
हैं वे
पिछड़ जाते हैं, और मीडिया मालिक ज्यादातर "चाटुकार" पत्रकारों को भर लेते हैं, जिस तरह से मदारी के इशारे पर बन्दर गुलाटी मारता है, सर्कस में हाथी डंडे के इशारे पर नाचता है, बिलकुल वैसे ही ये गिनती के चाटुकार (अयोग्य पत्रकार) अपने मालिक के कहे अनुसार काम करते हैं, फिर चाहे समाज का भला हो या न हो. बस संस्थान के मालिक का भला होना चाहिए.
और वही इस लेख "एनबीटी नजरिया" में परिलक्षित हो रहा है.
मालिक के फ़ोन आने पर लेखक साहब ने (जो शायद पत्रकार हो) आनन् फानन में लेख तो लिख दिया शायद, लेकिन ये नहीं पता कर पाए, घूम फिर कर वो अपने पैर पर ही कुल्हाड़ी मार रहे हैं.
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